Thursday, December 26, 2019

दिनमान 114


जब सरकारों के पास स्पस्ट दृष्टि,नीतियां व कार्यक्रम नही होते तो वह सरकार अनिर्णय की स्थिति में होती है।इस अनिर्णय की स्थिति से उपजे निर्णय के दंश को नागरिक समाज को ही दुष्परिणाम भुगतने होते है।यह दुष्परिणाम तत्क्षण नही दिखाई पड़ते इसका परिणाम देश व नागरिक समाज को भुगतने पड़ते है।जिस नागरिक समाज में प्रतिरोध करने की शक्ति नही होती है वह समाज लोकतांत्रिक हो ही नही सकता।कोई भी विचार जब अस्तित्व में आते है तो उसका समर्थन व विरोध भी होगा।यह समर्थन और विरोध नागरिक समाज की प्राथमिकता से संबंध रखते है।इसका कारण यह होता है कि हमारे नागरिक समाज में मुद्दे को चुनने की प्रक्रिया क्या है?हमे यह देखना होता है कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था संतोषजनक है?क्या हमने वाणिज्य,व्यापार,शिक्षा,चिकित्सा,अन्य नागरिक सुविधाएं प्राप्त कर ली है?क्या हमने कुशल चिकित्सक,शिक्षक, साहित्यकार,कलाकार,दार्शनिक,वैज्ञानिक,अर्थशात्री,अन्य जो मानवता के काम आ सके वह बना सके है?या बना पाए है?क्या हमारे भारतीय समाज ने कुछ आदर्श स्थिति की बात कहने व करने तक की आत्मनिर्भर आर्थिक आत्मस्थिति बना ली है?क्या हम वैश्विक दृष्टि से अग्रणी देश व वैश्विक समाज के लिए धरोहर हो चुके है?क्या हमारे सारे लक्ष्य प्राप्त हो चुके है?क्या आदर्श जैसी कोई स्थिति को प्राप्त कर ली गई है या अब इसके बाद प्रगति व आदर्श की कोई गुन्जाईस नही बन पा रही है?क्या हम प्रगति की सारी सीमाएं लांघ चुके है?क्या चिकित्सालयों,शिक्षा संस्थान अर्थ के प्रभाव से मुक्त हो चुके है?क्या भारतीय समाज अपने मानव संसाधन का उपयोग कर पा रहा है?क्या हम अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा दे पा रहे है?क्या रोजगार की स्थिति अच्छी बन पा रही है?क्या संवैधानिक संस्थाएं स्वतन्त्र रूप से अपना कार्य कर रही है?रोजगार की स्थिति संतोजनक है?क्या हम अपनी सरकारों के माध्यम से नागरिक सुविधाएं दे पा रहे है?क्या देश के चिकित्सालयों की ऐसी स्थिति बन चुकी है कि वे अपने समस्त नागरिकों को चिकित्सा की समुचित व्यवस्था कर सकने में सक्षम है?क्या हमने अपने नागरिकों को आवास,सड़क,आर्थिक सुरक्षा व वैज्ञानिक सोच विकसित कर पाने की दिशा की तरफ बढ़े है या ऐसे संस्थान खोल पा रहे है जिसमे हमारे बच्चे वैज्ञानिक हो?अगर हम यह सब नही कर पा रहे है तो क्यों?क्या सरकारें हमारे द्वारा नही चुनी गई है?क्या हमने इसीलिए सरकारों व संवैधानिक व शैक्षणिक संस्थान खोल रखे है जहां स्वतन्त्र विचारों को रचनात्मक उपयोग नही किया जा सकता?क्या हमारी अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर हो चुकी है?क्या सिटीजनसीप एमेंडमेंट एक्ट 2019 से रोजगार सृजन होगा?क्या हमने इतनी समुन्नत अर्थव्यवस्था कर ली है कि हमे विश्व के अन्य देशों से कोई लेना-देना नही है?क्या हम सबके अलग-अलग ईश्वर है?अगर अलग-अलग ईश्वर है तो अलग-अलग ईश्वरों ने हमे यही सिखया है कि हम दयाहीन,हिंसक,कट्टर,समाज का निर्माण करें।भारतीयता क्या कट्टरता है?बदली हुई परिस्थिति में क्या भारतीय जनमानस को कट्टरता की आवश्यकता है?क्या अंतरराष्ट्रीय स्थितियां इस तरह की बन रही है कि कट्टर हुए बिना हमारे समाज का काम नही चल सकता?क्या रोजगार का अधिकार नही मिलना चाहिए।क्या न्यूनतम समानता नही आ जानी चाहिए?कौन धार्मिक स्थानों की स्तुति करेगा।कौन आजान की गूंजती आवाज में अपने ईश्वर के आकार ग्रहण करने से इनकार करेगा?चिकित्सा,शिक्षा,आवास,धर्म,दया,आस्था,क्या महत्वहीन हो चुके है?जीवन मे सरस्वती के संगीत की वीणा कौन-कौन बजायेगा?कौन ईश्वर के गीत गायेगा?कौन आर्तनाद करेगा?कौन किसका रक्षक होगा?स्वर के लहरों में क्या ईश्वर  की स्तुति अब नही होगी।क्या अब निराला,पंत,माहादेवी नही होगी?कौन गांधी,बुद्ध होगा?कौन राम कृष्ण की तरह से होगा?कौन लोंगों में ईश्वर के दर्शन करेगा।कौन विश्व को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ायेगा?कौन आदर्शवादी होगा जिसके उदाहरण देकर हम बच्चो को प्रोत्साहित करेंगे?कौन सबके आखों से आंशू पोछेंगा?यह सब जो उपरोक्त लिखा है क्या इस देश मे नही होता था?यह देश कब वैचारिक रूप से दरिद्र था?क्या दुर्दिनों में लोंगों ने एकदूसरे की मदद नही की है?क्रमशः हमारा भारतीय सामाज मानवतावादी विचारों को क्यों त्याग रहा है।क्या हम आने वाली सन्तातियों को एक परस्पर परिस्पर्धात्मक,पूर्वाग्रही,समाज नही सौप रहे है?क्या हमारे पिताओं व प्रपितामहों ने हमे ऐसा ही विभक्त समाज दिया था?क्या कोई समाज परस्पर पूरकता के गतिशील समाज कहलायेगा?अगर यह सब नही हो सकता तो क्या सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट 2019 का कोई ओचित्य है?अगर इसका मतलब है तो कौन नागरिक है?कौन नागरिक नही है?नागरिक हिन्दू होता है?नागरिक मुसलमान होता है?कौन गिरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए दोषी है?कौन बेरोजगारी बढ़ा रहा है?कौन जनसंख्या पर नियंत्रण रख पा रहा है?आज शिक्षा में फीस बढोत्तरी के लिए कौन जम्मेदार है,आम नागरिक या सरकारें या संसद?आखिर ये सवाल सरकार से न पूछा जाए?तो जबाब क्या नेहरू जी या  पटेल जी जबाब देंगे?क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था अप्रसांगिक हो गयी है?नोट बन्दी से किसको फायदा हुआ?किसको नुकसान हुआ?इन तामाम प्रश्नों के बीच क्या यह सिटीजन अमेंडमेंट बिल 2019 प्रासंगिक है?या रोजगार,शिक्षा,चिकित्सा?अगर आपको सरकार से कोई उम्मीद नही है तो मुझे कुछ नही कहना है।

आप सभी प्रबुद्ध मित्रों को अभिवादन

दिनमान 114

दिनमान 116
भारत एक अत्यंत प्रचीन देश है।इसकी विविधता मे एक तरफ हिमालय है तो दूसरी तरफ समुद्र।विस्तृत भूखण्ड में फैला यह देश मंदिरों पूजा घरों के साथ ही साथ मोक्ष की संकल्पना से आक्षादित है।जीवन क्या है?जीवन के उद्देश्य क्या है?इसमें भटका यह देश आज भी अपनी जिज्ञाशा से परिपूर्ण है।यहां की पूजा पद्धयती ईश्वर के प्रति आस्था सघन है।यह आस्थाओं की पगडंडी पर चलता है।आस्था की पगडंडी पर चलने वाले देश ने सिर्फ आस्थाओं तक की ही यात्रा न की थी इस देश ने आत्म मंथन भी किया जिसमें उसने चांद तारे ग्रह नक्षत्रों की विधा से लेकर ज्ञान, विज्ञान,गणित,लेखन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचार एवम विधाएं भी दिए ।इसका प्राचीनतम स्वरूप व्यापक और दार्शनिकता से भरा पड़ा है तो व्यहारिक स्वरूप आत्मकेंद्रित है।नदियां पहाड़ झरने बनों से आक्षादित यह देश अपने प्राचीन काल मे काफी समृद्ध रहा है।इसकी समृद्धि इसके विस्तृत उपजाऊ जमीन और नदियों के भरपूर उपयोग पर टिका था।गंगा यमुना सिंध वेतवा नर्वदा अन्यान्न नदियों ने यहां के नागरिकों को उत्तम आहार की व्यवस्था सुनिस्चित की थी।पर्याप्त मानव संसाधनों एवम उचित श्रम उपयोग से यह देश परिपूर्ण रहा है। इसकी समृद्धि और ज्ञान की पिपाषा ने बाहर के देशों को यहां आने के लिए विवश किया।इस देश को समझने के कौतूहल ने विश्व को आकर्षित किया एवं परिणाम स्वरूप इस देश को विश्व मे ऊंचा मान दिया।यहां के लोगों की समृद्धि ने यहां के लोंगों में धर्म दर्शन के प्रति गहरी रुचि जाग्रत की,यह जागरण इस देश को भौतिकता से दूर गम्भीर जीवन दर्शन से यात्रा कराता हुआ बहुत कुछ यहां के निवासियों को विचारशील बनाया।जीवन को जीने से कम,जीवन के आत्मिक परिष्कार से जोड़ता चला गया।परिष्करण की प्रक्रिया इतनी जटिल और मनोवैज्ञानिक थी कि यहां के लोग भौतिक जगत से दूर होते गए,भौतिक जगत से दूर होने एकांतवास की प्रवृत्ति ने इस देश के नागरिकों को काल्पनिकता एवम काल्पनिक जीवन जीने को मजबूर किया,उसका कारण जीवन की विविधताओं से लड़ने की जगह उसके शमन की व्यवस्था का धर्म मे आना इस देश के समाज को जड़ करता गया।इसीलिए यह समाज संगठित न होकर विभाजित होता गया यह वैचारिक विभाजन भी इसी कारण हुआ कि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता ने इस देश को अत्यंत समृद्ध बनाया था,समृद्धि विकास का सातत्य लिए नही होता इसलिये यह वैचारिक समृद्धि को अक्षुण रखने के लिए इसके बचाव करने पड़ते है,यह इस आक्रमक होने से बचाता रहा।आक्रामकता का अभाव ही भौतिक पराभव का कारण बना।यह देश  जीव व जगत को समझने में अक्षम रहा(यहां आशय पदार्थजगत से है)इस अक्षमता में भी हमसब ने विश्व कल्याण की बात कही।विश्व वन्धुत्व व सहअस्तित्व ही हम देश वासियों का मूल मंत्र था।विस्तृत सोच वायवीय होती चली गयी इस प्रक्रार की वायवीय  सोच ने  राजनीतिक रणनीति न बना पाने की अक्षमता ने हमे गुलाम बनाया।हमारी प्रतिरोधात्मक शक्ति को क्षीण बनाया।ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना ने हमे धीरे-धीरे भौतिक होना सीखाया।और 1857 तक आते आते प्रतिरोध इतना चरम पर हुआ कि जो देश हथियारों से न लड़कर शाहत्रार्थ मे लोंगों को पराजित करता था,उसने बंदूक भी उठाई,ज्ञान और विज्ञान से भरे इस देश मे राजनीतिक अस्थिरता इस देश की नियति रही है।बस्तुतः छह ऋतुओं समतल उपजाऊ मैदान,एक विस्तृत भूभाग यहां की कृषि,वाणिज्य,सूती कपड़े,मसाले,आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदाय,उन्नत अर्थव्यवस्था,विश्व के लोंगों के लिए कौतुहल का विषय रही,राजनीतिक स्थिरता के अभाव में  हम अपने धरोहर खोते गए।यहां के लोगों में जीवन के भौतिक पक्ष पर कम ध्यान गया,यहां का धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष इतना प्रबल था कि तत्कालीन समाज ने विश्व बंधुत्व,वसुधैव कुटुम्बकम,तक विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती गईं।इसके इतर  ब्रितानी हुकूमत के दौरान यहां के नागरिकों का एक बहुत बड़ा समुदाय कम्पनी के हितों की रक्षा करता था उसका हित साधक वर्ग संस्कृत,उर्दू,हिंदी,इन भाषाओं पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी,चूंकि कम्पनी की भाषा अंग्रेजी थी,अतः कम्पनी के हित में कार्य के लिए यहां के नागरिकों ने अंग्रेजी भाषा को सीखा,जब अंग्रेजी भारत आई तब तक अंग्रेजी विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी।अतः भारतीय लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग अंग्रेजी साहित्य को पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया था,इसका फायदा यह हुआ कि यहां के निवासीयों ने विश्व साहित्य के अद्यतन विचारों एवम विश्व के सांस्कृतिक,सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक पक्षों से परिचित होंगे गए अतः वैचारिक वैविध्य में स्वतंत्र विचारों के नए-नए मानक गड़े जाने लगे,इसका फायदा यह हुआ कि वैचारिक वैविध्य ने भारतीय जीवन शैली को बदलना शुरू किया और यही से भारत पूरे विश्व मे फैल गया,यह इसलिए सम्भव हो सका कि हम विश्व के साथ चलने में स्वयम को सक्षम पाने लगे,इसके परिणाम स्वरूप विश्व के साथ कदम ताल करने के क्रम में इस देश ने लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाया।लोकतंत्र और संप्रभुता का समन्वय ही हमारे स्वराज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था से जन्मे
संसद,संविधान,न्यायपालिका,कार्यपालिका,विधायिका बनी।राज्य की शक्तियों का विभाजन ही इसलिए किया गया कि अपरिहार्य स्थितियों में लोकतंत्र को बचाया जा सके,इसे ही स्वतंत्रता कहा जाता है।यह क्रम 1947 से आज तक कायम है आवश्यकता इस वात की है कि हर स्वायत्त संस्थान की स्वयत्तता जितनी सम्यक संतुलित होती जाएगी,लोकतंत्र और मजबूत होता जाएगा,और हम अपने सतत नागरिक बोध से आने वाली पीढ़ी को एक मानवतावादी साहित्य,एक मानवतावादी समाज की रचना कर पाएंगे जिससे हमारी आर्थिक असमानता में प्रविष्ट गहरी खाई को अपने समन्वयवादी दृष्टि से सम्पूर्ण भारत को पुनः एकाकार करेंगे,यह काम बिना मानवतावादी विचार के सम्भव न होगा।

आप सभी को अभिवादन

दिनमान 117


जन्म और मृत्यु के बीच राजनीति भी है।जो विभिन्न  सामाजिक घटकों से होता हुआ भारतीय समाज एक राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त होता है।इस राष्ट्र में समाहित हम भारत के लोग गायब है?भारत के लोंगों की जगह हम विभिन्न जातियों संप्रदायों में अभिव्यक्त  हो रहे है।भारतीय जनमन में एक दूसरे के प्रति अपनी जातियों से सम्मोहन उनकी कमजोरी बनता जा रहा है।इतिहास के पन्नों को पलटा जा रहा है।कुछ उसके समर्थक तो कुछ विरोधी?लोकतंत्र की यह बदसूरती क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म देती है।स्वायत्तशाषी भारत आत्मनिरीक्षण से बच रहा।इसके कारणों की तह में जायँ तो शासन व्यवस्था में आई राजनीतिक अदूरदर्शिता जहाँ इसके विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है तो दूसरी तरफ आंतरिक रणनीतिक के  अभाव लोगों में लोंगों को रोजगार,शिक्षा,चिकित्सा,से वंचित कराता हुआ नागरिक हितों से समान दूरी बनाए जा रहा है। जहां एक तरफ जनसंख्या के विस्फोट का खतरा है तो दूसरी तरफ राजनीतिक इक्षा शक्ति का अभाव। येन केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति जिससे अधिक से अधिक व्यक्तिगत सम्प्पत्ति बनाना राजनीतिक उद्देश्य होता जा रहा है।राजनीति व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिगत संपत्ति के उत्पादन का पिछले कई दशकों से स्तोत्र बना हुआ है,अगर सत्ताधीश व्यक्तिगत संपत्तियों तक ही राजीनीतिक सोच रख रहे है तो हम भारत के लोंगों का क्या होगा?सत्य और अहिंसा जिस देश की धरोहर हो उस देश मे सत्य और अहिंसा पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे है?लोकतांत्रिक मूल्यों में प्रश्न खड़ा करने की आजादी अवसरवादी हो चली है?लोग सत्ता बनाने और अपना हित साधने में मस्त है।यह मौकापरस्ती कब तक?इन प्रश्नों को हल करने से कतराते लोग अब सामूहिक सोच की जगह व्यक्तिगत हितसंवर्धन की तरफ बढ रहे है।आम चुनाव में नागरिक मुद्दे गौड़ है।राजनीतिक दल यह नही समझ पा रहे है कि इस देश के लोग क्या चाहते है?आम लोंगों की यह मांग है कि चदुर्दिक विकास हो जिसमें उनकी चिकित्सा रोजगार शिक्षा आवागमन के साधन हों,पर बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक एवम उचित वितरण का प्रवन्ध सुनिश्छित हो सके,इसके लिए राजनीतिक दृढ़ इक्षा शक्ति का अभाव है,इस राजनीतिक जीवन शैली का अभाव में नागरिक कभी  रैखिक गति से तो कभी क्षैतिज से त्रिभुज,जीवन के कोण बनाता चल रहा है। राजनीतिक जीवन के सद्गुणों और दुर्गुणों की जो विभाजक रेखा है उसके इस  पार और उस पार में झूलता राजनीति,समाजनीति होती जा रही है ।राजनीतिक जीवन संभावना का वह सकारात्मक-नकरात्मक संभावना का विन्दु है जहाँ न कोई आस है न विश्वास ही है?राजनीतिक अभ्युदय की आस एक ऐसा सुख समुद्र है जिसके जीवन का सौन्दर्य रोज प्रस्फुटित होता है और हम रोज रोज जीवन जीते हुए जीवन के अनुभव प्राप्त करते है।यह अनुभव हमारे बीते हुए कल की चट्टान है जिसको परत दर परत उघाड़ते चलते है और जीवन मिलता चलता है।हाँ दृष्टि वैभिन्न के हम शिकार हो सकते हैं जिसमे हमारा स्वयम के पूर्वाग्रह, स्वयम की मान्यता, जिसका निर्माण हमारी  सामाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक,राजनैतिक, एतिहासिक परम्पराओं में दिखता है उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।किन्तु हमारी सम्यक दृष्टि,चेतना यह निर्धारित कर सकती है की पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगता है या नहीं?अगर पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगतता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाते तो शायद जीवन को खो रहे होते है।अचेतन में आपके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी होते है जो आपके इतिहास का निर्माण करते है और ज्यों ही इतिहास की बात आती है उसमे समाहित होता हुआ उसका जीव विज्ञान,मनोविज्ञान,समाजविज्ञान,सांस्कृतिक धरातल पर यह स्वयम ही प्रस्फुटित होता चलता है।तो हम यह माने की यह विज्ञान,इतिहास,समाज,धर्म दर्शन हमने नहीं बनाए है?यह वाह्य  आरोपित हैं?अगर ध्यान से देखेंगे तो लगेगा यह वाह्य आरोपित न होकर स्वयम द्वारा रोपित है।यह जीवन का आवाह्न है।यह आवाहन एक प्रवाह है जिसकी गति में हम प्रवाहमान है।प्रवाह में अवरोध बोध का है बोध के स्तर का है दृष्टि का है दृष्टि की समग्रता का है।हम अज्ञात के प्रति डरे सहमे अनवरत छिन जाने के भय से भयग्रस्त है।यही से जीवन में अन्तर्विरोध का बीज उगना शुरू होता है और अंतहीन भयग्रस्तता के भवर में फंस जाते है।
हम अनिश्छितता में जीवन जीने वाले लोग है !अनिश्चचित है क्या?निश्चितता का अभाव।यह जीवन में प्रवेश करता है हमारे खुद के सृजन से।सृजन आंतरिक संरचना है।आंतरिक संरचना का वाह्य प्रकटीकरण ही जगत है।जगत है जो विवधताओ से भरा है।यह हो भी क्यों नही?संपूर्ण बांगमय को पूर्ण आकृति देना ही विविधताओं का सममुच्चय है।हमारे आस पास सृष्टि विखरी पड़ी है।हम एक एक कर उन चीजों को प्राप्त करते है जो जीवन के सातत्य,प्रवाह के लिए आवश्यक है।जहां ही सातत्य और आवश्यकता की उतपत्ति होती है वही  हम विविधा में होते है हम और हमारा अंतर्विरोध एक साथ सातत्य में प्रवाहित होना चाहता है लेकिन होता ऐसा कुछ भी नही है?अंतर्विरोध मृत्यु का?अंतर्विरोध दासत्व का ? अंतर्विरोध कुछ छीन जाने का?कुछ रिक्त हो जाने का ? इत्यादि इत्यादि।इस अंतर्विरोध में जीवन के सौंदर्य से जीवन प्राप्त करने से हम वंचित हो जाते है।हम एक काल्पनिक दुनिया का खाका खिंचने में इतने व्यस्त होते है कि हमारा स्वयम से ही विरोध होना शुरू होता है यह विरोध कही सहमतियों का निर्माण करता चलता है तो कही असहमतियों का?दुख का सुख का?प्रचुरता और अभाव का?इन परस्पर विरोधाभाषी जीवन मे स्थायी भाव का न होना या न कर पाना हमे हमारे स्व को अनुकूल और प्रतिकूल बनाता है।अनुकूलन एवम प्रतिकुलन से परस्पर विरोधाभाषी चित्त का निर्माण होता चलता है
और ठीक यहीं से हम जीवन से भयग्रस्त होते है।हम जीवन से कम भयग्रस्त रहते है जीवन के परिणामों से ज्यादा भयग्रस्त रहते है।यह भयग्रस्तता हममे असुरक्षा की भावना उतपन्न करती है असुरक्षा के प्रभाव में हम एक ऐसे वायवीय जीवन का निर्माण करते है जहां दुख ही दुख है ! बेदना है ! करुणा है
 अट्टहास है।यह सब शब्द आते ही है विचारों के मनोभाव से।इन शब्दों का निर्माण ही उन मनोभावों का प्रकटीकरण है।तो गौर करे भय से मुक्ति कैसे हो ? भय से मुक्ति ही निर्भय है अतः निर्भय रहे।

आप सभी प्रबुद्ध मित्रों को अभिवादन

दिनमान 115

आइए आज सत्य व अहिंसा क्या है इन दो प्रश्नों के देखते है सत्य होता क्या है?वस्तुतः सत्य एक पूर्णता की अवधारणा है।यह उगते सूर्य की सुखद अनुभूति है जो उगते समय सप्तरंगी आभा से युक्त एवम आनंद का उद्गम होता है। जिसको देखने से या उसके अस्तित्व से इनकार नही किया जा सकता।दिन के उजाले में व्यक्ति विरोध, स्वयम का दुःख हो सकता,सुख हो सकता है।लेकिन इसके अस्तित्व व जीवन के आरम्भ और अंत अतिरिक्त और क्या हो सकता है?दिन और रात का सत्य और समय का सत्य सब सत्य है।तो असत्य क्या है?हमारी दृष्टि?हमारी शास्त्र सम्मत धारणा है कि हम पूर्ण ही जन्म लेते है,और पूर्णता में ही समाप्त भी हो जाते है।अतः इसका निहतार्थ यह है हम सब सत्य ही है और इसमें से जो निकलता है वह सत्य ही होता है।यहां एक संस्कृत के श्लोक का उद्धहरण दे रहा हूँ ॐ पूर्ण मद: पूर्णमिदम पूर्णाति पूर्ण मुदच्छत्ते पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवा वशीषस्यते।।एक घटक के रूप में आप पूर्ण है।जो पूर्ण है उसमें से जो निकलेगा वह पूर्ण ही होगा और पूर्ण से अगर पूर्ण को भाग दिया जाय तो पूर्ण ही होगा।वह पूर्ण ईश्वर है।और हम उनकी संतानों में से एक है।अतः यह हम सब पर एक समान है,समानता में ही सत्य निवास करता है।सत्य कैसा है?जहां निष्कलुष प्रेम है कुछ शब्द दे देने की उत्कंठा है या दूसरे की पीड़ा से स्वयम को जो पीड़ा होती है वह सत्य है।प्रेम है।आनंद है।जब हम किसी के साथ मनसा बाचा कर्मणा साथ होते है।तो वहाँ हम दो व्यक्तियों में साथ-साथ एकाकार होते है।एकाकार होना ही प्रेम है।उस सामूहिकता में करुणा है,प्रेम है,भले ही उसका दायरा शाब्दिक ही सही,अहिंसात्मक ही सही,विना किसी कारण के जब हम सब स्मृति में होते हैं।सत्य वहाँ-वहाँ होता है।जहां दूसरे के दर्द को अपना समझते है,सत्य वहाँ- वहां होता है।जब हम अपने चरित्र से क़ई लोंगों में निवास करते है सत्य वहा होता है।जब हम निश्छल होते है,और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे होते है, विनम्र होते है, सत्य वहां-वहां होता है।जब कोई अकारण आशीर्वाद दे रहा होता है सत्य वहां होता है।जब हमारा आभ्यांतरिक जगत और हमारा वाह्य जगत एक होता है सत्य वहाँ होता।जब हम किसी के जीवन मे जीने की आस होते है सत्य वहां होता है।जब यह हमसब हम रोज-रोज करते है सत्य वहां होता है।जब हम किसी के दुःख में दुःखी और सुख में  सुखी होते है सत्य वहाँ-वहाँ होता है।असमान दृष्टि ही असत्य है।सामूहिक चेतना में प्रेम निष्कलुष,निश्छल,जल की तरह पारदर्शी व्यक्ति समूह होता चलता है सत्य वहां-वहां रहता है।जब आप खिलखिला कर हँसते है सत्य वहां होता है।सत्य वहां भी होता है जहां आप किसी रोते हुए के आँशु पोछ रहे होते है।आंशू पोछते-पोछते आप स्वायम रो देते है सत्य वहां होता है।जब आपको भूख लग रही हो और कोई और भूखा आ जाय और जब आप अपनी रोटी बांट रहे होते है सत्य वहां होता है।जब आपमे अपने विरोधी के प्रति समादर आता है और आप दयावान हों सत्य वहां उपस्थित होता जाता है।इत्यादि इत्यादि।सत्य एक सुखद अनुभूति है जो स्वयम के साथ समान भाव से सबमे वितरित होती रहती है सत्य वहां होता है।वस्तुतः सत्य की अनुपस्थिति क्यों है?जब आप दूसरे के दुःख में दुखी नही होते है वहाँ असत्य होता जाता है।दरअसल हम जीवन की सम्पूर्णता में रोज रोज रिक्त होते है।जानते है कैसे?जब हम उपरोक्त के विपरीत होते है और  विपरीत होते क्यों है?आइए इस पर भी विचार करते है।हम विपरीत होते है,शारीरिक आवश्यकताओं के लिए।हम और हमारी चेतना से एकाकार नही हो पाती वहां असत्य अद्भाशित होता जाता है।असत्य जीवन मे जीवन जीते -जीतेइतने असहाय होते है कि हम चाहते हुए भी किसी के लिए कुछ नही कर पाते है असत्य वहां होता है,और इसी असत्य में जीते-जीते  हम स्वयम के लिए भी कुछ नही कर पाते।जब हम स्वयम के साथ ही नही हो पाते है तो हम दूसरे के लिए क्या करेंगे?असत्य तब होता है।ऐसा तब होता है जव हम अपनी इक्षाओं के विपरीत कार्य कर रहे होते है।जब हम ऐसा कर रहे हैं हम असत्य और असंतुष्ट जीवन जी रहे होते है।आईए ऐसा क्यों होता है इसके कारणों की तह तक की यात्रा करें।हम जो करना चाहते है वह नही कर रहे है।जिस समय हम अपने को रोक लेते है मुँह फेर रहे होते है हम खंडित मनुष्य होते है,जबकि सत्य पूर्ण है.खंडित मन,खंडित दृष्टि,खण्डित विचार के  संवाहक होते जाते है जानते हैं क्यों?हमसब इसलिए होते है क्योंकि बच्चे को पैदा करने से लेकर हम और हम अकेले होते है हम जितने ही अकेले-अकेले भौतिक जीवन मे होते जाते है हम रोज रोज खण्डित होते-होते समाप्त होते जाते है।अतः वही करें जो आपको अच्छा लगे जो आपको आनंद दे।सुख और आनंद में अंतर को समझते चलें।सुख बस्तुओं में होते है आनंद हमारे अंदर होता है।ठीक उसी तरह जैसे हम अकेले जन्म लेते है और अकेले ही मर जाते है।अतः प्रत्येक मनुष्य वस्तुतः सामुदायिक होता है जब समाज मे पीर पराई जाने रे का अभाव हो जाता है,हमारे अंदर की जो भी करुणा है संवेदना है क्षरित होने लगती है और हम क्रमशः उसको मारते जाते है अन्त तक आते-आते हम स्वयम करुणा के पात्र हो जाते है।जहां आप करुणा बाटने आये थे वह न कर हम सब इतने कंजूस होते जाते है कि अपना दुःख दर्द भी नही बांट पाते है,आप समाप्त हो जाते है इसी तरह आपका तत्कालीन समाज मर जाता है यह विकृतियां इसलिए आती हैं जब हमारी सामुदायिक सोच समाप्त हो जाती है।यह सब इसलिए होता है की हमारा जो सामुदायिक जीवन है ईर्ष्या जगत में परिवर्तित होता जाता है,अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती जाती है।हम ज्यो ही किसी के सुख में दुखी या ईर्ष्या रखने लगते है दुखी होते जाते है।जानते है क्यों?इसके कारणों की तह तक जाँय तो हमारा पीर पराई जान रे का बोध ही क्रमशः समाप्त होता जाता है हम कठोर व लालची अपने आपको ऊंचा आंकना शुरू कर देते है।दरअसल हम जीवन मे परस्पर विरोधाभाषी समाज मे रहते है जहां कोईं आपका अपना नही होता तब आपको पता चलता है कि कौन अपने है?जब तक यह पता चलता है जीवन काफी आगे निकल चुका होता है कि हम उनलोंगों के प्रति निर्मोही होते जाते है ऐसा करते समय हम सभी लोंगों के प्रति दया की जगह हिकारत करने लगते है यहां भी हम एक नए तरह की शब्दिक हिंसा कर रहे होते है।जब हम किसी  की सिर्फ आलोचना कर रहे होते है तो स्वयम के प्रति भी हिंसा कर रहे होते है.अगर आप किसी को कुछ दे नही सकते तो क्या सहानुभूति भी नही दे सकते?अगर आप यह सब नही कर रहे है तो आप अहिंसक नही है?आप स्वार्थी है हिंसक है?और अगर आप स्वयं में स्वार्थी और हिंसक है?तो कब आपका व्यापक समाज कब तक इन विकृतियों से मुक्त रहेगा।और अगर आपस मे हम पूर्वाग्रह से मुक्त नही है वह सरल,स्वाभाविक,निष्कलुष समाज रह पाएगा?जब कि आप उस समाज के बराबर के सहभागी है.तो क्या ईश्वर ने आपको इसलिए जीवन दिया है कि आप असहस्तित्ववादी हो जाँय आप हिंसक हो जाएं?एकदम नही,कदापि नही,मूल्यों से न हटे चाहे जो हो जाय।जब निश्चय ऐसा होता है तब आप निर्भय होते है और ज्यों ही आप निर्भय होते है आप और आपका ईश्वर आपके साथ होता है।ईश्वर पर अटूट भरोषा रखे।सफलता रुपया नही है ना ही यह पद है ना ही अन्य बस्तुओं की प्राप्ति है इसके इतर ईश्वर आपके साथ है वह आपकी सहायता करता चलेगा आप ईश्वर के साथ-साथ होते जाईये।आपमें निर्बल के बल राम है।आपके पास जो भी है वह ऋण के रूप में हो जिम्मेदारियों के रूप में हो रोग के रूप में विपरीत परिस्थितियों के रूप में हो वह आपकी मनुष्य के रूप में हमेशा आपको आपके साथ मिलेंगे।मनुष्य का शरीर मरता है स्मृतियां नही।स्मृतियों में किसी मनुष्य का वस जाना ही वह मानवता की सार्थकता है।अतः हमेशा अच्छा बोले हो सके तो करते रहे आपका भी अच्छा होता चलेगा। आपके लिए भी लोग प्रार्थनाएं करते चलेंगे।अतः जितने लचीले व सहज हो सकते है लचीले व सहज होते चलिये यह करने से आप स्वयम में आनंदित होते रहेगे।अगर आप आनंदित रहेंगे तभी तो आप अन्य लोंगों में आनंद बांटेंगे।अतः अपने अंदर वैठे अपने अबोध वालक को जीवित रखे यह याद रखिये आपका अबोध वालक मनोवृत्ति ही व्यापक जन सुधार करती चलेगी।
आप सभी को नमस्कार

Thursday, November 21, 2019

डॉ0 फिरोज


डॉ0 फिरोज के लिए
भाषा किसी जाति व धर्म की नही होती।यह जो हो रहा है मैं एक भारतीय नागरिक के रूप में छुब्ध हूँ और बेहद दुःख है कि संस्कृत भाषा की संस्कृति कलंकित हुई है।हम क्या करें
हम नए तरह के आदिवासी जीवन जीने को मजबूर है।जहां कोई स्नेह नही है ना कोई प्रेम है,ना ही कोई परस्पर अनुराग है,जहाँ असहमति है,विखण्डन है,क्षोभ है,कुछ रिक्त हो जाने का भय है,कुछ पा लेने की चाह है,प्रतिस्पर्धा है,हम पुनः उसी तरफ चल रहे है जहां से हम यह कह कर चले थे कि हम सभ्य हो रहे है,हमने एटम बम बना लिए है,हमने उपकरण खरीद लिए है,हम जमीन पर दोनों पैरों से चलने वाले से साइकिल तक,साइकिल से कार,कार से हवाई जहाज,अब अंतरिक्ष मे प्लाट लेने की तैयारी है।क्या यह प्रगति है?प्रगति का अर्थ है लगातार उन्नत होने से है प्र जो ऊर्ध्व हो गति का अर्थ है चलायमान।सभ्यता के विकाश क्रम में हम गतिहीन नही हो सकते।इसका कारण यह है यह चराचर जगत गतिशील है।हम रुक जायँ पर जगत कहां रुकता है?वह गतिशील है तो इस गतिशीलता में आप आगे जा रहे है या पीछे यह देखना पड़ेगा।सभ्यता का विकास हिमयुग से शुरू होता हुआ पाषाण युग फिर धातुओं की खोज फिर उन धातुओं का सकारात्मक व नकारात्मक प्रयोग,आपस के झगड़े,युद्ध,विविषिका,फिर शांति।आज हम जहां खड़े है वह शांति है या शांति की विविषिका है?क्या हम कुछ ज्यादा भयभीत,अशांत,दुराग्रही,असन्तुष्ट,उत्पाती,नही हो रहे है?अगर यह सब है तो क्या हम सभ्य है?या हम सभ्यता की खोज में सेक्स के आनंद,मदिरा सेवन का आनंद नही ले रहे?अगर उपरोक्त में आनंद आ रहा है तो फिर हम असन्तुष्ट,भयग्रस्त,परस्पर प्रतिस्पर्धा में क्यों जी रहे है?बस्तुतः हम और आप मिलकर एक ऐसे समूह की संरचना कर रहे है जिसमे घृणा में आनंद आ रहा है?परस्पर प्रतिस्पर्धा में आनंद आ रहा है?बल पूर्वक किसी का कुछ छीन लेने में आनंद आ रहा है?अगर इन सब मे आनंद नही आ रहा है आनंद कहां है?सेक्स शराब,जमीन,दुकान,मकान,कार,बंगला,गाड़ी मोटर,हवाई जहाज अंतरिक्ष मे?आंनद और सभ्यता कहां है?यह सोचना पड़ेगा।क्या किसी का हक छीन लेने का आंनद,ऊंचे पद पाकर आप आनंदित है?हर जगह उत्तर नही ही मिलेगा।यह सब जो आप और हम कर रहे है।इसमें अगर आनंद होता तो ये प्रश्न ही न खड़े होते।इसका मतलब इसके निषेध में आनंद है?तो इसका सर्जक कौन है हम आप?तो दुःखी कौन होगा हम और आप ही।बस्तुतः यह एक गंभीर विषय है यह मनोरंजन का विषय नही है।हम और आप ही ने मिलकर इसकी सर्जना की है।अगर सर्जना नकारात्मक है तो इसे समाप्त करने पर ही हम आनंदित रह सकते है।तो क्या हम आधुनिक बस्त्र पहने आदिवासी है?या आदिवासी होना ही मनुष्य का मौलिक चरित्र है?तो क्या हम नए किस्म के आदिवासी होते जा रहे है जहां हमारा कोई समाज नही है ना ही कोई सुरक्षा है।क्योंकि सुरक्षा के लिए हमने पिस्तौल बना ली है?सुरक्षा के लिए कांक्रीट के ऊंचे दीवार बना लिए है?क्या कुत्ते के साथ सड़क पर  हम कुत्ते से मैत्री का भाव रख रहे है कि उसके अलावां कोई आपका मित्र नही है?तो जीवन क्या इस पड़ाव पर आ चुका है कि हम मनुष्यों में संभावना बची ही नही रह गयी है।हमारा मष्तिष्क लगातार प्रगति कर रहा है जितने डॉ0 बड़ रहे है उससे ज्यादा रोगी?क्या डॉ0 रोग बढ़ा रहा है?या सभ्य होना आनंद से च्युत होना है।तब तो वही काल अच्छा था जब हम सामूहिक रूप से जीवन जीते थे।तो क्या हम आधुनिक बस्त्रों में क़बीले नही है?अगर नही हैं तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम कितने भी सभ्य हों या सभ्य दिख रहे हो हम बस्तुतः सभ्य नही है।हम शिक्षित इसलिए होते है कि हम सभ्य परिवार बनायेगे,यही परिवार समाज का अंग होता जाता है फिर यही राष्ट्र का फिर अंतराष्ट्रीय संदर्भो में होता जाता है।हम जहां भी समाधान की तरफ बढ़ते है समस्याएं जटिल और जटिल होती जाती है।इसका एक मात्र निदान सहअस्तित्व व अहिंसा है।हम भारतीय कुछ असहिष्णु व अहिंसक होते जा रहे है।हम जब विचारों के कपाट बंद कर लेते है तो नए विचार दस्तक नही देते।अतः सब लोग खुले मन से एक दूसरे के साथ सहअस्तित्व बनाये व अपने-अपने परिवारों को प्रसन्न रखे।अन्याय के खिलाफ एकजुट हो व अच्छे लोग सार्वजनिक जीवन मे आएं विचार व्यक्त करें।हमारा पूरा भारतीय समाज फिर 1947 से पहले की स्थिति में न पहुंच जाए इसके लिए हमे खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना पड़ेगा।2014 से राजनीतिक दिशा ग़लत रास्ते पर जा रही है इसको रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है और उनलोंगों से सतर्क रहने की जिम्मेदारी भी है जो हमारा एकता व अखड़ंता को नष्ट करना चाहते है।हम धनहीन होते हुए मन से कर्म से व वचन से सबकी सेवा कर सके ऐसा ईश्वर हमे सद्बुद्धि दे।अगर हम लिख सकते है तो लिखे जो भी कर सकते हो करे।मुझे लग रहा है हम प्रगति न कर अधोगति की तरफ जा रहे है।यह अतीत का अनुभव है जिसे मैं व्यक्त कर रहा हूँ।हमारी कट्टरता हमारा विनाश कर देगी।हमारी जीवन पद्यति,शिक्षा पद्यति,आर्थिक पद्यति,सामाजिक पद्यति,राजनीतिक पद्यति कट्टरता में नही रही है।हम ज्यों ही कट्टर होते जायेगे शनै: शनै: विनाश की तरफ बढ़ रहे होंगे।अतः राम कृष्ण,विवेकानंद के इस देश को राम कृष्ण के अनुसार चलने दे,इनके नाम पर राजनीति,अर्थनीति,से अगर बच सके तो बचे,हां अगर लोकतंत्र को बचाना है तो जातिबाद को मिटाना होगा।लोकतंत्र एक अनुपम धरोहर है हर कीमत पर इसे बचाना हमारा नागरिक धर्म है,लोकतांत्रिक मूल्यों व वैश्विक शांति के हम तभी अग्रदूत हो पाएंगे जब हम शांत व हमारी वैश्विक साख बची रहे।अन्यराष्ट्रीय संदर्भों में हमारी साख गिर रही है अतः क्षरण से रोकें।

मैं लिख लिख कर अपना काम कर रहा हूँ।आप भी लिखें।

Monday, November 18, 2019

दिनमान 93


मंदिर शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से मन व दर की संधि से जो बना है वह मंदिर है या मन के दर(स्थान) जहां खुलते है वह मंदिर है।मन क्या है?आइए आज इस विषय पर चर्चा करते हैं।मन मष्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।बस्तुतः मष्तिष्क की रचना धर्मिता ही मन है।जिसको केंद्रीय स्नायुतन्त्र कहते है।हम सबका केंद्रीय स्नायुतन्त्र इतना संवेदनशील होता है कि हमारी दैनिक जीवन की सारी कार्यविधियों का यह संचालक होता है।मष्तिक एक स्थूल परिधि है जिसकी भित्ति पर मन गतिशील होता है।बस्तुतः जिस शरीर के हम वाहक होते हैं उस शरीर की मूल आवश्यकताओं में आहार है।आहार के विना शारीरिक क्रिया की गतिशलता असम्भव है।अतः शरीर को आप अन्न से जोड़ सकते है।लेकिन मन भौतिक शरीर का वह सूक्ष्म शरीर है जो हमे क्रियाशील ही नही बनाता वह अत्यंत गतिशील भी होता है।मन की गतिशलता में मष्तिष्क वह केंद्रीय तत्व है जिसके अस्तित्व में होने के कारण ही मन है।मन अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे कल्पना,सर्जना,वह केंद्रीकृत संवेदना है जिसे आप स्पंदन भी कह सकते है।वह तरंगित होता रहा है।यह लागभग आपके शरीर का अत्यंत सूक्ष्म भाग होता है जिससे आपमें स्मरण शक्ति होती है।और स्मरण शक्ति व वाह्य जगत से निष्कर्ष प्राप्त व उस निष्कर्ष का कल्पनाओं के आधार पर आप किसी भौतिक वस्तु को जिस तरह देख रहे होते है उसमें वह चित्र या विचार जो पूर्व में आपके स्मृति के अंग रह चुके होते है उन्ही विचारों व अभिव्यक्तियों का वह सममुच्चय होता है।सारे विचारों का स्फोट आपकी संकलित की गई जो स्मरण शक्ति है।उसके ही आधार पर आप कोई भित्ति चित्र बना सकते है या लिख सकते है या बोल सकते है या आप करते है।अतः आप यह कह सकते है कि स्मरण और संकलित विचार या विशेष दृष्टि जो आपके मनोनुकूल होती है आप अभिव्यक्त करते है।इसी तरह से आप झूठ बोलते है अच्छे कार्य भी करते है।क्योंकि यह सब सामाजिक अन्तःक्रिया के परिणाम होते है।आपका शरीर इसका संवाहक होता है अतः संवाहक के अस्तित्व व परिवेशकीय संरचनाओं से यह अछूता नही हो पाता।इसकी अधिकता में आपके पूर्वाग्रही होने के खतरे हो सकते है।क्योंकि मनुष्य की कल्पना शक्ति का प्रकार अतिभिन्न है।जैसे कोपरनिकस ने जब यह कहा होगा कि पृथ्वी गोल है तब उसने पृथ्वी का माप नही लिया होगा पर दूर क्षितिज के अंडाकार होते दृश्य से हम भी इस कथन को मान लेते है कि पृथ्वी गोल है बाद में कोपरनिकस की कल्पनाओं के आधार पर यह वैज्ञानिकों ने माना की बस्तुतः पृथ्वी गोल है।मन का शरीर भी आपके शरीर का वह भाग है जो स्थूल रूप से वह अभिव्यक्त होता है।जैसा रूप व शारीरिक संगठन होता है उसी के अनुसार आपका सूक्ष्म शरीर होता है।मन इन्द्रियानुभव का वह आकार होता है जिसमे रूप,रस,स्पर्श,घ्राण,एवम प्रत्यक्ष व परोक्ष की कल्पना करता रहता है।मन ही एकमात्र वह कारक शक्ति है जिससे जगत का व्यापार चलता है।निर्भर यह करता है आपका जो प्रत्यक्ष अनुभव है वह आप किस तरह उसकी अनुभूति करते है।बस्तुओं की ग्रहण शीलता व बोध के भिन्न-भिन्न आयामों में आपने जो स्मृति का भाग बना रखा है वह ऊर्जान्वित है या नही?यह मानते हुए चलें कि दृष्टि वैभिन्न इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण शक्ति, स्पर्श की संवेदना का घनत्व कितना-कितना है साथ ही साथ दृष्टिबोध की आवृत्ति की पूरकता का अनुपात कितना-कितना है।अगर हम सब समग्रता से सब देख रहे होते है तो दृष्टि की विभिन्नता में भी एक निष्कर्ष को प्राप्त होगें नही तो दृष्टि की विभिन्नता आ जायेगी।क्योंकि आपके द्वारा जो स्पर्श किया जा रहा है या जो देखा जा रहा है या जिसका अस्वादन किया जा रहा है सब का बोध अलग-अलग होगा।इस अलगाव में भी मन एक सममुच्चय है तो जो सममुच्चय के रूप में जो होगा वह सममुच्चय में ही चीजों को देखेगा।यही मत मतांतर है।हर व्यक्ति का जिस तरह शरीर अलग-अलग होता है उसी प्रकार मन की स्थिति भी अलग-अलग होती है।अतः बोध की एकता ही मन की एकता है अन्यथा बोध की एकता के अभाव में आपका बोध अपूर्ण होगा।मन एक पूर्ण इकाई है।किसी का मन न तो रिक्त होता है ना ही उसे रिक्त किया ही जा सकता है।अतः पूर्ण से पूर्ण को निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा।तो वह मन का जो दर(स्थान) है वह मन का मन्दिर है या वह दर जहां मन है वह मंदिर है या आप यूँ कह सकते है कि जिन-जिन समुच्चयों में मन है और मन का दर है वह मन्दिर है।इसलिए मन एक मंदिर है या शरीर एक मंदिर है जहां हमारा मन दर पाना चाहता है जहां मन स्थान पाना चाहता है वह मंदिर है या शरीर ही वह दर(स्थान)है जहां मन है।

आप सभी मित्रों का अभिवादन ।

Sunday, November 17, 2019

दिनमान 90

दिनमान 90
आज लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकार भाईयों का दिवस है।भारतीय गणराज्य का यह वह लोकतंत्र है जहाँ के पत्रकारों को कोई सुविधा नही है।घुट-घुट के पत्रकारिता करते यह इस गणराज्य का वह लोकतांत्रिक स्तम्भ है जहां इनकी आर्थिक सुरक्षा,बीमारी,अस्पताल,बस,रेल,हवाई जहाज,सूचना प्राप्त करने,साहब लोंगों से कुछ पूछ लेने का कोई अधिकार नही है।जिन लोंगों को यह सुविधा प्राप्त है वे दिल्ली स्टेट गेस्ट हाउस के वे पांच सितारा अब के जमाने मे दस सितारा होटल के मेहमान होते है जिनके लिए गाड़ी व ड्राइवर की गाड़ी खड़ी रहती है।अब पत्रकार कारपोरेट व सरकार के बीच सेतु का काम कर रहे है।इस समय कारपोरेट पत्रकार जहां एक तरफ मोटी तनख्वाह पा रहे है।तो नए-नए पत्रकार डंडे की मार या मुकदमे के डर से  नही लिख रहे है।अब हर पत्रकार कहां से कोई मीडिया हाउस खोल सकता है?शुक्र है एक रविश कुमार जो ट्रोल हुआ है और इन्ही के पत्रकार मित्र उसको ट्रोल करते रहे हैं।जब आम जनता उसके साथ खड़ी हुई है तो हालात कुछ सामान्य हुए है।हमारे गांव के कई बच्चे पत्रकार है।मेरे गांव के एक पत्रकार भाई ने मुझे बताया था कि किसी जमाने में मजीठिया आयोग बना था।जो पत्रकारों की आर्थिक सुरक्षा और पत्रकारों को कर्मचारियों की तरह से सेवा सम्बन्धी कुछ प्रस्ताव सुझाये थे,मजीठिया आयोग की संस्तुतियों व उसके अनुपालन के लिए एक निर्णय मा0उच्चतम न्यायालय ने पत्रकारों के पक्ष में आदेश भी दिया था।लेकिन यहां के कारपोरेट को बीस प्रतिशत का लाभ नही चाहिए?यहां के कारपोरेट भी अस्सी प्रतिशत फायदे के चक्कर मे मानवता को बेंच दे रहे है।पूंजीपतियों की संख्या कम है,और श्रमिक ज्यादा हो गए है,तो मजदूरी का रेट पर अगर पेट पर काम हो जाय,तो इससे ज्यादा अच्छा क्या रहेगा?यही भारतीय पूंजीपति हैं और यही इनकी मानवता है।इन पूंजीपतियों को यह नही समझ आता है यही वो श्रम है जो पूंजी में रूपांतरित होती है जिससे उनकी पूंजी की आभा है तो लक्ष्मी की आभा को तिजोरी में रखकर चैन से सो रहे है।सुप्रीम कोर्ट और कानून इनके घर पानी भरता है।मेरे पास आंकड़ा नही है ना ही मा0 उच्चतम न्यायालय का आदेश है ना ही इन पत्रकारों में इतनी हिम्मत ही है कि वे जहां काम कर रहे है उनके खिलाफ संवैधानिक अधिकार मांग सके?पत्रकार को क्या कोर्ट भोजन कराएगा?ये लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ चुप-चाप अखबार मालिकों की जी हूजीरी कर रहे है।क्योंकि खाने पीने की व्यवस्था इन्ही अखबार मालिकों के भरोसे चल रहा है।अगर अवमानना बाद दायर कर दे तो नॉकरी चली जायेगी।ऐसे तो एक टाइम का भोजन भी सुरक्षित है न?तो मा0 पत्रकार महोदय लोंगों से निवेदन है कि अपने लिए अपने देश के लिए पीत पत्रकारिता छोड़कर अपनी आंतों में थोड़ी हवा भरे वह हवा सीने तक आ जायेगी कुछ अपने व अपने बच्चो की हक की लड़ाई लड़ ले।हमलोग तो वकील लोग है,हमको व जज साहब को तो ऋषि मुनि हो जाना चाहिए न?हमारे न घर होते है?न ही हमारी बीबी होती है न बच्चे होते है?पहले हम स्वतन्त्रता के आंदोलन के नेतृत्व करने वाले हुआ करते थे तो आजकल गुंडे हो गए है।तो आप जैसा कर रहे है वैसा ही भर भी रहे है।आप पढ़े-लिखे लोग जब वकीलों और काले कोट को गुंडे बदमाश कहेंगे तो क्या होगा?चार पायों पर खड़ा लोकतंत्र जब आपस मे ही अलोकतांत्रिक होगा तो लोकतंत्र का क्या होगा?आपलोग ज्यादा समझदार है यह हम कहां नही मानते कि आपने जो विद्वान कह-कर हमारा मजाक उड़ाया है वह आपने लोकतंत्र के लिए अच्छा किया है?हमलोगों को तो जनता की नजर में आपने धो ही दिया है।लेकिन हम वो नही जो आप सोचते है।हम तो वही सोचते है जो संविधान की प्रस्तावना सोचती है।इसीलिए हम खुद के बारे में कम हम भारत के लोंगों के बारे में ज्यादा सोचते है।यह हम वकीलों की एक ऐब है हम ऐबी जो ठहरे?हम वकीलों का क्या है?पाकिट में अठन्नी न हो पर क्लास वन आफिसर है।गाहे वेगाहे इस अकड़ से हमारे जज साहब भी परेशान रहते है।इसीलिए बहुत लोग ला करते-करते जज हो जाते है।कुछ जो इस वकालत पेशे में है वे भी जज भी  बन जाते है।फिर वे ही ला ग्रेजुयट जज साहब,वकील साहब को सब्जी बेचने से लेकर जेल भेज देने की धमकी देते रहते है।इसीलिए इस स्तम्भ का भी पाया हिल ही रहा है।वो हम वकील हैं कि अपनी टांग अड़ाए है तो न्यायपालिका का विशाल न्यायतंत्र खडा है।वह चाहे नायब तहसीलदार साहब की कोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट हो?आपलोग ही वे सजग प्रहरी है जिनकी सूचना पर सरकारों का भविष्य तय होता है।हम कानून के जादूगर है तो आप आंकड़ों के जादूगर है।हमारी जादूगीरी संविधान सम्मत है तो आपकी जादूगीरी शब्दों की जादूगीरी है।बता दीजिए जीडीपी दस प्रतिशत है।हम कैसे नही मान लेंगे?मानना पड़ेगा ही।वैसे ही जैसे दरोगा जी की प्रथम सूचना रिपोर्ट है कि अदालत में जिरह करते रहिए एक बार दरोगा जी चाह जाय तो जेल तो पक्का है।यह इसलिए आज नहीं लिख रहा हूं यह न जाने कब का पक्का हो चला है कि नॉकरशाह पुलीस व नेता जी का गठजोड है।इस पर भी सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट है।अगर वह सरकार इम्प्लीमेंट कर देगी तो लोकतंत्र नही आ जायेगा?तो हमारे आपसे सबसे बनी जो सरकार है वही दोषी है?तो उसके घर लिए चलता हूँ।आईये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से इंडियागेट चलते है।यहां अमर जवान की जो ज्योति जल रही है इसकी अनवरत लौ में लोकतंत्र दिख जाएगा।वो देखिए अमर जवान ज्योति से विजय चौक राष्ट्रपति भवन है उसके ठीक बगल में संसद भवन है जो इस देश की सबसे बड़ी पंचायत का भवन है।जहां से 136 करोड़ लोंगों का भविष्य संवरता है।यही से भारत रत्न सहित अनेकों पुरुस्कार मिलते है।यही वह लुटियन जॉन है जहां पहुंचने के बाद सबकी लुटिया डूब जाती है।जिसकी इस लूटीयन जॉन में लुटिया डुबी तो वह लुटिया भर लेता है तो जिसने लोटा डालके निकाला तो उतना पानी निकलता है।कुछ लोग बाल्टी ब तमलेट ले के जाते है और सात पुश्तों के लिए ऐसा पानी निकालते है कि 72 साल से पानी ही निकल ही रहे है।सुना है लुटियन जॉन में पानी व हवा की दिक्कत हो गयी है?तो हम भारत के लोग एक दूसरे से मिल कर क्यों नही रह रहे है?कोई नेहरू को गाली दे रहा है कोईं किसी को गाली दे रहा है।इस जॉन में शब्दों की मर्यादा लोंगों ने खो दी है।जब सबने घर फूक तमाशा देखने की ठान ही ली है तो आइए फिर भोगते है।मीठा-मीठा गप्प-गप्प तो कड़वा-कड़वा थू-थू क्यों भाई?बदलिए।बदलने से सब बदल जाता है।जब आप और हम बदल जाएंगे तब जव मीठा खाने का मन होगा मीठा खायेंगे और जब कड़वा खाने का मन होगा मिर्च डाल के कड़वा कर लेंगे।पहले जब सुगर के रोग का जमाना नही था तो लोग खूब गुड़ खाये है।तो देखिए विचारिये पत्रा खोलकर पंडीजी विना पैसा के सब बता दे रहे है फिर यह मत कहिएगा की पंडीजी ने बताया नही था।अब हम पत्रा बन्द करते है आपलोग भी फालतू की चीजों को बंद करे।'''संघे शक्ति कलियुगे""हम भारतीय  संघ को कह रहे है इससे आर एस एस का कोई लेना देना नही है।

आप सभी पत्रकार भाईयों को लोकतंत्र के पत्रकारिता दिवस की बधाई।अभी भी आपलोग बहुत अच्छा कर रहे है अच्छा करने का प्रयास करते रहिए हम सब साथ-साथ है। मित्रों को अभिवादन

Saturday, November 16, 2019

चाचा नेहरू को समर्पित

दिनमान 88 यह नेहरू को समर्पित है
ये भारत है !यहां हीरे,जवाहरात के तख्तताऊस पर न जाने कितने पैदा हुए और चले गए।कोहिनूर हीरा यहीं का है।हीरे में भी हीरे की खोज करने वाला भारत न सिर्फ कोहिनूर है,बल्कि वह नूर है जिसकी इबादत से पूरी कायनात जवां है।यह कोटि-कोटि ब्रह्मांडों का वह देश है जिसे किसी जामाने में आर्यवर्त कहा जाता था।तब इस भूभाग में रहने वाले सभी आर्य थे।आचार्य से आर्य समझे।यह वह भूभाग है जहां छह ऋतुओं का अनवरत कालचक्र चलता रहता है।जो विश्व के अन्य भूभागों में दुर्लभ है।भारत का वह भू भाग गांगा बेसीन का भूभाग है जिसने अपने तटीय क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपजाऊ व समतल जमीन व अपने निवासियों की विशाल जनसंख्या दी है।जिनकी सुवह जै राम जी से शुरू होता हुआ जै सियाराम तक होती है।उत्तर की उर्वरता में न जाने कितने देवता पैदा हुए तो उत्तर से दक्षिण को विभाजित करती विंध्य पर्वतमाला की बड़ी-बड़ी चोटियां है जिसको दक्षिण भारत का इलाका कहा जाता है।यह भारत माँ का वह बक्सा है जहां धर्म है,दर्शन है,आचार्य हैं।जहां बेद हैं श्रुतियाँ है,असंख्य बन है।कावेरी बेसीन का बहुत बड़ा भाग भारत की अविरल संस्कृति की सरिता है पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्षिण तक विस्तार है।जहाँ वेद लिखे गए हों जिसकी ऊँचाई ज्ञान की अंतिम उचाई है,जहाँ ऋग्वेद इस देश का चिंतन है तो यजुर्वेद यहां के निवासियों के लिये बनस्पतियों में जीवन देता हो तो सामवेद ध्वनि की ध्वन्यात्मकता में प्रभाव डालता है जो जीवन की सलिल सरिता है,अथर्वेद,अर्थों के अर्थ बताता है।भारत को देवभूमि भी कहा जाता है।जानते है क्यों?यहां राम,कृष्ण,व संत ही संत हुए है।विश्व का नक्शा उठाएं टापूओं पर बसे देश मिलेंगे।वह चाहे ग्रेट ब्रिटेन हो या अमरीका हो,फांस हो,जर्मनी हो।यहाँ का सर्वश्रेष्ठ मूर्ख भी उतना ही ज्ञान रखता है जितना कि ज्ञानी जन।जानते है क्यों?यहां की संस्कृति में सहअस्तित्व नाम का जो निच्छल भाव है वह इस देश के  मान को बढाता है।निच्छल शब्द से जो भाव उगता है वह उलीचने का भाव है उलीच देना का मतलब कुछ दे देना वह चाहे आशीर्वाद हो या इस देश का भूभाग हो।इसने विश्व को सिर्फ दिया ही दिया है।यह देश यहां के शासकों को सिर्फ देता ही रहता है यह लेता कुछ नही सब कुछ दे देता है।तो आप भी लीजिये दो अंजुरी गंगा जल न सही तो विलुप्त होती सरस्वती को ले सकते है।लेने के लिए झुकना पड़ता है और यहां के लोंगों ने झुक-झुक के बहुत कुछ लिया है।तभी किसी को बहुत कुछ दिया है।लेना और देना इस देश की विशेषता रही है।किसी देश का नागरिक जितना पढ़ के नही जान पायेगा।यहां का नागरिक मौखिक रूप से उतना अपनी जीवन शैली से जान जाता है।इस देश ने आक्रांताओं को भी उतना ही दिया है जितना इस देश के नागरिकों को दिया है।आक्रांताओं ने उसका सदुपयोग किया और शासन किया तो यहां के नागरिकों ने विगत चालीस वर्षों से जो उत्पात मचाया है कि यह फिर उसी ढर्रे पर निकल पड़ा है जिसे हम मध्यकाल मे छोड़ आये थे।जब कई सौ वर्षों तक लगातार पढ़ते रहेंगे और यहां के पुरातात्विक खोंजे करते रहेंगे तो सब कुछ सप्रमाण सब मिलते जायेंगे।यह विश्व की सबसे उन्नत सभ्यताओं में से एक है।इसका मतलब यह नही है कि सभ्यता के नाम पर आप हिटलर हो जाय?इसदेश के जनमानस में हिटलर कभी न पूज्य रहा है न रहेगा।इस देश ने पूरे विश्व को धर्म,जीवन दर्शन,व अविरल संस्कृति दी है।अगर हमारा इतिहास सौ पचास वर्ष का होता तो खसरा खतियान निकालता। यह कई हजार वर्षों की कहानी है तो कहाँ से खसरा व खतियान निकालूं?जिसके पास रुपया है वह सुदूर पूरब से सूदूर पश्चिम,व सूदूर उत्तर से सूदूर दक्षिण तक की यात्रा कर के देख ले।यहाँ की पुरातात्विक थातियों में वही सारे विश्व के खसरे व खतियान मिल जायेंगे।1857 से जब हम भारत के लोगों ने अपना खसरा व खतियान देखना शुरू किया तब जाकर नब्बे वरष के सतत संघर्षो,वलीदानों के बाद विश्व ने हमे 1947 में हमारा खसरा व खतियान दिया।उसमे जिन्ना की जिद ने पाकिस्तान बनवाया।वह इस देश का वह आवारा विगडैल बेटा है जो रोज-रोज अपने बाप से झगड़ा-रगड़ा करता रहता है।उसकी वेवकूफी से अफगानिस्तान और हमारे अफगानी भाई हमसे बिछड़ गए(सीमांत गांधी वही के थे)मुझे ऐसा लगता है वह फिर मिलेगा गलती सुधारेगा।सबकुछ होते हुए हम जानते है क्यों कुछ नही है?आपस की फूट यही आपसी फूट रही है जो हमें देवता से दानव बनाई है? जिसका इतिहास एक हजार ईसवी के बाद आता है।आज जब हम पुनः इक्कीसवीं सदी में है तो हमे अतीत से कुछ सबक लेना चाहिए।अनेकता में एकता जो 1947 में भगत सिंह,बोस,आजाद,गांधी नेहरू पटेल ने दिया,वह अगर विना मतभेद के रख सके तो रखे।यही से वह सब मिलेगा जो अभी तक नही प्राप्त हो सका है।अतः अपने पूर्वजों को न सिर्फ पढ़े ही उनके आचरण को अपने आचरण में ढाले यही अपने पुरखों के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।आईये हम गांधी,सुभाष,नेहरु भगत सिंह हो जाय।ज्यों ही आप एक हुए यह देश आपको इतना दे देगा कि आने वाली संतति आपको शब्दाजंलि देने से पहले शब्दकोश देखेगी की उस व्यक्तित्व के लिए कौन से शब्द पुष्प ठीक होंगे।तो निवेदन है शब्दों के ऐसे पुष्प बनाइये जिससे सबका पेट भरे,हर बेरोजगार हाथ को काम मीले,सब प्रसन्न हो सब सुखि हों।इसीलिए माहापुरुषों ने कहा है '' सर्वे  भवन्ति सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,आज नेहरू जी का जन्म दिन है वे आधुनिक भारत के नीव थे।नीव दिखती नही वह पृथ्वी में दब जाती है।अतः नीव को और मजबूत करें उनकी स्मृति में पुनः हम अनेकता में एकता को बनाये रखे यही उनके जन्म दिन को मनाने की सार्थकता होगी।अन्यथा समय निकलता जाता है देश चलता जाता है।निकलते हुए समय को तो हम नही पकड़ पाएंगे पर अगर विना किसी भेदभाव के सबका सम्मान व हर हाँथ को काम देते जाएंगे तो वह दिन दूर नही जब हम पुनः मानवतावाद के अग्रदूत बन विश्व शांति का पाठ पढ़ाएंगे।

आप सभी के अंदर बैठे आदिदेव को प्रणाम।उस महान सपूत को प्रणाम जो कभी इस देश का लाल था।ऐसे लाल के जवाहर को शत-शत प्रणाम ।

वशिष्ठ नारायण सिंह

दिनमान 89 वशिष्ठ नारायण सिंह
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का सस्वर शरीर नस्वरता को प्राप्त हो गया।अपने विद्यार्थी जीवन मे वे गणित विषय के विशेषज्ञता के लिये जाने गए।इससे पृथक जो गणित से हटकर जीवन था वह कुछ नही था।वह तो वह शरीर था जो उपयोगिता व ह्रास के नियम से आवद्ध है।उनके शारीरिक संगठन मे वह मष्तिष्क था जो गणित के अलावां कुछ नही था।उनको गंभीर मानसिक विमारी थी जो उनके मृत्यु तक साथ रही,उनकी असली मित्र भी वह बीमारी ही थी जो उनके जीवन में प्रसिद्ध गतितज्ञ होने के साथ तक रही।आज जब मैं लिख रहा हूँ तो सिर्फ उनकी विशेषता या उस गणीतिय प्रभाव से मुक्त नही हूँ कि वे प्रसिद्ध गणितज्ञ थे।मैं सिर्फ अपनी कलम इसलिए चला रहा हूँ कि वे गणितज्ञ थे,अगर मैं उनका पुत्र होता तो शायद उनको कोसता की क्या जरूरत थी ऐसी पढाई की जिसने जीवन को जीवन की तरह जीने ही न दिया?तो मेरा स्वयम का उत्तर भी यही होता कि यह उनका दुर्भाग्य था या जीवन का सौभाग्य की गहन विक्षिप्तता की अवस्था में भी उनके प्रशंसकों की कोई कमी नही है।यही तो जीवन है जो मरने के तत्काल बाद लोकमानस में जिंदा हो जाता है,इसीलिये वह जीवन जीत जाता है और मृत्यु हार जाती है।कहने वाले तो यहां तक कहते है कि जब तक आप मरेंगे नही तब तक आपको नर्क क्या स्वर्ग में भी जगह न मिलेगी?यह सही है कि मरना पड़ेगा तभी आपको या हमको नर्क या स्वर्ग मिलेगा।तो कब मरे ?इस सोच में बहुत लोग जिये जा रहे है।तो कुछ लोग मर-मर के जी रहे है?कि पता नही स्वर्ग व नर्क होता भी है या नही,चलो जी लेते है।जीने में भी हाच-पाच है कि मरे या जीये?मृत्यु क्या है?अगर व्यक्ति स्वस्थ है उसे शारीरक कष्ट नही है तो मृत्यु से साक्षात्कार करता हुआ मर जाता है,वह यह देखते हुए मर जाता है कि अब उसके स्वर के स्पंदनहींन हो रहे है और वह जब निस्पंद जब स्थगित हो जाता है फिर उस व्यक्ति की न कोई कल्पना होती है न कोई स्मृति होती है।वह निश्चेत होते-होते मर जाता है।निश्चेतना ही मृत्यु है।मृत्यु के बाद शनै: शनै: उसका शरीर नष्ट होना शुरू करता है।हमारी फिजियोलॉजी इस तरह की होती है अगर सक्रिय कोशिकाएं निष्क्रिय हुई तो वह सड़ने लगती है।अगर उसे उसी तरह छोड़ दिया जाय तो उसकी शारीरिक क्रिया के प्रतिक्रियाहीन होने की वह वजह है।जहां सूर्य की ऊष्मा उसे अवशोषित करती चलती है तो हवा उस ताप के अवशोषण को और हवा देती है।हाड़ मांस का शरीर क्रमशः गलना शुरू कर देता है व उसका सातत्य उसके शरीर को नष्ट कर देता है।फिर न उसकी कोई आकृति ही रहती है न उसकी सर्जना ही वह अतीत का वह भाग हो जाता है जैसे बीता हुआ कल हो।जैसे आपको याद है जब आप प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे तो आपका रूप रंग कैसा था?और आज कैसे है?तो क्या बदलती हुई शारीरिक अवस्था आपकी मृत्यु नही?यह बदलता चलता है और आपको पता भी नही चलता।इसकी प्रक्रिया इतनी धीमी-धीमी गति से होती है कि आप उससे अनजान ही जीवन को जी रहे होते है।वह जो आपका अतीत मरा है उसका अहसास है आपको है?नही।यही जीवन की तिलष्मी है कि जो आपको पता भी नही चलता और आप मर भी जाते है।यह जीवन के मृत्यु का पक्ष है तो जीवन का पक्ष वह यह है कि आप रोज-रोज जीये।जीते हुए मरें जैसे कुछ गांधी की तरह मर जायँ।उस तरह मरे कि लोंगो के लिए कुछ कर के मरे।मरना तो सबको है आज नही तो कल।तो हम रोज-रोज जी कर निर्भय होकर क्यो न मरे?भय में भी मरना है?निर्भय में भी मरना है?तो निश्चित कीजिये कैसे मरना है?जब आप किसी के सामने हाँथ फैलाते है मरने को तो आप उसी समय ही मर जाते है।जो आदमी जितना ही मरता है उतनी ही प्रचण्डता से वह जीता भी है।क्रिया -प्रतिक्रिया ही जीवन है।मृत्यु शरीर का स्थगन है।जितने ग्रन्थ लिखे गए है वह जीवन की जीवंतता से मृत्यु की भयावहता के बीच भोगी गयी त्रासदी में लिखे गए है।जीवन की जीवंतता लोकमंगल से जुड़ी है तो मृत्यु की भयावहता आस के अभाव से जुड़ी है।जीवन मे आस के दिये को जलाए रखिये रोज-रोज मरिये जिंदा रहने के लिए।यही जीवन है।इतने संवेदनशील न हो जाय कि आप और हम आत्महंता न हो जाएं।जैसे वशिष्ठ नारायण सिंह जिंदा रहे।बस्तुतः वे मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन उनके गणित ने उनको मार दिया था।यह जीवन उपयोगिता व ह्रास के नियम पर नही चलता यह जीवन जीवन की जीवंतता से चलता है जैसे महाराणा प्रताप का जीवन था,जोखिम में भी साहस रख्खे,लगातार जीयें उन असंख्य लोंगों को जो विरोधाभाषी जीवन की आवृत्ति में युक्त है युक्त से मुक्त ही जीवन है।ईश्वर और नियति और मानवता को यह देखना पड़ेगा कि जो वशिष्ठ नारायण सिंह थे वह नियति के मारे थे या मानवता के माननीयों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया।यही असली भारत का वह तथाकथित मानवता से भरा समाज है जो उपयोगी अत्यापयोगी अनुपुयोगी को योगी सिद्ध करती है।नही साध सकने में हमारे सामाज की विफलता ही वशिष्ठ नारायण सिंह को वह वशिष्ठ नारायण बनाता है।जिसकी कोई शिष्टता नही है यही जो नही है यही मृत्यु है नही तो जीवन आनंद ही आनंद ही है इस तरह एक गतितज्ञ आनंद को प्राप्त हो गया।यहाँ मृत्यु हार गई नियति भी उनका कुछ न विगाड़ सकी जीवन जीता वह मृत्यु वशिष्ठ नारायण सिंह से हार गई।नियति भी उनकी परीक्षा में अनुत्तीर्ण ही रही।उनकी अजर अमर आत्मा को प्रणाम
आप सभी का अभिवादन

Thursday, August 1, 2019

दुआर -दलान और ड्राइंग रूम

उन्नीस का पहाड़ा आज तक नही याद हो सका गुणा -गणित में कमजोर,कितने कीचड़ों,बीहड़ो,से दो चार होते गांव के मेड से ना जाने कहाँ - कहाँ भटकते-भटकते जीवन के रास्ते पर चल ही रहा था,हर रास्ते पर कुछ दूर चलते चौराहे मिल जाते थे न कोई लक्ष्य था न कोई मंजिल ही थी,इसी बीच कुछ ने इस दुनियां से ही विदा ले ली।खैर यात्रा का प्रारम्भ होगा तो समाप्ति भी होगी यह सबके साथ होता चला आया है सो कोई नई बात नही है।कुछ लोंगों का समय उकड़ूँ वैठा था तो कुछ अर्जुन की तरह मछली का आंख देख स्वयम्बर भी रचा लिये।तो कुछ सूत पुत्र हो कर्ण हो गए।सबका चयन अपना -अपना था।कुछ ने रति का साथ नही छोड़ा तो कुछ के लिए रति भष्मीभूत काम को पुनर्जीवित करने के यत्न में जुटे थे,कुछ को शिखंडी होना पड़ा तो कुछ जन्मजात थे,रूप और यौवन से मत्त मेनका ने विश्वामित्र को तीसरे जगत के निर्माण से रोका था।कुछ पुत्र इतने आज्ञाकारी थे कि उन्होंने अपना यौवन ही अपने पिता को दे कर संतुष्टि पाई और पिता रंगमहल में अपने बच्चे को जीर्ण होते देख यौवन की मादकता से ऊब कर यौवन लौटाया था।अंततः यथार्थ को भी दया आ गई थी।समय के चौराहों ने कितनों के चेतन -अचेतन को प्रभावित किया था।चेतन-अचेतन की वह अंधी दौड़ जो कभी स्कूल में खेल-खेल में खेले थे।अब खुली आँखों से अंधी दौड़ की तैयारी हो ही रही थी कि किसी ने आंख की पट्टी को खोला था।अब बाधारहित दौड़ की बारी थी सो आंख की पट्टी खोल दी गयी थी।इस भाग दौड़ में कुछ ने नंगी आखों की दौड़ लगाई तो तो कुछ ने गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध ली।स्त्रीलिंग,पुलिंग,उभयलिंगीयों के व्याकरण को ठीक से समझ भी नही पाया था पंडीजी ने तत्सम,तद्भव,उपमा,अविधा,लक्षणा,व्यंजना,तक पढ़ाते-पढ़ाते कब रस की निष्पत्ति हो गईं यह कहाँ पता चलता है।अभी तो पालने के पूत की तरह कुछ हाथ-पैर मारता कुछ दूर ही चला था कि किसी ने जोर से आवाज लगाया क्या करते हो भाई,कमसे कम वह ब्रूटस तो नही था।कालीदास की तरह पेड़ काटते काटते एक ब्रह्म दो हो गया दो का एक ब्रह्म कब हो गया यह ध्यान ही न रहा।यह सब दुआर को छोड़ने का नतीजा था।जब आदमी अपना दुआर छोड़ता है तो ठीक दूसरे दुआर के कुत्ते जैसा हाल होता है।इसकी अलग त्रासदी है तो मजे भी अलग हैं।दूसरे दुआर के कुत्तों से साहचर्य बढ़ना।साहचर्य और सौहार्द को खोजता निकलता अभी आगे ही बढ़ा था कि अखाड़े के पहलवान ऐसी लंगी मारी की चारो खाने चित्त हो गया।अखाड़े में लंगी की वेईमानी पुरष्कृत हो चुकी थी।हारे हुए जुवारी की तरह सर को नीचे झुकाए दुनियां के सर्कस में जोकर हो गया।भूमिकाओं और भागिमाओं का जीवन मे कितना महत्व होता है यह समझते समझते इतनी देर हो गयी थी जैसे अंग्रेजी का ट्रांसलेशन के पाठ को पढ़ाते हुए पंडीजी ने मुझे पूछा था कि मेरे आने से पहले गाड़ी छूट चुकी थी और मैं उसका अंग्रेजी में अनुवाद न कर पाया था।जीवन मे अनुवाद न करने की गलती से मौलश्री की छाया छुटी और किसी का सैल्यूट आजीवन किताबों में बंद हो गया।जन्म के समय पाया कवच कुंडल कितने दिन काम आता।दया से दैन्य होता कब किसको क्या दे दिया ?कब किसने कितना लिया ? यह कहां कोई भूलता है।उधार की नांव पर सवार अभी पानी की धार को देख ही रहा था कि हवा पछुवाँ वह गयी,मल्लाह अभी नांव की कुंडी को सीधा कर ही रहा था कि हवा के ववण्डर ने नांव के पाल को ही उड़ा ले के चल पड़ी।एकोहम द्वितियों नास्ति की सारी परिभाषा ही बदल गयी।राम नाम सत्य है कहते -कहते नांव किनारे चुपचाप खडा हो यात्रियों की उतरने की प्रतीक्षा ही कर रहा था किसी ने पीछे से आवाज लगाई क्या करते हो भाई?मुझे ठेलते वह आगे बढ गया।अभी वो आगे बढ़कर पूछ ही रहा था कि कितनी नावों में कितनी बार ?घाट-घाट का पानी कोस कोस की भाषा को अभी कोस ही रहा था तब तक पैर के अगूंठे में उडुक लग चुका था खून से लतफत अंगूठे के नाखून को जोर से आंख मूँदते हुए खिंच ही रहा था कि किसी ने शवासन की मुद्रा बताई और यह भी बताया कि जीवन के लिए यह मुफीद होता है।इसी मुफीद दवा को हांथ में लिए -लिए साहित्य हो गया।आदिकाल,मध्यकाल,आधुनिक काल से होता हुआ प्लेटो से कार्ल मार्क्स हो गया इधर कुछ प्रेमचंद और गोर्की बनने की तैयारी चल ही रही थी कि छायावाद और अंधायुग शुरू हो चुका था।नॉका विहार कहा कर पाया था कि कामायनी ने सारे सर्गों की याद दिला दी थी।इसी सर्गो में विचरण करते राम की शक्तिपूजा की याद हो आई थी।रामचन्द्र शुक्ल की तरह टी.एस.इलियट को अभी कहा पढ़ पाया था तब तक भाषावैज्ञानिकों की टुकड़ी शंखनाद करते हुए स्नायु तंत्र पर ही टूट पड़े थे।अब उन्हें शरीर से कोई खतरा न था शब्दों को ढाल बनाये तलवारें भांज ही रहे थे तब तक कलिकाल का प्रभाव उनके धर दस्तक दे चुका था और लिखा जा रहा था ''अंधेर नगरी चौपट राजा।टका से भाजी टका सेर खाझा।।हा खाझा से ननिहाल की याद आ आई जहां की सीता जी थी वही मेरा ननिहाल भी है।सो उनकी त्रासदी को मैं कैसे भूल सकता था,प्राक्कथन में दोहराता बुदबुदाता रावण को अट्ट -सट बोलता,मर्यादा को कैसे तोड़ता?प्रश्नवाचक चिन्हों के बीच समय वक्र हो चला था,1857 में मंगल पांडे ने जो गोली मारी की धुंआ आज तक उठा ही रह गया,नव्वे बर्षों के अथक परिश्रम के बाद राम राज्य आ ही गया था।1947 में झंडा फहराया गया था। ऐसा किताबों में पढ़ा था,संविधान लिख उठा था।हम भारत के लोग ही प्रस्तावक व प्रस्तावना थे इसमे न जाने कब कौन प्रस्तावक बन बैठा कुछ याद नही।शक्तियों के विभाजन में कब कौन शक्तिशाली होता रहा पता ही न चला,नून,तेल,लकड़ी,में कहाँ कुछ बुझाता है भाई ।

Tuesday, July 30, 2019

बोध 1

बोध 1
आप सब मे ऊर्जा का अजश्र स्त्रोत है,क्योंकि चेतना अपने आप मे पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण को अगर निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा,हां यह बात अलग है आपमें जिस ऊर्जा का संचरण हो रहा है उसका विस्फोट आप ही कर रहे है या यह वह है,जो आपके अन्तःक्रियाओं के परिणाम है?या प्रतिक्रिया स्वरूप आप एक अभिनव,सकरात्मक ऊर्जा का निर्माण करते चल रहै है?यहां यह ध्यातव्य हो कि जो भी सकरात्मकता एवम नाकारत्मकता है वह हमारे-आपके द्वारा विभाजित रेखा है जिसके इस पार से उस पार तक पूरा जगत है।हम उसी जगत की बात कर रहे है जहां प्रतिस्पर्धा,द्वेष,ईर्ष्या,है तो ठीक इसके विपरीत करुणा,दया,ममता का समानांतर अजस्र स्त्रोत भी है जो अपनी स्वाभाविता में गतिशील है।बस्तुतः ये जगत के वे उत्पाद है जिसके रचयिता व संघारक हमीं आप है । हमने ही जीवन को जटिल-सरल किया हुआ है।जटिलता जगत का गुण नही।जब आप जगत को संवेदनशील हो देखते है तो जो दृष्टि उभरती है वह आपकी हमारी एक जैसी ही होती है क्योंकि हमारा जीव विज्ञान,रसायन विज्ञान,भौतिक विज्ञान, मानव विज्ञान,साहित्य एक ही है विश्व के जितने ज्ञान की विधाएं है सब एक जैसी ही है अतः हमारा सबका आभ्यांतरिक जगत एक जैसा ही है।सामाजिक परिवेश,परिवारिक परिवेश,सांस्कृतिक परिवेश हमारी निर्लिप्त चेतना में संलिप्तता लाते है यह संलिप्तता ही निर्लिप्तता से पृथक करती है यह कभी भाषा के रूप में,कभी विचारों के रूप में पृथक -पृथक हो कर पूर्वाग्रहों आग्रहों का निर्माण कराते है।अचेतन मन इन पूर्वाग्रहों एवम आग्रहों की अत्यंत झीनी विभाजक रेखा को देख नही पाता फिर या तो वह आग्रही हो जाता है या वह पूर्वाग्रही हो जाता है।आइए चेतना के पूर्वाग्रह और उसके आग्रह को देखते है।एक पारिवारिक इकाई के रूप में जब हमारे ऊपर विचारों की श्रृंखला को संप्रेषित किया जाता है तब हम नही जानते की वह जीवन का आग्रह है या हमारे अंदर पूर्वाग्रहों की एक लंबी श्रृंखला बनाई जा रही है।हम उसी भांति जीवन को आचरित करना शुरू कर देते है।नदियों को प्रणाम,धरती को प्रणाम बृक्षों को प्रणाम चराचर जगत को प्रणाम करते है जिससे आवश्यक रूप से बिनीत भाव उपजता है और बिनीत भाव से हम अपने आंतरिक जगत के सौंदर्य को बाह्य जगत में देखना शुरू कर देते है तब वह हमारे धार्मिक,रीति,रिवाजों की अहम अभिव्यक्ति होती है।व्यक्तिगत सौंदर्य का हम जब विस्तार करते है वह वैभिन्नईक समाजों से होता हुआ गोचर होता है,ज्यों ही इसको पसारना शुरू करते है तत्क्षण अहमतियों- सहमतियों का जन्म शुरू हो जाता है सारा सौहार्द बोध ग्रसित हो अपनी समस्त ऊर्जा को या तो असहमतियों को समहत करने में या सहमतियों की युक्तिसंगतता देखने मे क्षरित हो जाता है यही से भगौलिक वटवारा,संप्रभुता,युद्ध,जैसी स्थितियां बननी शुरू हो जाती है,और हम विरोधाभाषी हो एक चेहरे में कई चेहरे लगाना शुरू कर देते है और जगत के सौंदर्य से बंचित हो जाते है यह सौंदर्य की त्यक्तता हमे रिक्त करती चलती है और हम एकांगी होना या उसके प्रतिपादक या अग्रदूत होने की अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के पात्र होना शुरू करते है यह हमारा आग्रह भी होता है और पूर्वाग्रह भी।सहमति और सहजता से च्युत तब हम अधिनायक होते है तब हमें रंगों में भेद दिखाई देने लगता है तब कोई कुरुप होता है तब कोई सुदर्शन होता है।तब सभी पर्यायवाची न होकर विलोम हो जाते है । हमने जितने अनुलोम विलोम बनाये है हम उसी अनुलोम- विलोम में पूरा जीवन खपा देते है और यही से हमारे बोध का क्षरण आरम्भ होता है अतः इन उच्चावच्चों में यह देखना होगा कि सम्यक का संकुल किधर है ।

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम
मैं अपने पिताजी के घुटने के बराबर ही था पर उनके जैसा बनने,बड़ा हो जाना चाहता था अब मेरे चाहने से पूरी पृथ्वी अपनी कक्षा में पचास वर्ष एक ही बार मे घूम तो नही जाती पर मैं चाहता था कि वह घूम जाय और मैं पिताजी जैसा बन जाऊं,पर ऐसा होता कहाँ है ? से अनिभिज्ञ अपने बड़े होने की प्रतीक्षा करता रहता,अन्य भाई बहन जिनके हाथ पैर लंबे होते जाहिर है उनका कपड़ा भी बड़ा होता था । सबके सब आदेश की मुद्रा में मुझे अनुशासन का पाठ पढ़ाते बड़े हो रहे थे और मैं आज्ञापालक की भूमिका में विनम्र रहता क्योंकि थप्पड़ से चोट बहुत तेज लगती यह बात अलग है कि जब मैं फुक्कारे मार जोर - जोर से रोता मेरी बड़ी बहन जिसने एकाध तप्पड़ रसीद किया होता था वे गुड़ भी खिलाती थी जिसको माँ न जाने कहाँ - कहां रखती थी । उसका डिब्बा कभी खाली नही रहता था,मुझे उस डिब्बे की ज्यों ही महक लगती उसका कुछ गुड़ उदरस्थ हो गया रहता सो स्थान बदलती रहती मैं अपना मन बदलता रहता वह छिपाती और मैं खोजता रहता कभी कभी मुझे लगता था कि वह छिपाती ही इसीलिए थी मैं खोज लूँ । लुका छिपी के इस खेल मैं लगभग पारंगत था,इस विशिष्ट कौशल का विकास उसकी सदाशयता ही थी दांत पिसती,डांटती वह कब बूढ़ी हो गयी और मैं युवा इसका पता ही न चला,पर उसकी हनक के हुंकार से मैं आजीवन सहमा रहा कभी हिम्मत न पड़ी की उसके सामने तेज से कुछ बोल पाऊं । उसके स्वर की कडुआहट में उतना ही गुड़ रहता था जितना कि उसके प्यार में,जिसको मैं कभी उसकी गोद मे बैठ उसके दूध पीने के लिए नाटक करता, यह नाटक इसलिए भी करता क्योंकि उसकी गोद मे जब भी मैं होता आँचल से मेरा सिर ढ़ंक कर दूध पिलाती और मेरे सर को सहलाये जाती अपने जन्धे को बार बार फैलाती की मैं उसमे समा जाऊं और मैं जगह घेरता जाता आकार के अनुरूप उसकी गोद में भर जाता था यह सिलसिला कभी पाँच मिनट का होता या मैं छोड़ता ही न था । कंठ में जो भी बूंद गए उसने इस शरीर मे इतना बड़ा घर बनाया की मैं आज तक निवृत्त न हो पाया । ऐसा नही है कि मैं निवृत्त होना चाहता हूं क्योंकि उसकी स्मृतियों से निवृत्त होना मेरे अस्तित्व से निवृत्ति है अतः वह मुझमे है और मैं उसमे हूँ । अब पिता जी !! मेरे पिताजी की कद काठी सामान्य थी उनके साथ जानवरों को चारा ले आने जाते समय मैं उनके कदमों को देखता जूते की तलवे की छाप वरसात के दिनों में स्पस्ट दिखयी पड़ जाता था उनके जूते के तलवे की लकीरों से जो बोध उपजा वे इस पृथ्वी के सम्राट से कम न थे और मैं  स्वयम्भू राजकुमार । वे अक्सर राजनीतिक धार्मिक दार्शनिक व्यख्या किया करते थे जबकि वे अपने जीवन मे कम पढ़ने को लेकर मर्माहत भी रहते थे । शायद यह मर्म ही रहा होगा कि वे महाराज दशरथ न बन पाए न ही मैं राम,लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न्, वे जुलाई 1924 में पैदा  हुए थे,स्वतंत्रता संघर्ष भी देखा था,वे घोषित स्वतंत्रता सेनानी तो नही थे लेकिन इस मातृभूमि के सच्चे भक्त थे,इस देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण मैं बना तमाम प्रकार की संपत्तियों से बंचित उत्तराधिकारी के रूप में मुझे वैसुधैव कुटुम्बकम ही मिला और अब तक मैं उनकी इस धरोहर को सुरक्षित रखा हूँ ।
क्रमशः

Saturday, July 27, 2019

ठूँठ का ऊँट

ठूँठ का ऊँट
बहुत कुछ आपको पढ़ना नही होता,वह तो आपके अन्तर्जगत में समाहित है,हां कभी -कभी उस पट को झांक अवश्य लिया करे ,जहां तक आपने देखा है,उसके उस पार का जगत भी ऐसा ही है,जैसा आपने देख छोड़ा है,जब आप किसी सजीव को देख रहे होते है,उसके लिए आपको कोई साहित्य या पुस्तक पढ़नी नही पड़ती,आपके अंदर का साहित्य,इतिहास,अर्थशात्र,दर्शनशात्र,भूगोल,भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान,मानव विज्ञान, संस्कार,धृणा,प्रेम,अनुकूल - प्रतिकूल अक्षरों के रूप में वाक्य के समूहों में उद्घाटित होने लगते हैं।आपके अंदर का तमस - उमस के साथ वाहर निकलने लगता है और आप उसे व्याकरण के धागे में पिरोते हुए किसी के गर्दन में उस शब्दों की माला को डालकर प्रतीत की अनुभूति को प्राप्त होते है,हां यहां यह ध्यान रखना होगा कि प्रतीति का भी संवेदी सूचकांक होता है बस यहीं-कहीं,किसी को प्रतीति में संभावना दिखती है तो किसी में वह चक्रवात की तरह आलोड़न कर देती है या प्रतीति अपना अर्थ ही खो देती है । खैर संवेदना कोई ठोस बस्तु नही वह द्रव होता है जो स्वयम में गतिशलता लिए कभी सीधे तो कभी चौतरफा पानी के बेग को  धरती में फटे दरार को तृप्त कर देती है,यह प्रक्रिया कभी मद्धिम तो कभी-कभी तीव्र होती ही रहती है । मद्धिम और तीव्र होते उसके गुण रैखिक नही होते वे छैतिज भी नही होते है।रैखिक और छैतिज के बीच मे आप कभी जीवन के चतुष्कोण बनाते व्यास को अपने प्रक्रार से मापना शुरू कर देते है क्योंकि इनकोणों में ही या तो आप व्यस्त है याआपके द्वारा खींची गई रेखा आपकी भंगिमा है तो भागिमाओं को पढ़िए जो आपके मूल उतपत्ति में है जो आपको विश्राम देती है,विश्राम से गोचर होती भंगिमाओं को आप उसके इर्द - गिर्द ही देख पाएंगे,क्योंकि जहां से आप इन चीजों को देख रहे है  वह निराधार नही वह आपके अस्तित्व के आधार होते है,तो जिसका जो आधार हो उसका वह ही निष्कर्ष भी होता है तो निष्कर्णात्मकता की दृष्टि भी  वायवीय ही जानिए, वायवीय होने के अपने खतरे है तो अवायवीय के भी अपने खतरे कम नही हैं अतः वायवीय होते चित्त को देखिए और यह भी देखिए कि वह ज्यामितीय कोण बना पाते है या नही ? अगर कोई आकृति नही बन पाती है तो भिन्न भिन्न कोणों के बीच स्वयम को देखें,आप यहीं कहीं किसी व्यास या कोण के आधार को लम्बवत या  दंडवत करते देखे जाएंगे ।

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

मैं अपने पिताजी के घुटने के बराबर ही था पर उनके जैसा बनने,बड़ा हो जाना चाहता था अब मेरे चाहने से पूरी पृथ्वी अपनी कक्षा में पचास वर्ष एक ही बार मे घूम तो नही जाती पर मैं चाहता था कि वह घूम जाय और मैं पिताजी जैसा बन जाऊं,पर ऐसा होता कहाँ है ? से अनिभिज्ञ अपने बड़े होने की प्रतीक्षा करता रहता,अन्य भाई बहन जिनके हाथ पैर लंबे होते जाहिर है उनका कपड़ा भी बड़ा होता था । सबके सब आदेश की मुद्रा में मुझे अनुशासन का पाठ पढ़ाते बड़े हो रहे थे और मैं आज्ञापालक की भूमिका में विनम्र रहता क्योंकि थप्पड़ से चोट बहुत तेज लगती यह बात अलग है कि जब मैं फुक्कारे मार जोर - जोर से रोता मेरी बड़ी बहन जिसने एकाध तप्पड़ रसीद किया होता था वे गुड़ भी खिलाती थी जिसको माँ न जाने कहाँ - कहां रखती थी । उसका डिब्बा कभी खाली नही रहता था,मुझे उस डिब्बे की ज्यों ही महक लगती उसका कुछ गुड़ उदरस्थ हो गया रहता सो स्थान बदलती रहती मैं अपना मन बदलता रहता वह छिपाती और मैं खोजता रहता कभी कभी मुझे लगता था कि वह छिपाती ही इसीलिए थी मैं खोज लूँ । लुका छिपी के इस खेल मैं लगभग पारंगत था,इस विशिष्ट कौशल का विकास उसकी सदाशयता ही थी दांत पिसती,डांटती वह कब बूढ़ी हो गयी और मैं युवा इसका पता ही न चला,पर उसकी हनक के हुंकार से मैं आजीवन सहमा रहा कभी हिम्मत न पड़ी की उसके सामने तेज से कुछ बोल पाऊं । उसके स्वर की कडुआहट में उतना ही गुड़ रहता था जितना कि उसके प्यार में,जिसको मैं कभी उसकी गोद मे बैठ उसके दूध पीने के लिए नाटक करता, यह नाटक इसलिए भी करता क्योंकि उसकी गोद मे जब भी मैं होता आँचल से मेरा सिर ढ़ंक कर दूध पिलाती और मेरे सर को सहलाये जाती अपने जन्धे को बार बार फैलाती की मैं उसमे समा जाऊं और मैं जगह घेरता जाता आकार के अनुरूप उसकी गोद में भर जाता था यह सिलसिला कभी पाँच मिनट का होता या मैं छोड़ता ही न था । कंठ में जो भी बूंद गए उसने इस शरीर मे इतना बड़ा घर बनाया की मैं आज तक निवृत्त न हो पाया । ऐसा नही है कि मैं निवृत्त होना चाहता हूं क्योंकि उसकी स्मृतियों से निवृत्त होना मेरे अस्तित्व से निवृत्ति है अतः वह मुझमे है और मैं उसमे हूँ । अब पिता जी !! मेरे पिताजी की कद काठी सामान्य थी उनके साथ जानवरों को चारा ले आने जाते समय मैं उनके कदमों को देखता जूते की तलवे की छाप वरसात के दिनों में स्पस्ट दिखयी पड़ जाता था उनके जूते के तलवे की लकीरों से मुझे वे इस पृथ्वी के सम्राट से कम न थे और मैं  स्वयम्भू राजकुमार । वे अक्सर राजनीतिक धार्मिक दार्शनिक व्यख्या किया करते थे जबकि वे अपने जीवन मे कम पढ़ने को लेकर मर्माहत भी रहते थे । शायद यह मर्म ही रहा होगा कि वे महाराज दशरथ न बन पाए न ही मैं राम,लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न्, वे जुलाई 1924 में पैदा  हुए थे,स्वतंत्रता संघर्ष भी देखा था,वे घोषित स्वतंत्रता सेनानी तो नही थे लेकिन इस मातृभूमि के सच्चे भक्त थे,इस देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण मैं बना तमाम प्रकार की संपत्तियों से बंचित उत्तराधिकारी के रूप में मुझे वैसुधैव कुटुम्बकम ही मिला और अब तक मैं उनकी इस धरोहर को सुरक्षित रखा हूँ ।
क्रमशः 

Monday, July 22, 2019

फिलॉसफी


मेरे गाँव मे एक निहायत सज्जन व्यक्ति थे वे दर्शनशात्र से एम.ए. थे ! यह घटना 1978 की होगी,आटा पिसाने के लिए पचास किलो का बोरा ले के जब चक्की पर जाते तो वह चक्की वाला  भी उनका गेहूं पीसने में हिला हवाली करता ! उस चक्की पीसने वाले का बेटा भी आई. टी. आई. फिटर ट्रेड से पास करके उस समय नया -नया रेलवे में नॉकरी में लगा था,उसके पिता को यह बड़ा नागवार लगता कि उसके पड़ोसी के बड़े भाई के बेटे ने एम.ए. कैसे कर लिया ! उस जमाने मे एम.ए. कोई - कोई होता था ! वैसे उन्होंने दर्शनशात्र क्या पढ लिया विचारे पर आफत आ गयी,जहाँ भी जाते लोग बाग उनका मजाक उड़ाने से नही चूकते थे,कारण था कि बहुत उनके साथ पढ़े लोग दारोगा हो गए,बहुत लोग चपरासी भी हो गए,अन्यान्य पदों पर,पर उनकी कहीं नॉकरी नही लगी,वैसे भी उन दिनों अभिभावकों में इतना धैर्य कहां होता था, एक सीमा के बाद बच्चो को पढाये,एम.ए. थे ही,तो गांव लोग उन्हें पंडीजी कहना शुरू कर  दिए, कहीं किसी के दरवाजे पर शादी विवाह में जाते तो उन्हें देखकर लोग अपने बगल वाले से धीरे से कहते,देखिए अपने बच्चे को फिलॉसफी कभी मत पढाईयेगा,मैने इनके बाप से कहा था सब पढा लीजिए पर फिलॉसफी मत पढ़ाएगा अब भोगे ससुर, यहां से पंडीजी का परिचय दे दिया जाता था ! फिर उनको यह कह कर बुलाया जाता कि  ए पंडीजी जरा यहां आइए,पंडीजी किसी कहने पर चले जाते,तब उनसे मुखातिब हो पूछते क्यों  मिठाई मिली ? वे संकोची स्वभाव के थे सहज ही बच्चों की तरह कह देते न अभी तो नही मिली, लेकिन आप परेशान न हो मिठाई का क्या है मिल ही जाएगी जिन्होंने उनका परिचय कराया होता था वह बड़े ही जिज्ञाषा भरी नजर से दोनों आंख को बाहर करते हुए उकड़ू हो पूछते अरे पूरा जवार मिठाई खा गया अभी ये लोग आपको मिठाई ही नही दिए ? इस प्रश्नवाचक चिन्ह में उनका हास परिहास होता था,जैसे उन्हें कोई समय पास करने के लिए कोई लड्डू मिल गया हो ! राह चलते हर चलाने वाला भी कह लेता था कि आपकी पढ़ाई दो कौड़ी की है आप हर भी नही चला सकते ! मैने आपके बाप से कहा था कि अंगूठा टेक निमन है पर फिलॉसफी पढ़ाना तो बच्चे को पागल कर देता है ! आपको नही पता होगा जब हम बच्चे थे तो हमारे जमाने मे भी एक जने एम.ए. किये थे,वो तो इतना पढ़े की पगला ही गए,तब हमने उनको बताया था कि कानू ओझा के यहां ले जाइए इसका दिमाग सनक गया है,मेरी बात मान कर वो कानू के यहां गए और उस ओझा ने ऐसी मिर्चे की धुंवे की सुघनी सुघाई की वह एकदम मुठ पकड़ कर हर जोतने लगे, आप भी एक दिन अपने पिता जी को ले के जाईये हर चलाना सिख जाएंगे,उन्होंने उनकी सलाह ली और आगे बढ़े ! संयोग से एक दिन मेरे भी सर पर बीस किलो का गेहूं का बोरा था,कपार का बोझा क्या होता है उस दिन पता चला तीनों त्रिलोक चौदह भुवन दिख रहे थे,किसी तरह गिरते पड़ते मैं भी चक्की की तरफ बढ़ा,हमसे पहले वे पहुंच चुके थे,मैं उनके ठीक पीछे था,वरसात का दिन था एक प्लास्टिक का बोरा ओढ़े वे आगे -आगे मैं पीछे -पीछे ! मेरे लिए वह बोझा पृथ्वी का बोझ था झट से उतार पैक मैने कहा पंडीजी जरा गमछा दीजिये,पंडीजी ने झट से गमछा दे कहा आप तो बहुत छोटे है फिर भी ? लाद लिया लोंगों ने ?जी मैने कहा,अरे अब  जब गेहूं पिसाना हो,तो मेरे घर आ जाना,मैं तुम्हारे घर का गेहूं पिसवा दिया करूँगा,अभी वे बात ही कर रहे थे कि चक्की वाले ने कहा,हे पंडीजी,आपका गेहूं 49 किलो है, पंडीजी गमछे से मुँह पोछते हुए बोले, ना काका घर से तो जोख कर पचास किलो ही मिला है,कहीं आपके बटखरे में तो दिक्कत नही है ? तुम फिलॉसफी क्या पढ़ लिए ! हाफ माइंड हो गये हो ?मैं कक्षा आठ में नया -नया गया था,मुझे हाफमाइंड कुछ अटपटा लगा उस समय तक हाफ माइंड का मतलब समझ में आ गया था ! मैने धीरे से कहा कि एक किलो के बटखरे के साथ आपने तौल दिया है चाचा ! वे थोड़ा सकपकाए,पता नही क्या सोचकर उन्होंने ने मेरी बात मान ली ! अब उनका गेंहू पचास किलो हो गया था,मैं भी हवाई चप्पल को हाथ मे उठाये प्लास्टिक की पन्नी ओढ़ कीचड़ में आगे बढ ही रहा था पंडीजी ने आवाज लगाई रुकिए हम भी चलते है रास्ते मे पानी के बरसने से कीचड़ बहुत हो गया है कही आप गिर न जायँ ! मैं मना करता रहा लेकिन वे नही माने,मेरे पीछे - पीछे ठीक,से खांच बा, दिखाते -दिखाते मेरे घर के मोड़ पर आकर बोले, अब इधर पक्का है,आप जा सकते है ! मैने बड़े ही संकोच में उनसे कहा भाईया आप पिलासफी से एम.ए. क्यों किये ? उन्होंने मेरे मनोभाव को भाफते हुए कहा, जीवन की गुणा गणित में मैं फेल था राजनीति मुझे आती न थी जब गणित ही नही आई तो अर्थशात्र को कैसे पढ़ पाता विज्ञान को मैने भौतिकता से जोड़ कर देखा,अब क्या करता ले दे कर फिलासफी ही बची थी और मजे की बात यह थी वह विषय मुझे अच्छा भी लगता था सो पूरा बावन परसेंट नम्बर से पास हुआ था,लेकिन क्या करता ? नॉकरी नही लगी,और सच बताता हूँ मैंने भी नॉकरी को जीवन का जंजाल ही समझा ! अभी उनकी बात खत्म भी न हुई थी कि मैंने पूछा कि भाईया लोग आपका मजाक उड़ाते है,वे कुछ गम्भीर हो गए, अंधेरा होने को था पानी बरसना फिर शुरू होने ही वाला था उन्होंने कहा ''वे लोग नही जानते मैं उनको वेवकूफ समझता हूं और वे मुझे "मेरे लिए यह एक ऐसा प्रश्नचिन्ह था जिसका सटीक उत्तर आज तक नही खोज पाया और अपने घर आ गया ! अगले हफ्ते इसका अगला भाग !

प्रतिरोध,चुप्पी - संतुलन

प्रतिरोध,चुप्पी और संतुलन
आप यह ध्यान रखें कि वृहत्तर सामाजिक संगठन में परस्पर विरोधाभाषी समाज रहता है ! जो देखने मे तो एक वृहत्तर समाज दिखता है लेकिन इसकी  प्रवृत्तियों में एक तरफ प्रतिरोध है तो दूसरी तरफ चुप्पी तो तीसरा वह जो उस समाज का अधिष्ठाता मानव है, जो अक्सर चुप्पी साधे रहता है ! यह चुप्पी उसके स्वार्थी और परमार्थी होने का सममुच्चय है ! यह चुप्पी उसकी अनुकूलता की चुप्पी है,जब उसकी अनूकूलता - प्रतिकूलता में बदलती है तो प्रतिरोध का जन्म होता है ! बस्तुतः प्रतिरोध भी स्वयम की अनूकूलता में प्रतिकूलता द्वारा खलल डालना है ! प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्णता से ओतप्रोत होता है,यह तीक्ष्णता अपनी  दृष्टिबोध से ध्वंसात्मक है जिसमे मनुष्य की समस्त ऊर्जा के संकेन्द्रण में वह मनुष्य न रहकर नाभिकीय विखंडन की वह प्रक्रिया हो जाता है जिसमे उसका मूल उत्स होता ही नही ! मनुष्य एक शांत, कोमल,सहस्तित्ववादी होता है जिसमे अनुराग, प्रेम, करुणा, की अजश्र धारा बहती है जो प्रवाहमान है ! अतः वह उस मूल उत्स से ध्वंसात्मक प्रवृत्ति की तरफ नही जाना चाहता,क्योंकि उसकी सारभौमिक सर्वस्वीकारोक्ति ही प्रेम, दया, ममता, करुणा से आप्लावित है ! वह अपने मूल उत्स के आस्वादन में इतना तन्मय होता है कि वह अपनी तन्मयता को भंग नही करना चाहता और वह उसमें खो जाना चाहता है ! अनुराग द्वेष के परस्पर विरोधाभाषी संगठकों से उसकी एकाग्रता भंग होती है अतः वह जिस सुरक्षात्मक परिवेश का सृजन करता चलता है उससे उसकी आंतरिक तृप्ति में वह चुप्पी साध लेता है,यह चुप्पी उसके सहअस्तित्व को अक्षुण रखने हेतु सम्बल होती है ! आलम्बन की आड़ लेता मनुष्य संतुलन चाहता है ! व्यक्तित्व में आलम्बन का होना उसके आप्त का संवल है, आप्त की उतपत्ति संतुलन को जन्म देती है ! इस तरह मानव मन आप्त और उत्स की परिधि में वैचारिक संतुलन बनाता है ! यह संतुलन इसलिए भी होता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसके कुछ अंतरंग अनुबंध है जिन अनुबंधों में जीना उसके मूल उत्स की अनिवार्यता भी है अतः वह प्रतिरोध में भी चुप्पी को सम्बल बना संतुलन में व्यस्त हो जाता है और उसका प्रतिरोध चुप्पी में परिवर्तित हो जाता है !

हिंदी भाषा और अभिव्यक्ति के खतरे


भाषा का पराभव किसी भी सभ्य समाज की नीव का हिल जाना है जिसपर उसका पूरा समाज टिका है । यह दुःखद है ! बस्तुतः भाषा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम एक दूसरे के मनोभावों को जानते है,कुछ भावों का अनुकरण करते है तो कुछ नए मार्ग बनाते है । समय की गतिशलता के साथ ही साथ पूरा मानव समाज गतिशील है,इस गतिशलता मे हिंदी भाषा के उत्थान और पतन पर समीक्षा करें तो पाएंगे,हिंदी भाषा ने बहुत कुछ खोया है,अगर भाषा आत्मचिंतन करे तो वह पाएगी की उसने अपने शब्द संरचना और  उसके घातक प्रयोग सीखे है,यह प्रचलन में क्यों बढ़ा ? इसकी तह तक जायँ तो पता चलता है कि पूरी हिंदी पट्टी में भाषागत रोजगार का जो दौर पहले था वह उससे और भी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है,इसके कारण में यह भाषा पूर्व की भांति आज भी उपेक्षित है त्यक्त है ,आम बोल चाल की भाषा का अपना महत्व है उसकी अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है तो उसके आर्थिक,राजनैतिक,सामाजिक पक्ष भी है । अगर हिंदी पट्टी के आर्थिक पक्ष पर जायँ तो दिखता है कि हिंदी पट्टी अन्य भाषाभाषी पट्टी से पिछड़ा है । पूरे हिंदी पट्टी में भाषागत अराजकता का जो माहौल बना है वह अत्यंत दयनीय है ।भाषागत अराजकता यूँ ही नही है,इसके प्रयोग में बरती गई असावधानी सामाजिक दुष्प्रभावों के रूप में दिखती है । हमारा विकास सिर्फ साक्षर होने से नही होता उस साक्षर होने की जो मर्यादा है वह अनुशासन है उससे भी बनता है । पूरी हिंदी पट्टी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है । शिक्षा व्यवस्था में वरती गयी असावधानी एक तरफ जहां हमे भाषा के मर्म को समझने  में अक्षम कर रही है तो दूसरी तरफ भाषायी उन्मुक्तता ने इस पट्टी में रहने वाले लोंगों में उश्रृंखलता को जन्म दिया है । भाषा सिर्फ वह नही है जो आपके भाव को ही स्पस्ट करे भाषा वह भी है जो कंठ से निकलते या बोलते समय भाषिक अनुशासन भी बनाये । भाषिक अनुशासनहीनता  ही भाषा का क्षरण है । भाषाई क्षरण आता है सामाजिक संगठन में आई विकृति से  या अन्य भाषा के प्रति उपेक्षात्मक रवैये से । पूरी हिंदी पट्टी में शिक्षा के प्रति जो जागरूकता है वह जागरूकता शायद पहले न थी । यह स्तुत्य है कि शिक्षा के प्रति आई जागरूकता रोजगार है ? आत्मनिर्माण है ? या दो जून की रोटी ? हिंदी भाषा के साथ यह दुर्भाग्य स्वतंत्रता बाद से लेकर आज तक जारी है । पहले पंत निराला जयशंकर प्रसाद रेणु जी अन्याअन्य ने इसके गिरते स्तम्भ को बाखूबी संभाला लेकिन इनके बाद की पीढ़ियों ने भाषागत उत्तराधिकारियों के सामने एक चुनौती भी खड़ी की और आनेवाली पीढ़ियों ने इसकि चुनौतियों को स्वीकार करना तो दूर उनके सामने टिक भी नही सकी,अन्यान्य कारणों में एक कारण यह भी रहे कि अन्य भाषाओं की उपेक्षा हुई । सहज स्वीकृति के लिए असहज उपहास की जो प्रवृत्ति हमने अपनायी वह उपहासात्मक प्रवृत्ति ने हमे भाषायी अनुशासन को उखाड़ने में भरपूर मदद की,कोई भी भाषा उपहास की पात्र नही हो सकती जब तक कि उस भाषा मे सोची गयी चीजे स्वयम में उपहास न हो जाय,अंग्रेजी के विरोध ने हिंदी को अनुशासनहीन बनाया । जब आप किसी भाषा का विरोध करते है तो सिर्फ भाषा का ही विरोध नही करते आप मानवता की संस्कृति का विरोध करते है ।  आप दूसरी भाषाओं के आचरण स्वभाव भगौलिक प्रभावों से दूर एकांतिक होते है जहां हम और आप अच्छे हो सकते है पर भाषाओं के अनुशासनहीनता पर प्रश्न उठता रहेगा । हिंदी के पराभव के लिए इसके इतिहास व लेखन के मर्मज्ञों की खेमेवाजी ने इस भाषा के साथ समस्या खड़ी कर दी,कुछ को तत्सम के प्रयोग की आदत पड़ गयी तो कुछ को तद्भव की अपनी मनोवृत्तियों के अनुसार ! इसके उद्भट विद्वानों ने इसकी सांस्कृतिक निष्ठा पर भी प्रश्न उठाये,जिस तरह भाषा मे अलंकारों का प्रयोग बढ़ा उससे वह दुरूह ही हुआ ! हिंदी भाषा के सहज प्रभाव में अविधा ने उन पुरानी परम्पराओं को छोड़ा जो उसके सहज प्रवाह में गतिरोध का काम करते थे ! पांडित्य प्रदर्शन की यह खेमेवाजी इस भाषा को कुछ लोंगों तक सीमित करती गई ! भाषा वह वेग है जिसमे सहजता हो,प्रवाह हो,भाषा की सहजता को लाक्षणिकता में परोसा जाना उस भाषा के मूल उत्स के सौंदर्य के विपरीत है,फिर भी हिंदी भाषा के चितेरे इस भाषा के प्रति उठे सम्मोहन से खुद को नही बचा पाए और हिंदी की  मौलिकता को खो बैठे ! हिंदी भाषा पर काम कर रहे अध्यताओं को चाहिए था कि वे हिंदी को खमेवाजी से बचायें ! किसी भी भाषा को जानने के लिए उस भाषा के विज्ञान को जब तक न समझ लिया जाय वह अधूरा रहता है ! उच्चरित भाव की उतपत्ति का प्रवाह एवम उन भावों में भाषा का गर्भधारण न कर पाना ही भाषा का अवरोध है, निष्प्रभावी होना है ! यह हिंदी के साथ खूब हुआ है ! भाषा भी संस्कार की मांग करती है क्योंकि भाषा के संस्कार के अभाव में जगत की विद्रूपता या उसके आवेग - संवेग की  मौलिकता और उस मौलिकता में ठीक उसी भाव के साथ सम्प्रेषण उसके उत्स के साथ अभिव्यक्त करना ही भाषिक समृद्धि है ! जब तक हम मानव मन के भाव को उन शब्दों में नही लिख नही पाते या बोल नही पाते जिसमे उस स्वर का मूल उत्स है तब तक वह भाषा समृद्ध हो ही नही सकती,इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी भाषा विज्ञान के द्वार खटखटाये जायँ और और भाषा की बन्द पड़ी कोठरी में से कुछ शब्द निकाले जायँ नही तो यह अपने शाब्दिक सामर्थ्य के अभाव में यह अपना दम घोट लेगी !

Saturday, July 20, 2019

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

पहले दुआर होता था, किसी खास मेहमान के आ जाने पर दलान तक ही उनका आना - जाना सीमित होता था जहां खटिया,तखत,पलंग,वसहटा बिछाया जाता था,दुआर - दलान की यह सीमा व्यक्तिगत हुआ करती थी ! दुआर वह जगह होती थी जहां एक दलान होता था, जहाँ वरसात या दोपहर में धूप से बचने के लिए लोग बनाते थे ! उस जमाने मे बड़ों के साथ बैठने का साहस कम बच्चो में होता था ! उसका कारण था कही पानी के लिए न दौड़ा दें या कोई पहाड़ा न पूछ लें या गणित का सवाल या अंग्रेजी का ट्रांसलेशन या व्याकरण न पढ़ाने लगे ? सो बच्चे दिन की दोपहरी से बचने के लिए आम के बगीचे में होते  क्या ऊंच - क्या नीच ? कुछ नही था साहब ! यह दौर वर्ष 75 - 76 इमेजेन्सी और परिवार नियोजन का था जिसका हो हल्ला था ! सभी जाति के लोग आपसी भाई चारे के साथ रहते थे,नून,नमक,तेल,लकड़ी,तक उधार दे देते थे ! बहुतायत सम्पन्न वर्ग के लोग अनाज,मुफ्त में दे देते ! किसी को यह अभिमान न होता था कि उसने कोई एहसान किया है ! लेने वाला स्वयम ही आकंठ विनम्रता की मुद्रा में इस फिराक में रहता था कि अगर इनका कोई काम पड़ता है तो मैं उनके काम आ जाऊं ! मसलन शिक्षा,विवाह,बीमारी,मृत्यु तक में सब एक दूसरे के साथ वैठे रहते थे ! जिससे जो भी सहायता बन पड़ती करते थे ! किसी का बच्चा,किसी भी जाति का हो अगर वह पान,सुर्ती, सिगरेट,पीते दिख जाए या कहीं वह निषिद्ध वस्तुओं का सेवन करता हुआ दिख जाता तो उसे तुरंत ही डांट डपट देते थे बड़े लोग ! उस समय बच्चे सामूहिक समाज की संपत्ति थे ! यह कोई आवश्यक नही था आम,महुआ,पीपल,का बगीचा,खरिहान,आप का ही हो, वह सब सकके थे, आम के दिनों आम का,जामुन,महुआ,अमरूद, का खूब स्वाद लेते थे,जिसका पेड़ होता वह बड़े प्यार से खिलाते थे ! हां उस समय पढ़े लिखे लोंगों की संख्या कम थी, पर बहुतायत लोंगों की आदत या तो कबीर की तरह होती थी,या कुछ लोग रैदास जैसे होते थे,हा कुछ निराला की तरह अक्खड़ भी थे,इस तरह अक्खड़ और फक्कड़ के बीच ही व्यक्तितत्व का निर्माण होता गया ! अभी संविधान और कानून तो बहुत लोंगों ने देखा भी न था और जो लोग कानून और संविधान को जानते थे गांव आकर सब कबीर ही हो जाते,कबीर होने का मतलब सारा रौब वे गांव के सिवान से बाहर ही छोड़ गांव की वेशभूषा में हो जाते ! मेरे गाँव मे एक बार मानवीय हिंसा हो चुकी थी,आपसी ताना बाना कुछ दरक गया था फिर भी व्यक्तिगत सम्बन्धों ने उस दरार को कम करते - करते आपसी सौहार्द से लोगों के बीच पड़ी खाई को पाट दिया था,फिर लोग उसी तरह एक दूसरे के सुख दुःख में भागीदार होना शुरू हो गए थे ! कोई भी देश या गाँव राजनीतिक प्रभावों से कहा दूर रह पाता है ? क्योंकि सामाजिक अभिव्यक्ति ही राजनीति इक्षा होती है सरकार होती है ! इंदिरा गांधी चुनाव हार चूंकि थी,जनतापार्टी का शासन था ! जनता एक बार फिर ठगी जा चुकी थी ! मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे,उनदिनों विदेश मंत्री का पद आज कल की तरह गृहमंत्री की तरह ही महत्वपूर्ण होता था,अटल जी देश के विदेश मंत्री बने थे वे पूर्ववर्ती सरकारों की आलोचना से बहुत दूर अपने विदेश विभाग तक ही सीमित थे,वे अनावश्यक टिप्पणी से बचते थे ! पूर्ववर्ति सरकारों को भी लोग अपनी ही सरकार की तरह मानते थे इसका एक प्रमुख कारण यह हो सकता है की अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर हम अपनी ही सरकार की आलोचना कर रहे है ! ऐसी प्रवृत्ति रही हो ? उस समय किसी भी केंद्रीय मंत्री से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह द्विभाषीय है या नही ? उसका कारण था, उस समय देश  के नागरिकों  को लगता था कि विदेश में उनकी पहचान उनकी ही भाषा मे दिया जा सकता है ! नागरिक यह मानते थे की हम अंतराष्ट्रीय प्रभावों से बच नही सकते,अगर देश को अपने नागरिकों को उनके अनुसार सुविधा देनी है तो हमे अंग्रेजी भी सीखना होगा ! अतः सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अपने देश के उत्तरी हिस्से में हिंदी में संबोधन करते और दक्षिण में अंग्रेजी तो पूरब में भी हिंदी - अंग्रेजी का मिश्रण चलता था । भाषण को रेडीयो पर सुनते,खासकर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का भाषण विशेष महत्व रखता था ! समाचार हिंदी में देवकी नन्दन पांडेय व रामानुज प्रसाद सिंह और अंग्रेजी में इंदु वाही पढ़ती थी लेकिन उस तरह का उच्चारण हिंदी और अंग्रेजी का अभी भी याद आता है तो उनकी आवाज स्पस्ट गूंजती है जिसे मैं अभिव्यक्त नही कर सकता उच्चारण की शुद्धता और प्रवाह क्या कहने ! उन दिनों अंग्रेजी योग्य लोंगों की भाषा हुआ करती थी इसका पता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पता चला था,अपने यहां या तो बादशाह रहे या फिर राजा ? सभी राजा विक्रमादित्य ही नही रहे जयचंदों की भी कमी न थी ! भारत का पूर्वी हिस्सा बंगाल था ! वहां के लोगों ने स्वतन्त्रा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका कारण था वे जानबूझकर सत्ता की भाषा को पढ़ना शुरू किया वह इसलिए की विश्व की अद्यतन राजनीतिक गतिविधियों से वे अवगत हो सके ! चूंकि यूरोपीय लोंगों की शासन व्यवस्था थी और उनकी भाषा लैटिन से निःसृत थी उनका प्रभाव पूरे विश्व पर था सो उनके प्रभाव को कम करने या समानांतर होने के  बोध ने हमने अंग्रेजी पढ़ना,पढ़ाना शुरू किया वह भी इसलिए कि 1789 में फांसीसी क्रांति हो चुकी थी ! पूरे यूरोप का पुनर्जागरण 17 वी सदी के उत्तरार्ध तक हो चुका था ! यूरोप में लोकतंत्र मजबूत हो चुका था ! उस जामने में गांधी जी व अन्य को लगा होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था होनी चाहिए सो लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुना गया होगा कि हम भी अपने समस्त नागरिकों को जीवन संपत्ति और सुरक्षा की गारंटी देंगे,जैसा कि यूरोपीय देशों में था ! सो नेहरू या गांधी  को यह कहना कि उन्होंने लोकतंत्र को अपनाया और यह पद्धयति गलत थी यह उन महान नेताओं के साथ अन्याय होगा ! हां  हमारे यहां स्वतंत्रता की इक्षा का 300 वर्षों के बाद आना यह भारतीय भूभाग में रहने वाले लोंगों के लिए शोध का विषय हो सकता है ! विश्व की राजनीतिक,सामाजिक चेतना के इतने दिनों बाद हम भारतीय जागे ? यह शोध का विषय हो सकता है,वह भी करीब -करीब 300 वर्षो के बाद ! विलम्बित राजनीतिक चेतना का अभ्युदय यह इंगित करता है कि हम कहीं न कहीं यथास्थितिवाद के पक्षधर तो नही ?
क्रमशः