भाषा का पराभव किसी भी सभ्य समाज की नीव का हिल जाना है जिसपर उसका पूरा समाज टिका है । यह दुःखद है ! बस्तुतः भाषा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम एक दूसरे के मनोभावों को जानते है,कुछ भावों का अनुकरण करते है तो कुछ नए मार्ग बनाते है । समय की गतिशलता के साथ ही साथ पूरा मानव समाज गतिशील है,इस गतिशलता मे हिंदी भाषा के उत्थान और पतन पर समीक्षा करें तो पाएंगे,हिंदी भाषा ने बहुत कुछ खोया है,अगर भाषा आत्मचिंतन करे तो वह पाएगी की उसने अपने शब्द संरचना और उसके घातक प्रयोग सीखे है,यह प्रचलन में क्यों बढ़ा ? इसकी तह तक जायँ तो पता चलता है कि पूरी हिंदी पट्टी में भाषागत रोजगार का जो दौर पहले था वह उससे और भी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है,इसके कारण में यह भाषा पूर्व की भांति आज भी उपेक्षित है त्यक्त है ,आम बोल चाल की भाषा का अपना महत्व है उसकी अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है तो उसके आर्थिक,राजनैतिक,सामाजिक पक्ष भी है । अगर हिंदी पट्टी के आर्थिक पक्ष पर जायँ तो दिखता है कि हिंदी पट्टी अन्य भाषाभाषी पट्टी से पिछड़ा है । पूरे हिंदी पट्टी में भाषागत अराजकता का जो माहौल बना है वह अत्यंत दयनीय है ।भाषागत अराजकता यूँ ही नही है,इसके प्रयोग में बरती गई असावधानी सामाजिक दुष्प्रभावों के रूप में दिखती है । हमारा विकास सिर्फ साक्षर होने से नही होता उस साक्षर होने की जो मर्यादा है वह अनुशासन है उससे भी बनता है । पूरी हिंदी पट्टी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है । शिक्षा व्यवस्था में वरती गयी असावधानी एक तरफ जहां हमे भाषा के मर्म को समझने में अक्षम कर रही है तो दूसरी तरफ भाषायी उन्मुक्तता ने इस पट्टी में रहने वाले लोंगों में उश्रृंखलता को जन्म दिया है । भाषा सिर्फ वह नही है जो आपके भाव को ही स्पस्ट करे भाषा वह भी है जो कंठ से निकलते या बोलते समय भाषिक अनुशासन भी बनाये । भाषिक अनुशासनहीनता ही भाषा का क्षरण है । भाषाई क्षरण आता है सामाजिक संगठन में आई विकृति से या अन्य भाषा के प्रति उपेक्षात्मक रवैये से । पूरी हिंदी पट्टी में शिक्षा के प्रति जो जागरूकता है वह जागरूकता शायद पहले न थी । यह स्तुत्य है कि शिक्षा के प्रति आई जागरूकता रोजगार है ? आत्मनिर्माण है ? या दो जून की रोटी ? हिंदी भाषा के साथ यह दुर्भाग्य स्वतंत्रता बाद से लेकर आज तक जारी है । पहले पंत निराला जयशंकर प्रसाद रेणु जी अन्याअन्य ने इसके गिरते स्तम्भ को बाखूबी संभाला लेकिन इनके बाद की पीढ़ियों ने भाषागत उत्तराधिकारियों के सामने एक चुनौती भी खड़ी की और आनेवाली पीढ़ियों ने इसकि चुनौतियों को स्वीकार करना तो दूर उनके सामने टिक भी नही सकी,अन्यान्य कारणों में एक कारण यह भी रहे कि अन्य भाषाओं की उपेक्षा हुई । सहज स्वीकृति के लिए असहज उपहास की जो प्रवृत्ति हमने अपनायी वह उपहासात्मक प्रवृत्ति ने हमे भाषायी अनुशासन को उखाड़ने में भरपूर मदद की,कोई भी भाषा उपहास की पात्र नही हो सकती जब तक कि उस भाषा मे सोची गयी चीजे स्वयम में उपहास न हो जाय,अंग्रेजी के विरोध ने हिंदी को अनुशासनहीन बनाया । जब आप किसी भाषा का विरोध करते है तो सिर्फ भाषा का ही विरोध नही करते आप मानवता की संस्कृति का विरोध करते है । आप दूसरी भाषाओं के आचरण स्वभाव भगौलिक प्रभावों से दूर एकांतिक होते है जहां हम और आप अच्छे हो सकते है पर भाषाओं के अनुशासनहीनता पर प्रश्न उठता रहेगा । हिंदी के पराभव के लिए इसके इतिहास व लेखन के मर्मज्ञों की खेमेवाजी ने इस भाषा के साथ समस्या खड़ी कर दी,कुछ को तत्सम के प्रयोग की आदत पड़ गयी तो कुछ को तद्भव की अपनी मनोवृत्तियों के अनुसार ! इसके उद्भट विद्वानों ने इसकी सांस्कृतिक निष्ठा पर भी प्रश्न उठाये,जिस तरह भाषा मे अलंकारों का प्रयोग बढ़ा उससे वह दुरूह ही हुआ ! हिंदी भाषा के सहज प्रभाव में अविधा ने उन पुरानी परम्पराओं को छोड़ा जो उसके सहज प्रवाह में गतिरोध का काम करते थे ! पांडित्य प्रदर्शन की यह खेमेवाजी इस भाषा को कुछ लोंगों तक सीमित करती गई ! भाषा वह वेग है जिसमे सहजता हो,प्रवाह हो,भाषा की सहजता को लाक्षणिकता में परोसा जाना उस भाषा के मूल उत्स के सौंदर्य के विपरीत है,फिर भी हिंदी भाषा के चितेरे इस भाषा के प्रति उठे सम्मोहन से खुद को नही बचा पाए और हिंदी की मौलिकता को खो बैठे ! हिंदी भाषा पर काम कर रहे अध्यताओं को चाहिए था कि वे हिंदी को खमेवाजी से बचायें ! किसी भी भाषा को जानने के लिए उस भाषा के विज्ञान को जब तक न समझ लिया जाय वह अधूरा रहता है ! उच्चरित भाव की उतपत्ति का प्रवाह एवम उन भावों में भाषा का गर्भधारण न कर पाना ही भाषा का अवरोध है, निष्प्रभावी होना है ! यह हिंदी के साथ खूब हुआ है ! भाषा भी संस्कार की मांग करती है क्योंकि भाषा के संस्कार के अभाव में जगत की विद्रूपता या उसके आवेग - संवेग की मौलिकता और उस मौलिकता में ठीक उसी भाव के साथ सम्प्रेषण उसके उत्स के साथ अभिव्यक्त करना ही भाषिक समृद्धि है ! जब तक हम मानव मन के भाव को उन शब्दों में नही लिख नही पाते या बोल नही पाते जिसमे उस स्वर का मूल उत्स है तब तक वह भाषा समृद्ध हो ही नही सकती,इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी भाषा विज्ञान के द्वार खटखटाये जायँ और और भाषा की बन्द पड़ी कोठरी में से कुछ शब्द निकाले जायँ नही तो यह अपने शाब्दिक सामर्थ्य के अभाव में यह अपना दम घोट लेगी !
Monday, July 22, 2019
हिंदी भाषा और अभिव्यक्ति के खतरे
भाषा का पराभव किसी भी सभ्य समाज की नीव का हिल जाना है जिसपर उसका पूरा समाज टिका है । यह दुःखद है ! बस्तुतः भाषा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम एक दूसरे के मनोभावों को जानते है,कुछ भावों का अनुकरण करते है तो कुछ नए मार्ग बनाते है । समय की गतिशलता के साथ ही साथ पूरा मानव समाज गतिशील है,इस गतिशलता मे हिंदी भाषा के उत्थान और पतन पर समीक्षा करें तो पाएंगे,हिंदी भाषा ने बहुत कुछ खोया है,अगर भाषा आत्मचिंतन करे तो वह पाएगी की उसने अपने शब्द संरचना और उसके घातक प्रयोग सीखे है,यह प्रचलन में क्यों बढ़ा ? इसकी तह तक जायँ तो पता चलता है कि पूरी हिंदी पट्टी में भाषागत रोजगार का जो दौर पहले था वह उससे और भी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है,इसके कारण में यह भाषा पूर्व की भांति आज भी उपेक्षित है त्यक्त है ,आम बोल चाल की भाषा का अपना महत्व है उसकी अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है तो उसके आर्थिक,राजनैतिक,सामाजिक पक्ष भी है । अगर हिंदी पट्टी के आर्थिक पक्ष पर जायँ तो दिखता है कि हिंदी पट्टी अन्य भाषाभाषी पट्टी से पिछड़ा है । पूरे हिंदी पट्टी में भाषागत अराजकता का जो माहौल बना है वह अत्यंत दयनीय है ।भाषागत अराजकता यूँ ही नही है,इसके प्रयोग में बरती गई असावधानी सामाजिक दुष्प्रभावों के रूप में दिखती है । हमारा विकास सिर्फ साक्षर होने से नही होता उस साक्षर होने की जो मर्यादा है वह अनुशासन है उससे भी बनता है । पूरी हिंदी पट्टी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है । शिक्षा व्यवस्था में वरती गयी असावधानी एक तरफ जहां हमे भाषा के मर्म को समझने में अक्षम कर रही है तो दूसरी तरफ भाषायी उन्मुक्तता ने इस पट्टी में रहने वाले लोंगों में उश्रृंखलता को जन्म दिया है । भाषा सिर्फ वह नही है जो आपके भाव को ही स्पस्ट करे भाषा वह भी है जो कंठ से निकलते या बोलते समय भाषिक अनुशासन भी बनाये । भाषिक अनुशासनहीनता ही भाषा का क्षरण है । भाषाई क्षरण आता है सामाजिक संगठन में आई विकृति से या अन्य भाषा के प्रति उपेक्षात्मक रवैये से । पूरी हिंदी पट्टी में शिक्षा के प्रति जो जागरूकता है वह जागरूकता शायद पहले न थी । यह स्तुत्य है कि शिक्षा के प्रति आई जागरूकता रोजगार है ? आत्मनिर्माण है ? या दो जून की रोटी ? हिंदी भाषा के साथ यह दुर्भाग्य स्वतंत्रता बाद से लेकर आज तक जारी है । पहले पंत निराला जयशंकर प्रसाद रेणु जी अन्याअन्य ने इसके गिरते स्तम्भ को बाखूबी संभाला लेकिन इनके बाद की पीढ़ियों ने भाषागत उत्तराधिकारियों के सामने एक चुनौती भी खड़ी की और आनेवाली पीढ़ियों ने इसकि चुनौतियों को स्वीकार करना तो दूर उनके सामने टिक भी नही सकी,अन्यान्य कारणों में एक कारण यह भी रहे कि अन्य भाषाओं की उपेक्षा हुई । सहज स्वीकृति के लिए असहज उपहास की जो प्रवृत्ति हमने अपनायी वह उपहासात्मक प्रवृत्ति ने हमे भाषायी अनुशासन को उखाड़ने में भरपूर मदद की,कोई भी भाषा उपहास की पात्र नही हो सकती जब तक कि उस भाषा मे सोची गयी चीजे स्वयम में उपहास न हो जाय,अंग्रेजी के विरोध ने हिंदी को अनुशासनहीन बनाया । जब आप किसी भाषा का विरोध करते है तो सिर्फ भाषा का ही विरोध नही करते आप मानवता की संस्कृति का विरोध करते है । आप दूसरी भाषाओं के आचरण स्वभाव भगौलिक प्रभावों से दूर एकांतिक होते है जहां हम और आप अच्छे हो सकते है पर भाषाओं के अनुशासनहीनता पर प्रश्न उठता रहेगा । हिंदी के पराभव के लिए इसके इतिहास व लेखन के मर्मज्ञों की खेमेवाजी ने इस भाषा के साथ समस्या खड़ी कर दी,कुछ को तत्सम के प्रयोग की आदत पड़ गयी तो कुछ को तद्भव की अपनी मनोवृत्तियों के अनुसार ! इसके उद्भट विद्वानों ने इसकी सांस्कृतिक निष्ठा पर भी प्रश्न उठाये,जिस तरह भाषा मे अलंकारों का प्रयोग बढ़ा उससे वह दुरूह ही हुआ ! हिंदी भाषा के सहज प्रभाव में अविधा ने उन पुरानी परम्पराओं को छोड़ा जो उसके सहज प्रवाह में गतिरोध का काम करते थे ! पांडित्य प्रदर्शन की यह खेमेवाजी इस भाषा को कुछ लोंगों तक सीमित करती गई ! भाषा वह वेग है जिसमे सहजता हो,प्रवाह हो,भाषा की सहजता को लाक्षणिकता में परोसा जाना उस भाषा के मूल उत्स के सौंदर्य के विपरीत है,फिर भी हिंदी भाषा के चितेरे इस भाषा के प्रति उठे सम्मोहन से खुद को नही बचा पाए और हिंदी की मौलिकता को खो बैठे ! हिंदी भाषा पर काम कर रहे अध्यताओं को चाहिए था कि वे हिंदी को खमेवाजी से बचायें ! किसी भी भाषा को जानने के लिए उस भाषा के विज्ञान को जब तक न समझ लिया जाय वह अधूरा रहता है ! उच्चरित भाव की उतपत्ति का प्रवाह एवम उन भावों में भाषा का गर्भधारण न कर पाना ही भाषा का अवरोध है, निष्प्रभावी होना है ! यह हिंदी के साथ खूब हुआ है ! भाषा भी संस्कार की मांग करती है क्योंकि भाषा के संस्कार के अभाव में जगत की विद्रूपता या उसके आवेग - संवेग की मौलिकता और उस मौलिकता में ठीक उसी भाव के साथ सम्प्रेषण उसके उत्स के साथ अभिव्यक्त करना ही भाषिक समृद्धि है ! जब तक हम मानव मन के भाव को उन शब्दों में नही लिख नही पाते या बोल नही पाते जिसमे उस स्वर का मूल उत्स है तब तक वह भाषा समृद्ध हो ही नही सकती,इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी भाषा विज्ञान के द्वार खटखटाये जायँ और और भाषा की बन्द पड़ी कोठरी में से कुछ शब्द निकाले जायँ नही तो यह अपने शाब्दिक सामर्थ्य के अभाव में यह अपना दम घोट लेगी !
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment