आइए आज सत्य व अहिंसा क्या है इन दो प्रश्नों के देखते है सत्य होता क्या है?वस्तुतः सत्य एक पूर्णता की अवधारणा है।यह उगते सूर्य की सुखद अनुभूति है जो उगते समय सप्तरंगी आभा से युक्त एवम आनंद का उद्गम होता है। जिसको देखने से या उसके अस्तित्व से इनकार नही किया जा सकता।दिन के उजाले में व्यक्ति विरोध, स्वयम का दुःख हो सकता,सुख हो सकता है।लेकिन इसके अस्तित्व व जीवन के आरम्भ और अंत अतिरिक्त और क्या हो सकता है?दिन और रात का सत्य और समय का सत्य सब सत्य है।तो असत्य क्या है?हमारी दृष्टि?हमारी शास्त्र सम्मत धारणा है कि हम पूर्ण ही जन्म लेते है,और पूर्णता में ही समाप्त भी हो जाते है।अतः इसका निहतार्थ यह है हम सब सत्य ही है और इसमें से जो निकलता है वह सत्य ही होता है।यहां एक संस्कृत के श्लोक का उद्धहरण दे रहा हूँ ॐ पूर्ण मद: पूर्णमिदम पूर्णाति पूर्ण मुदच्छत्ते पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवा वशीषस्यते।।एक घटक के रूप में आप पूर्ण है।जो पूर्ण है उसमें से जो निकलेगा वह पूर्ण ही होगा और पूर्ण से अगर पूर्ण को भाग दिया जाय तो पूर्ण ही होगा।वह पूर्ण ईश्वर है।और हम उनकी संतानों में से एक है।अतः यह हम सब पर एक समान है,समानता में ही सत्य निवास करता है।सत्य कैसा है?जहां निष्कलुष प्रेम है कुछ शब्द दे देने की उत्कंठा है या दूसरे की पीड़ा से स्वयम को जो पीड़ा होती है वह सत्य है।प्रेम है।आनंद है।जब हम किसी के साथ मनसा बाचा कर्मणा साथ होते है।तो वहाँ हम दो व्यक्तियों में साथ-साथ एकाकार होते है।एकाकार होना ही प्रेम है।उस सामूहिकता में करुणा है,प्रेम है,भले ही उसका दायरा शाब्दिक ही सही,अहिंसात्मक ही सही,विना किसी कारण के जब हम सब स्मृति में होते हैं।सत्य वहाँ-वहाँ होता है।जहां दूसरे के दर्द को अपना समझते है,सत्य वहाँ- वहां होता है।जब हम अपने चरित्र से क़ई लोंगों में निवास करते है सत्य वहा होता है।जब हम निश्छल होते है,और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे होते है, विनम्र होते है, सत्य वहां-वहां होता है।जब कोई अकारण आशीर्वाद दे रहा होता है सत्य वहां होता है।जब हमारा आभ्यांतरिक जगत और हमारा वाह्य जगत एक होता है सत्य वहाँ होता।जब हम किसी के जीवन मे जीने की आस होते है सत्य वहां होता है।जब यह हमसब हम रोज-रोज करते है सत्य वहां होता है।जब हम किसी के दुःख में दुःखी और सुख में सुखी होते है सत्य वहाँ-वहाँ होता है।असमान दृष्टि ही असत्य है।सामूहिक चेतना में प्रेम निष्कलुष,निश्छल,जल की तरह पारदर्शी व्यक्ति समूह होता चलता है सत्य वहां-वहां रहता है।जब आप खिलखिला कर हँसते है सत्य वहां होता है।सत्य वहां भी होता है जहां आप किसी रोते हुए के आँशु पोछ रहे होते है।आंशू पोछते-पोछते आप स्वायम रो देते है सत्य वहां होता है।जब आपको भूख लग रही हो और कोई और भूखा आ जाय और जब आप अपनी रोटी बांट रहे होते है सत्य वहां होता है।जब आपमे अपने विरोधी के प्रति समादर आता है और आप दयावान हों सत्य वहां उपस्थित होता जाता है।इत्यादि इत्यादि।सत्य एक सुखद अनुभूति है जो स्वयम के साथ समान भाव से सबमे वितरित होती रहती है सत्य वहां होता है।वस्तुतः सत्य की अनुपस्थिति क्यों है?जब आप दूसरे के दुःख में दुखी नही होते है वहाँ असत्य होता जाता है।दरअसल हम जीवन की सम्पूर्णता में रोज रोज रिक्त होते है।जानते है कैसे?जब हम उपरोक्त के विपरीत होते है और विपरीत होते क्यों है?आइए इस पर भी विचार करते है।हम विपरीत होते है,शारीरिक आवश्यकताओं के लिए।हम और हमारी चेतना से एकाकार नही हो पाती वहां असत्य अद्भाशित होता जाता है।असत्य जीवन मे जीवन जीते -जीतेइतने असहाय होते है कि हम चाहते हुए भी किसी के लिए कुछ नही कर पाते है असत्य वहां होता है,और इसी असत्य में जीते-जीते हम स्वयम के लिए भी कुछ नही कर पाते।जब हम स्वयम के साथ ही नही हो पाते है तो हम दूसरे के लिए क्या करेंगे?असत्य तब होता है।ऐसा तब होता है जव हम अपनी इक्षाओं के विपरीत कार्य कर रहे होते है।जब हम ऐसा कर रहे हैं हम असत्य और असंतुष्ट जीवन जी रहे होते है।आईए ऐसा क्यों होता है इसके कारणों की तह तक की यात्रा करें।हम जो करना चाहते है वह नही कर रहे है।जिस समय हम अपने को रोक लेते है मुँह फेर रहे होते है हम खंडित मनुष्य होते है,जबकि सत्य पूर्ण है.खंडित मन,खंडित दृष्टि,खण्डित विचार के संवाहक होते जाते है जानते हैं क्यों?हमसब इसलिए होते है क्योंकि बच्चे को पैदा करने से लेकर हम और हम अकेले होते है हम जितने ही अकेले-अकेले भौतिक जीवन मे होते जाते है हम रोज रोज खण्डित होते-होते समाप्त होते जाते है।अतः वही करें जो आपको अच्छा लगे जो आपको आनंद दे।सुख और आनंद में अंतर को समझते चलें।सुख बस्तुओं में होते है आनंद हमारे अंदर होता है।ठीक उसी तरह जैसे हम अकेले जन्म लेते है और अकेले ही मर जाते है।अतः प्रत्येक मनुष्य वस्तुतः सामुदायिक होता है जब समाज मे पीर पराई जाने रे का अभाव हो जाता है,हमारे अंदर की जो भी करुणा है संवेदना है क्षरित होने लगती है और हम क्रमशः उसको मारते जाते है अन्त तक आते-आते हम स्वयम करुणा के पात्र हो जाते है।जहां आप करुणा बाटने आये थे वह न कर हम सब इतने कंजूस होते जाते है कि अपना दुःख दर्द भी नही बांट पाते है,आप समाप्त हो जाते है इसी तरह आपका तत्कालीन समाज मर जाता है यह विकृतियां इसलिए आती हैं जब हमारी सामुदायिक सोच समाप्त हो जाती है।यह सब इसलिए होता है की हमारा जो सामुदायिक जीवन है ईर्ष्या जगत में परिवर्तित होता जाता है,अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती जाती है।हम ज्यो ही किसी के सुख में दुखी या ईर्ष्या रखने लगते है दुखी होते जाते है।जानते है क्यों?इसके कारणों की तह तक जाँय तो हमारा पीर पराई जान रे का बोध ही क्रमशः समाप्त होता जाता है हम कठोर व लालची अपने आपको ऊंचा आंकना शुरू कर देते है।दरअसल हम जीवन मे परस्पर विरोधाभाषी समाज मे रहते है जहां कोईं आपका अपना नही होता तब आपको पता चलता है कि कौन अपने है?जब तक यह पता चलता है जीवन काफी आगे निकल चुका होता है कि हम उनलोंगों के प्रति निर्मोही होते जाते है ऐसा करते समय हम सभी लोंगों के प्रति दया की जगह हिकारत करने लगते है यहां भी हम एक नए तरह की शब्दिक हिंसा कर रहे होते है।जब हम किसी की सिर्फ आलोचना कर रहे होते है तो स्वयम के प्रति भी हिंसा कर रहे होते है.अगर आप किसी को कुछ दे नही सकते तो क्या सहानुभूति भी नही दे सकते?अगर आप यह सब नही कर रहे है तो आप अहिंसक नही है?आप स्वार्थी है हिंसक है?और अगर आप स्वयं में स्वार्थी और हिंसक है?तो कब आपका व्यापक समाज कब तक इन विकृतियों से मुक्त रहेगा।और अगर आपस मे हम पूर्वाग्रह से मुक्त नही है वह सरल,स्वाभाविक,निष्कलुष समाज रह पाएगा?जब कि आप उस समाज के बराबर के सहभागी है.तो क्या ईश्वर ने आपको इसलिए जीवन दिया है कि आप असहस्तित्ववादी हो जाँय आप हिंसक हो जाएं?एकदम नही,कदापि नही,मूल्यों से न हटे चाहे जो हो जाय।जब निश्चय ऐसा होता है तब आप निर्भय होते है और ज्यों ही आप निर्भय होते है आप और आपका ईश्वर आपके साथ होता है।ईश्वर पर अटूट भरोषा रखे।सफलता रुपया नही है ना ही यह पद है ना ही अन्य बस्तुओं की प्राप्ति है इसके इतर ईश्वर आपके साथ है वह आपकी सहायता करता चलेगा आप ईश्वर के साथ-साथ होते जाईये।आपमें निर्बल के बल राम है।आपके पास जो भी है वह ऋण के रूप में हो जिम्मेदारियों के रूप में हो रोग के रूप में विपरीत परिस्थितियों के रूप में हो वह आपकी मनुष्य के रूप में हमेशा आपको आपके साथ मिलेंगे।मनुष्य का शरीर मरता है स्मृतियां नही।स्मृतियों में किसी मनुष्य का वस जाना ही वह मानवता की सार्थकता है।अतः हमेशा अच्छा बोले हो सके तो करते रहे आपका भी अच्छा होता चलेगा। आपके लिए भी लोग प्रार्थनाएं करते चलेंगे।अतः जितने लचीले व सहज हो सकते है लचीले व सहज होते चलिये यह करने से आप स्वयम में आनंदित होते रहेगे।अगर आप आनंदित रहेंगे तभी तो आप अन्य लोंगों में आनंद बांटेंगे।अतः अपने अंदर वैठे अपने अबोध वालक को जीवित रखे यह याद रखिये आपका अबोध वालक मनोवृत्ति ही व्यापक जन सुधार करती चलेगी।
आप सभी को नमस्कार
आप सभी को नमस्कार
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