Thursday, December 26, 2019

दिनमान 117


जन्म और मृत्यु के बीच राजनीति भी है।जो विभिन्न  सामाजिक घटकों से होता हुआ भारतीय समाज एक राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त होता है।इस राष्ट्र में समाहित हम भारत के लोग गायब है?भारत के लोंगों की जगह हम विभिन्न जातियों संप्रदायों में अभिव्यक्त  हो रहे है।भारतीय जनमन में एक दूसरे के प्रति अपनी जातियों से सम्मोहन उनकी कमजोरी बनता जा रहा है।इतिहास के पन्नों को पलटा जा रहा है।कुछ उसके समर्थक तो कुछ विरोधी?लोकतंत्र की यह बदसूरती क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म देती है।स्वायत्तशाषी भारत आत्मनिरीक्षण से बच रहा।इसके कारणों की तह में जायँ तो शासन व्यवस्था में आई राजनीतिक अदूरदर्शिता जहाँ इसके विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है तो दूसरी तरफ आंतरिक रणनीतिक के  अभाव लोगों में लोंगों को रोजगार,शिक्षा,चिकित्सा,से वंचित कराता हुआ नागरिक हितों से समान दूरी बनाए जा रहा है। जहां एक तरफ जनसंख्या के विस्फोट का खतरा है तो दूसरी तरफ राजनीतिक इक्षा शक्ति का अभाव। येन केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति जिससे अधिक से अधिक व्यक्तिगत सम्प्पत्ति बनाना राजनीतिक उद्देश्य होता जा रहा है।राजनीति व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिगत संपत्ति के उत्पादन का पिछले कई दशकों से स्तोत्र बना हुआ है,अगर सत्ताधीश व्यक्तिगत संपत्तियों तक ही राजीनीतिक सोच रख रहे है तो हम भारत के लोंगों का क्या होगा?सत्य और अहिंसा जिस देश की धरोहर हो उस देश मे सत्य और अहिंसा पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे है?लोकतांत्रिक मूल्यों में प्रश्न खड़ा करने की आजादी अवसरवादी हो चली है?लोग सत्ता बनाने और अपना हित साधने में मस्त है।यह मौकापरस्ती कब तक?इन प्रश्नों को हल करने से कतराते लोग अब सामूहिक सोच की जगह व्यक्तिगत हितसंवर्धन की तरफ बढ रहे है।आम चुनाव में नागरिक मुद्दे गौड़ है।राजनीतिक दल यह नही समझ पा रहे है कि इस देश के लोग क्या चाहते है?आम लोंगों की यह मांग है कि चदुर्दिक विकास हो जिसमें उनकी चिकित्सा रोजगार शिक्षा आवागमन के साधन हों,पर बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक एवम उचित वितरण का प्रवन्ध सुनिश्छित हो सके,इसके लिए राजनीतिक दृढ़ इक्षा शक्ति का अभाव है,इस राजनीतिक जीवन शैली का अभाव में नागरिक कभी  रैखिक गति से तो कभी क्षैतिज से त्रिभुज,जीवन के कोण बनाता चल रहा है। राजनीतिक जीवन के सद्गुणों और दुर्गुणों की जो विभाजक रेखा है उसके इस  पार और उस पार में झूलता राजनीति,समाजनीति होती जा रही है ।राजनीतिक जीवन संभावना का वह सकारात्मक-नकरात्मक संभावना का विन्दु है जहाँ न कोई आस है न विश्वास ही है?राजनीतिक अभ्युदय की आस एक ऐसा सुख समुद्र है जिसके जीवन का सौन्दर्य रोज प्रस्फुटित होता है और हम रोज रोज जीवन जीते हुए जीवन के अनुभव प्राप्त करते है।यह अनुभव हमारे बीते हुए कल की चट्टान है जिसको परत दर परत उघाड़ते चलते है और जीवन मिलता चलता है।हाँ दृष्टि वैभिन्न के हम शिकार हो सकते हैं जिसमे हमारा स्वयम के पूर्वाग्रह, स्वयम की मान्यता, जिसका निर्माण हमारी  सामाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक,राजनैतिक, एतिहासिक परम्पराओं में दिखता है उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।किन्तु हमारी सम्यक दृष्टि,चेतना यह निर्धारित कर सकती है की पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगता है या नहीं?अगर पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगतता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाते तो शायद जीवन को खो रहे होते है।अचेतन में आपके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी होते है जो आपके इतिहास का निर्माण करते है और ज्यों ही इतिहास की बात आती है उसमे समाहित होता हुआ उसका जीव विज्ञान,मनोविज्ञान,समाजविज्ञान,सांस्कृतिक धरातल पर यह स्वयम ही प्रस्फुटित होता चलता है।तो हम यह माने की यह विज्ञान,इतिहास,समाज,धर्म दर्शन हमने नहीं बनाए है?यह वाह्य  आरोपित हैं?अगर ध्यान से देखेंगे तो लगेगा यह वाह्य आरोपित न होकर स्वयम द्वारा रोपित है।यह जीवन का आवाह्न है।यह आवाहन एक प्रवाह है जिसकी गति में हम प्रवाहमान है।प्रवाह में अवरोध बोध का है बोध के स्तर का है दृष्टि का है दृष्टि की समग्रता का है।हम अज्ञात के प्रति डरे सहमे अनवरत छिन जाने के भय से भयग्रस्त है।यही से जीवन में अन्तर्विरोध का बीज उगना शुरू होता है और अंतहीन भयग्रस्तता के भवर में फंस जाते है।
हम अनिश्छितता में जीवन जीने वाले लोग है !अनिश्चचित है क्या?निश्चितता का अभाव।यह जीवन में प्रवेश करता है हमारे खुद के सृजन से।सृजन आंतरिक संरचना है।आंतरिक संरचना का वाह्य प्रकटीकरण ही जगत है।जगत है जो विवधताओ से भरा है।यह हो भी क्यों नही?संपूर्ण बांगमय को पूर्ण आकृति देना ही विविधताओं का सममुच्चय है।हमारे आस पास सृष्टि विखरी पड़ी है।हम एक एक कर उन चीजों को प्राप्त करते है जो जीवन के सातत्य,प्रवाह के लिए आवश्यक है।जहां ही सातत्य और आवश्यकता की उतपत्ति होती है वही  हम विविधा में होते है हम और हमारा अंतर्विरोध एक साथ सातत्य में प्रवाहित होना चाहता है लेकिन होता ऐसा कुछ भी नही है?अंतर्विरोध मृत्यु का?अंतर्विरोध दासत्व का ? अंतर्विरोध कुछ छीन जाने का?कुछ रिक्त हो जाने का ? इत्यादि इत्यादि।इस अंतर्विरोध में जीवन के सौंदर्य से जीवन प्राप्त करने से हम वंचित हो जाते है।हम एक काल्पनिक दुनिया का खाका खिंचने में इतने व्यस्त होते है कि हमारा स्वयम से ही विरोध होना शुरू होता है यह विरोध कही सहमतियों का निर्माण करता चलता है तो कही असहमतियों का?दुख का सुख का?प्रचुरता और अभाव का?इन परस्पर विरोधाभाषी जीवन मे स्थायी भाव का न होना या न कर पाना हमे हमारे स्व को अनुकूल और प्रतिकूल बनाता है।अनुकूलन एवम प्रतिकुलन से परस्पर विरोधाभाषी चित्त का निर्माण होता चलता है
और ठीक यहीं से हम जीवन से भयग्रस्त होते है।हम जीवन से कम भयग्रस्त रहते है जीवन के परिणामों से ज्यादा भयग्रस्त रहते है।यह भयग्रस्तता हममे असुरक्षा की भावना उतपन्न करती है असुरक्षा के प्रभाव में हम एक ऐसे वायवीय जीवन का निर्माण करते है जहां दुख ही दुख है ! बेदना है ! करुणा है
 अट्टहास है।यह सब शब्द आते ही है विचारों के मनोभाव से।इन शब्दों का निर्माण ही उन मनोभावों का प्रकटीकरण है।तो गौर करे भय से मुक्ति कैसे हो ? भय से मुक्ति ही निर्भय है अतः निर्भय रहे।

आप सभी प्रबुद्ध मित्रों को अभिवादन

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