प्रतिरोध,चुप्पी और संतुलन
आप यह ध्यान रखें कि वृहत्तर सामाजिक संगठन में परस्पर विरोधाभाषी समाज रहता है ! जो देखने मे तो एक वृहत्तर समाज दिखता है लेकिन इसकी प्रवृत्तियों में एक तरफ प्रतिरोध है तो दूसरी तरफ चुप्पी तो तीसरा वह जो उस समाज का अधिष्ठाता मानव है, जो अक्सर चुप्पी साधे रहता है ! यह चुप्पी उसके स्वार्थी और परमार्थी होने का सममुच्चय है ! यह चुप्पी उसकी अनुकूलता की चुप्पी है,जब उसकी अनूकूलता - प्रतिकूलता में बदलती है तो प्रतिरोध का जन्म होता है ! बस्तुतः प्रतिरोध भी स्वयम की अनूकूलता में प्रतिकूलता द्वारा खलल डालना है ! प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्णता से ओतप्रोत होता है,यह तीक्ष्णता अपनी दृष्टिबोध से ध्वंसात्मक है जिसमे मनुष्य की समस्त ऊर्जा के संकेन्द्रण में वह मनुष्य न रहकर नाभिकीय विखंडन की वह प्रक्रिया हो जाता है जिसमे उसका मूल उत्स होता ही नही ! मनुष्य एक शांत, कोमल,सहस्तित्ववादी होता है जिसमे अनुराग, प्रेम, करुणा, की अजश्र धारा बहती है जो प्रवाहमान है ! अतः वह उस मूल उत्स से ध्वंसात्मक प्रवृत्ति की तरफ नही जाना चाहता,क्योंकि उसकी सारभौमिक सर्वस्वीकारोक्ति ही प्रेम, दया, ममता, करुणा से आप्लावित है ! वह अपने मूल उत्स के आस्वादन में इतना तन्मय होता है कि वह अपनी तन्मयता को भंग नही करना चाहता और वह उसमें खो जाना चाहता है ! अनुराग द्वेष के परस्पर विरोधाभाषी संगठकों से उसकी एकाग्रता भंग होती है अतः वह जिस सुरक्षात्मक परिवेश का सृजन करता चलता है उससे उसकी आंतरिक तृप्ति में वह चुप्पी साध लेता है,यह चुप्पी उसके सहअस्तित्व को अक्षुण रखने हेतु सम्बल होती है ! आलम्बन की आड़ लेता मनुष्य संतुलन चाहता है ! व्यक्तित्व में आलम्बन का होना उसके आप्त का संवल है, आप्त की उतपत्ति संतुलन को जन्म देती है ! इस तरह मानव मन आप्त और उत्स की परिधि में वैचारिक संतुलन बनाता है ! यह संतुलन इसलिए भी होता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसके कुछ अंतरंग अनुबंध है जिन अनुबंधों में जीना उसके मूल उत्स की अनिवार्यता भी है अतः वह प्रतिरोध में भी चुप्पी को सम्बल बना संतुलन में व्यस्त हो जाता है और उसका प्रतिरोध चुप्पी में परिवर्तित हो जाता है !
आप यह ध्यान रखें कि वृहत्तर सामाजिक संगठन में परस्पर विरोधाभाषी समाज रहता है ! जो देखने मे तो एक वृहत्तर समाज दिखता है लेकिन इसकी प्रवृत्तियों में एक तरफ प्रतिरोध है तो दूसरी तरफ चुप्पी तो तीसरा वह जो उस समाज का अधिष्ठाता मानव है, जो अक्सर चुप्पी साधे रहता है ! यह चुप्पी उसके स्वार्थी और परमार्थी होने का सममुच्चय है ! यह चुप्पी उसकी अनुकूलता की चुप्पी है,जब उसकी अनूकूलता - प्रतिकूलता में बदलती है तो प्रतिरोध का जन्म होता है ! बस्तुतः प्रतिरोध भी स्वयम की अनूकूलता में प्रतिकूलता द्वारा खलल डालना है ! प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्णता से ओतप्रोत होता है,यह तीक्ष्णता अपनी दृष्टिबोध से ध्वंसात्मक है जिसमे मनुष्य की समस्त ऊर्जा के संकेन्द्रण में वह मनुष्य न रहकर नाभिकीय विखंडन की वह प्रक्रिया हो जाता है जिसमे उसका मूल उत्स होता ही नही ! मनुष्य एक शांत, कोमल,सहस्तित्ववादी होता है जिसमे अनुराग, प्रेम, करुणा, की अजश्र धारा बहती है जो प्रवाहमान है ! अतः वह उस मूल उत्स से ध्वंसात्मक प्रवृत्ति की तरफ नही जाना चाहता,क्योंकि उसकी सारभौमिक सर्वस्वीकारोक्ति ही प्रेम, दया, ममता, करुणा से आप्लावित है ! वह अपने मूल उत्स के आस्वादन में इतना तन्मय होता है कि वह अपनी तन्मयता को भंग नही करना चाहता और वह उसमें खो जाना चाहता है ! अनुराग द्वेष के परस्पर विरोधाभाषी संगठकों से उसकी एकाग्रता भंग होती है अतः वह जिस सुरक्षात्मक परिवेश का सृजन करता चलता है उससे उसकी आंतरिक तृप्ति में वह चुप्पी साध लेता है,यह चुप्पी उसके सहअस्तित्व को अक्षुण रखने हेतु सम्बल होती है ! आलम्बन की आड़ लेता मनुष्य संतुलन चाहता है ! व्यक्तित्व में आलम्बन का होना उसके आप्त का संवल है, आप्त की उतपत्ति संतुलन को जन्म देती है ! इस तरह मानव मन आप्त और उत्स की परिधि में वैचारिक संतुलन बनाता है ! यह संतुलन इसलिए भी होता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसके कुछ अंतरंग अनुबंध है जिन अनुबंधों में जीना उसके मूल उत्स की अनिवार्यता भी है अतः वह प्रतिरोध में भी चुप्पी को सम्बल बना संतुलन में व्यस्त हो जाता है और उसका प्रतिरोध चुप्पी में परिवर्तित हो जाता है !
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