Thursday, June 28, 2012


मेरे बाबूजी दिंनाक 1 जून 2012 को प्रकृति ने उनके स्थूल शारीर को ब्रह्मांड का अंग बना लिया,अब वे ग्रह नक्षत्रों के बीच मन की कल्पना में समाहित हो लिए।हम दोनों भाईयों को जीवन के इस त्रासद सत्य का समाचार दूरभाष से गाँव के अन्य लोंगों ने दी।सुचना पाकर बाबूजी का जीवन ही चलचित्र की तरह घूम गया।इस त्रासद घटना के बाद हम दोनों भाई गाँव के लिए सपरिवार रवाना हुए और दिनांक 2 जून को उनके स्थूल  शारीर का अंतिम संस्कार किया गया। जीवन की तपीस से अगर कहीं बट बृक्ष था तो वह बाबूजी थे। जो छांह थी वो अब जाती रही,मै शारीर की नश्वरता को भी जानता हूँ,अचेतन में बाबूजी अस्तित्वहीन होने का बोध कभी होता ही नहीं था।जब की शारीर की नश्वरता के बोध से परिचित हूँ।अचेतन में बाबूजी अस्तित्वहिन् होने के बोध के बीच की खायी को पाटने का प्रयाश कर रहा हूँ।वे मेरे बाबूजी थे,इसलिए मात्र उनके प्रति भावनाओं का बोध से लबालब नहीं हूँ,एक व्यक्ति के रूप में मैंने जब भी मूल्यांकन किया है,मै शब्दों में उन्हें संत कह सकता हूँ।बाबूजी ग्रहस्थ जीवन के संत थे,अपनी जागतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन सुचिता पूर्वक करते हुए जीवन के युद्ध में घमासान करते रहे और एक अपराजेय योद्ध की तरह वे अपनी परिस्थियों से जूझते रहे।जय पराजय के बोध से मुक्त सिर्फ योद्धा की तरह जीवन संग्राम में अपनी जिजीविषा उद्दाम प्राणवत्ता के साथ दो -दो हाथ करते रहे। वे निम्न मध्यवर्गीय परिवार के होते हुए भी तमाम विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में भी अपने पुत्रों में अपने जीवन की जीत देखते रहे।जबकि पुत्र के रूप में मेरी भी भूमिका उसी स्वर लय ताल में आबद्ध हुयी जैसी की उनकी खुद की जीवन परिथितियाँ थी,आज जब मै एक पिता के रूप में बाबूजी की जगह ले चूका हूँ इस बीच पुत्र से पिता होने की यात्रा कितनी जटिल है से परिचित हो रहा हू और इस जीवन के नये परिचय और नयी भूमिका के प्रति दृष्टीकोनीय आयाम और उसके स्वर के अवरोह के प्रति अचेतन का अस्वीकार कहीं मुझे पराजित तो नहीं कर रहा है लेकिन रुक कर अतीत की गहराईयों से कुछ ध्वनि सुनाई देती है वह बार -बार मेरे अन्दर समाहित हो कहती है योद्धा की तरह जीवन संग्राम में अपने बाबूजी के पद चिन्हों पर चलो मै अपनी समस्त कोशकीय संरचनाओं,अस्तित्व के साथ बाबूजी को चरणस्पर्श करता हूँ।