मंदिर शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से मन व दर की संधि से जो बना है वह मंदिर है या मन के दर(स्थान) जहां खुलते है वह मंदिर है।मन क्या है?आइए आज इस विषय पर चर्चा करते हैं।मन मष्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।बस्तुतः मष्तिष्क की रचना धर्मिता ही मन है।जिसको केंद्रीय स्नायुतन्त्र कहते है।हम सबका केंद्रीय स्नायुतन्त्र इतना संवेदनशील होता है कि हमारी दैनिक जीवन की सारी कार्यविधियों का यह संचालक होता है।मष्तिक एक स्थूल परिधि है जिसकी भित्ति पर मन गतिशील होता है।बस्तुतः जिस शरीर के हम वाहक होते हैं उस शरीर की मूल आवश्यकताओं में आहार है।आहार के विना शारीरिक क्रिया की गतिशलता असम्भव है।अतः शरीर को आप अन्न से जोड़ सकते है।लेकिन मन भौतिक शरीर का वह सूक्ष्म शरीर है जो हमे क्रियाशील ही नही बनाता वह अत्यंत गतिशील भी होता है।मन की गतिशलता में मष्तिष्क वह केंद्रीय तत्व है जिसके अस्तित्व में होने के कारण ही मन है।मन अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे कल्पना,सर्जना,वह केंद्रीकृत संवेदना है जिसे आप स्पंदन भी कह सकते है।वह तरंगित होता रहा है।यह लागभग आपके शरीर का अत्यंत सूक्ष्म भाग होता है जिससे आपमें स्मरण शक्ति होती है।और स्मरण शक्ति व वाह्य जगत से निष्कर्ष प्राप्त व उस निष्कर्ष का कल्पनाओं के आधार पर आप किसी भौतिक वस्तु को जिस तरह देख रहे होते है उसमें वह चित्र या विचार जो पूर्व में आपके स्मृति के अंग रह चुके होते है उन्ही विचारों व अभिव्यक्तियों का वह सममुच्चय होता है।सारे विचारों का स्फोट आपकी संकलित की गई जो स्मरण शक्ति है।उसके ही आधार पर आप कोई भित्ति चित्र बना सकते है या लिख सकते है या बोल सकते है या आप करते है।अतः आप यह कह सकते है कि स्मरण और संकलित विचार या विशेष दृष्टि जो आपके मनोनुकूल होती है आप अभिव्यक्त करते है।इसी तरह से आप झूठ बोलते है अच्छे कार्य भी करते है।क्योंकि यह सब सामाजिक अन्तःक्रिया के परिणाम होते है।आपका शरीर इसका संवाहक होता है अतः संवाहक के अस्तित्व व परिवेशकीय संरचनाओं से यह अछूता नही हो पाता।इसकी अधिकता में आपके पूर्वाग्रही होने के खतरे हो सकते है।क्योंकि मनुष्य की कल्पना शक्ति का प्रकार अतिभिन्न है।जैसे कोपरनिकस ने जब यह कहा होगा कि पृथ्वी गोल है तब उसने पृथ्वी का माप नही लिया होगा पर दूर क्षितिज के अंडाकार होते दृश्य से हम भी इस कथन को मान लेते है कि पृथ्वी गोल है बाद में कोपरनिकस की कल्पनाओं के आधार पर यह वैज्ञानिकों ने माना की बस्तुतः पृथ्वी गोल है।मन का शरीर भी आपके शरीर का वह भाग है जो स्थूल रूप से वह अभिव्यक्त होता है।जैसा रूप व शारीरिक संगठन होता है उसी के अनुसार आपका सूक्ष्म शरीर होता है।मन इन्द्रियानुभव का वह आकार होता है जिसमे रूप,रस,स्पर्श,घ्राण,एवम प्रत्यक्ष व परोक्ष की कल्पना करता रहता है।मन ही एकमात्र वह कारक शक्ति है जिससे जगत का व्यापार चलता है।निर्भर यह करता है आपका जो प्रत्यक्ष अनुभव है वह आप किस तरह उसकी अनुभूति करते है।बस्तुओं की ग्रहण शीलता व बोध के भिन्न-भिन्न आयामों में आपने जो स्मृति का भाग बना रखा है वह ऊर्जान्वित है या नही?यह मानते हुए चलें कि दृष्टि वैभिन्न इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण शक्ति, स्पर्श की संवेदना का घनत्व कितना-कितना है साथ ही साथ दृष्टिबोध की आवृत्ति की पूरकता का अनुपात कितना-कितना है।अगर हम सब समग्रता से सब देख रहे होते है तो दृष्टि की विभिन्नता में भी एक निष्कर्ष को प्राप्त होगें नही तो दृष्टि की विभिन्नता आ जायेगी।क्योंकि आपके द्वारा जो स्पर्श किया जा रहा है या जो देखा जा रहा है या जिसका अस्वादन किया जा रहा है सब का बोध अलग-अलग होगा।इस अलगाव में भी मन एक सममुच्चय है तो जो सममुच्चय के रूप में जो होगा वह सममुच्चय में ही चीजों को देखेगा।यही मत मतांतर है।हर व्यक्ति का जिस तरह शरीर अलग-अलग होता है उसी प्रकार मन की स्थिति भी अलग-अलग होती है।अतः बोध की एकता ही मन की एकता है अन्यथा बोध की एकता के अभाव में आपका बोध अपूर्ण होगा।मन एक पूर्ण इकाई है।किसी का मन न तो रिक्त होता है ना ही उसे रिक्त किया ही जा सकता है।अतः पूर्ण से पूर्ण को निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा।तो वह मन का जो दर(स्थान) है वह मन का मन्दिर है या वह दर जहां मन है वह मंदिर है या आप यूँ कह सकते है कि जिन-जिन समुच्चयों में मन है और मन का दर है वह मन्दिर है।इसलिए मन एक मंदिर है या शरीर एक मंदिर है जहां हमारा मन दर पाना चाहता है जहां मन स्थान पाना चाहता है वह मंदिर है या शरीर ही वह दर(स्थान)है जहां मन है।
आप सभी मित्रों का अभिवादन ।
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