Monday, January 13, 2020

लोकजीवन और मानस 01


मेरे प्रिय मित्र आदरणीय श्री राम प्यारे राय जो मेरे लिए अनुज है ! उनके लिए मानस एक ग्रन्थ नहीं है ! मानस बांग्मय है और इस वांग्मय को लिपिबद्ध करने का उनका आग्रह है ! अत: मानस पर कुछ शब्द उकेरने में मेरे मन,हृदय,आत्मा की अनुकूलता भी  है यह उनकी अगाध श्रद्धा है जो मुझे उर्जान्वित करती रहती है उनकी ऊर्जा और उनकी ही श्रद्धा की पूंजी को शब्दों में उकेरने का यह सयास प्रयास नहीं यह उनकी कृपा है की मै इस दुष्कर कार्य के लिए निमित्त मात्र हूँ इस तरह यह कार्य मेरे लिए एक कौतुहल ही है कि मेरे जैसा कम जानकार राम चरित मानस पर कुछ लिखे ! बस्तुत मानस एक ग्रन्थ नहीं यह भारतीय भूमि की परिधि है जिसका वृत्त बहुत बड़ा है जैसे  ब्रह्मांड ! अत: उस वृत्त पर खड़ा होकर कुछ देख पाना अत्यंत दुष्कर है,लेकिन अनुज मित्र की इक्षा व् उनकी श्रद्धा के पीछे छिपे भाव मेरे प्रति श्रद्धा व् अनन्य का जो भाव है वह उनके आत्मतत्व से पृथक नहीं है ! अत: मै यह कह सकता हूँ की उनके आत्मतत्व और मेरे आत्मतत्व में कोई अंतर नहीं है ! हाँ शारीर से हम पृथक है पर मूल उत्स एक जैसा है !हमारे लिए राम कोई अपरिचित नहीं है मेरा ऐसा मानना है जो मेरे राम है वही मै हूँ तो यह हो सकता है की मै जो भी लिख रहा हूँ वह स्वयम के बारे में ही लिख रहा हूँ क्योंकि हमारी मान्यता है की जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है ! पिंड और ब्रह्मांड का अन्योनाश्रित सम्बन्ध है ! अत: जब हम पिंड के चेतन,अवचेतन,उपचेतन,अचेतन में जो कुछ भी देख रहे है वही हमारे अंदर एक पिंड के रूप में विद्यमान है ! जो विद्यमान है उसी का सातत्य है जिसका सातत्य है वही ब्रह्मांड है !जीवन एक अवधि है जो भिन्न-भिन्न कालखंडों में विभाजित है अत यह कहना की जीवन का अस्तित्व नहीं है यह गलत होगा ! जीवन व्यक्तिनिष्ठ होता है जब की राम समष्टि है अत व्यष्टि के द्वरा समष्टि की विशद विश्लेष्ण प्रस्तुत कर पाना कठिन है !अत: यह सार्भौमिक ही हो या वैसा ही हो जैसा की समष्टि का स्वभाव व् चित्त की स्थिति है इसमें लेखक का ना कोई आग्रह ही है ना ही कोई कोई पूर्वाग्रह ही है ! यह उसी प्रकार लिखा जा रहा है जैसा समष्टिगत चिन्तन है ! हां यहाँ आप यह कह सकते है की समष्टिगत चिंतन में भारतीय भाषा हो पर भाव भारतीय हो या यह किसी द्वीपीय पूर्वाग्रहों में संचरण कर रहे हो यह पूर्णतया गलत होगा !बस्तुत: पृथ्वी,आकाश,वायु,अग्नि,जल की व्याप्ति पूरी समष्टि में एक्य रखती है ! इसी तरह मानवता की एक्यता ही ब्रह्मांड की एक्यता है !अत: जहाँ जहाँ जीवन है नहीं है हर वह कण जो अणुओं का सुक्षतंम भाग ही है ! अत: जहाँ यह राम के चित्त  के अनुपम सगुण रुप,चेतन,अचेतन,अवचेतन की अद्भुत कथ्य है जहां स्पृहा रहित जीवन का स्पृह जीवन का उदात्त चित्रण है जो जन-जन में व्याप्त है व्याप्त का आशय जो सर्वत्र हो,सर्वत्र से ही व्याप्ति का बोध है बोध से ही अन्तश्चेतना में व्याप्ति है अत; जो व्याप्त है वही व्याप्ति है !

Thursday, December 26, 2019

दिनमान 114


जब सरकारों के पास स्पस्ट दृष्टि,नीतियां व कार्यक्रम नही होते तो वह सरकार अनिर्णय की स्थिति में होती है।इस अनिर्णय की स्थिति से उपजे निर्णय के दंश को नागरिक समाज को ही दुष्परिणाम भुगतने होते है।यह दुष्परिणाम तत्क्षण नही दिखाई पड़ते इसका परिणाम देश व नागरिक समाज को भुगतने पड़ते है।जिस नागरिक समाज में प्रतिरोध करने की शक्ति नही होती है वह समाज लोकतांत्रिक हो ही नही सकता।कोई भी विचार जब अस्तित्व में आते है तो उसका समर्थन व विरोध भी होगा।यह समर्थन और विरोध नागरिक समाज की प्राथमिकता से संबंध रखते है।इसका कारण यह होता है कि हमारे नागरिक समाज में मुद्दे को चुनने की प्रक्रिया क्या है?हमे यह देखना होता है कि क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था संतोषजनक है?क्या हमने वाणिज्य,व्यापार,शिक्षा,चिकित्सा,अन्य नागरिक सुविधाएं प्राप्त कर ली है?क्या हमने कुशल चिकित्सक,शिक्षक, साहित्यकार,कलाकार,दार्शनिक,वैज्ञानिक,अर्थशात्री,अन्य जो मानवता के काम आ सके वह बना सके है?या बना पाए है?क्या हमारे भारतीय समाज ने कुछ आदर्श स्थिति की बात कहने व करने तक की आत्मनिर्भर आर्थिक आत्मस्थिति बना ली है?क्या हम वैश्विक दृष्टि से अग्रणी देश व वैश्विक समाज के लिए धरोहर हो चुके है?क्या हमारे सारे लक्ष्य प्राप्त हो चुके है?क्या आदर्श जैसी कोई स्थिति को प्राप्त कर ली गई है या अब इसके बाद प्रगति व आदर्श की कोई गुन्जाईस नही बन पा रही है?क्या हम प्रगति की सारी सीमाएं लांघ चुके है?क्या चिकित्सालयों,शिक्षा संस्थान अर्थ के प्रभाव से मुक्त हो चुके है?क्या भारतीय समाज अपने मानव संसाधन का उपयोग कर पा रहा है?क्या हम अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा दे पा रहे है?क्या रोजगार की स्थिति अच्छी बन पा रही है?क्या संवैधानिक संस्थाएं स्वतन्त्र रूप से अपना कार्य कर रही है?रोजगार की स्थिति संतोजनक है?क्या हम अपनी सरकारों के माध्यम से नागरिक सुविधाएं दे पा रहे है?क्या देश के चिकित्सालयों की ऐसी स्थिति बन चुकी है कि वे अपने समस्त नागरिकों को चिकित्सा की समुचित व्यवस्था कर सकने में सक्षम है?क्या हमने अपने नागरिकों को आवास,सड़क,आर्थिक सुरक्षा व वैज्ञानिक सोच विकसित कर पाने की दिशा की तरफ बढ़े है या ऐसे संस्थान खोल पा रहे है जिसमे हमारे बच्चे वैज्ञानिक हो?अगर हम यह सब नही कर पा रहे है तो क्यों?क्या सरकारें हमारे द्वारा नही चुनी गई है?क्या हमने इसीलिए सरकारों व संवैधानिक व शैक्षणिक संस्थान खोल रखे है जहां स्वतन्त्र विचारों को रचनात्मक उपयोग नही किया जा सकता?क्या हमारी अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर हो चुकी है?क्या सिटीजनसीप एमेंडमेंट एक्ट 2019 से रोजगार सृजन होगा?क्या हमने इतनी समुन्नत अर्थव्यवस्था कर ली है कि हमे विश्व के अन्य देशों से कोई लेना-देना नही है?क्या हम सबके अलग-अलग ईश्वर है?अगर अलग-अलग ईश्वर है तो अलग-अलग ईश्वरों ने हमे यही सिखया है कि हम दयाहीन,हिंसक,कट्टर,समाज का निर्माण करें।भारतीयता क्या कट्टरता है?बदली हुई परिस्थिति में क्या भारतीय जनमानस को कट्टरता की आवश्यकता है?क्या अंतरराष्ट्रीय स्थितियां इस तरह की बन रही है कि कट्टर हुए बिना हमारे समाज का काम नही चल सकता?क्या रोजगार का अधिकार नही मिलना चाहिए।क्या न्यूनतम समानता नही आ जानी चाहिए?कौन धार्मिक स्थानों की स्तुति करेगा।कौन आजान की गूंजती आवाज में अपने ईश्वर के आकार ग्रहण करने से इनकार करेगा?चिकित्सा,शिक्षा,आवास,धर्म,दया,आस्था,क्या महत्वहीन हो चुके है?जीवन मे सरस्वती के संगीत की वीणा कौन-कौन बजायेगा?कौन ईश्वर के गीत गायेगा?कौन आर्तनाद करेगा?कौन किसका रक्षक होगा?स्वर के लहरों में क्या ईश्वर  की स्तुति अब नही होगी।क्या अब निराला,पंत,माहादेवी नही होगी?कौन गांधी,बुद्ध होगा?कौन राम कृष्ण की तरह से होगा?कौन लोंगों में ईश्वर के दर्शन करेगा।कौन विश्व को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ायेगा?कौन आदर्शवादी होगा जिसके उदाहरण देकर हम बच्चो को प्रोत्साहित करेंगे?कौन सबके आखों से आंशू पोछेंगा?यह सब जो उपरोक्त लिखा है क्या इस देश मे नही होता था?यह देश कब वैचारिक रूप से दरिद्र था?क्या दुर्दिनों में लोंगों ने एकदूसरे की मदद नही की है?क्रमशः हमारा भारतीय सामाज मानवतावादी विचारों को क्यों त्याग रहा है।क्या हम आने वाली सन्तातियों को एक परस्पर परिस्पर्धात्मक,पूर्वाग्रही,समाज नही सौप रहे है?क्या हमारे पिताओं व प्रपितामहों ने हमे ऐसा ही विभक्त समाज दिया था?क्या कोई समाज परस्पर पूरकता के गतिशील समाज कहलायेगा?अगर यह सब नही हो सकता तो क्या सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट 2019 का कोई ओचित्य है?अगर इसका मतलब है तो कौन नागरिक है?कौन नागरिक नही है?नागरिक हिन्दू होता है?नागरिक मुसलमान होता है?कौन गिरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए दोषी है?कौन बेरोजगारी बढ़ा रहा है?कौन जनसंख्या पर नियंत्रण रख पा रहा है?आज शिक्षा में फीस बढोत्तरी के लिए कौन जम्मेदार है,आम नागरिक या सरकारें या संसद?आखिर ये सवाल सरकार से न पूछा जाए?तो जबाब क्या नेहरू जी या  पटेल जी जबाब देंगे?क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था अप्रसांगिक हो गयी है?नोट बन्दी से किसको फायदा हुआ?किसको नुकसान हुआ?इन तामाम प्रश्नों के बीच क्या यह सिटीजन अमेंडमेंट बिल 2019 प्रासंगिक है?या रोजगार,शिक्षा,चिकित्सा?अगर आपको सरकार से कोई उम्मीद नही है तो मुझे कुछ नही कहना है।

आप सभी प्रबुद्ध मित्रों को अभिवादन

दिनमान 114

दिनमान 116
भारत एक अत्यंत प्रचीन देश है।इसकी विविधता मे एक तरफ हिमालय है तो दूसरी तरफ समुद्र।विस्तृत भूखण्ड में फैला यह देश मंदिरों पूजा घरों के साथ ही साथ मोक्ष की संकल्पना से आक्षादित है।जीवन क्या है?जीवन के उद्देश्य क्या है?इसमें भटका यह देश आज भी अपनी जिज्ञाशा से परिपूर्ण है।यहां की पूजा पद्धयती ईश्वर के प्रति आस्था सघन है।यह आस्थाओं की पगडंडी पर चलता है।आस्था की पगडंडी पर चलने वाले देश ने सिर्फ आस्थाओं तक की ही यात्रा न की थी इस देश ने आत्म मंथन भी किया जिसमें उसने चांद तारे ग्रह नक्षत्रों की विधा से लेकर ज्ञान, विज्ञान,गणित,लेखन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचार एवम विधाएं भी दिए ।इसका प्राचीनतम स्वरूप व्यापक और दार्शनिकता से भरा पड़ा है तो व्यहारिक स्वरूप आत्मकेंद्रित है।नदियां पहाड़ झरने बनों से आक्षादित यह देश अपने प्राचीन काल मे काफी समृद्ध रहा है।इसकी समृद्धि इसके विस्तृत उपजाऊ जमीन और नदियों के भरपूर उपयोग पर टिका था।गंगा यमुना सिंध वेतवा नर्वदा अन्यान्न नदियों ने यहां के नागरिकों को उत्तम आहार की व्यवस्था सुनिस्चित की थी।पर्याप्त मानव संसाधनों एवम उचित श्रम उपयोग से यह देश परिपूर्ण रहा है। इसकी समृद्धि और ज्ञान की पिपाषा ने बाहर के देशों को यहां आने के लिए विवश किया।इस देश को समझने के कौतूहल ने विश्व को आकर्षित किया एवं परिणाम स्वरूप इस देश को विश्व मे ऊंचा मान दिया।यहां के लोगों की समृद्धि ने यहां के लोंगों में धर्म दर्शन के प्रति गहरी रुचि जाग्रत की,यह जागरण इस देश को भौतिकता से दूर गम्भीर जीवन दर्शन से यात्रा कराता हुआ बहुत कुछ यहां के निवासियों को विचारशील बनाया।जीवन को जीने से कम,जीवन के आत्मिक परिष्कार से जोड़ता चला गया।परिष्करण की प्रक्रिया इतनी जटिल और मनोवैज्ञानिक थी कि यहां के लोग भौतिक जगत से दूर होते गए,भौतिक जगत से दूर होने एकांतवास की प्रवृत्ति ने इस देश के नागरिकों को काल्पनिकता एवम काल्पनिक जीवन जीने को मजबूर किया,उसका कारण जीवन की विविधताओं से लड़ने की जगह उसके शमन की व्यवस्था का धर्म मे आना इस देश के समाज को जड़ करता गया।इसीलिए यह समाज संगठित न होकर विभाजित होता गया यह वैचारिक विभाजन भी इसी कारण हुआ कि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता ने इस देश को अत्यंत समृद्ध बनाया था,समृद्धि विकास का सातत्य लिए नही होता इसलिये यह वैचारिक समृद्धि को अक्षुण रखने के लिए इसके बचाव करने पड़ते है,यह इस आक्रमक होने से बचाता रहा।आक्रामकता का अभाव ही भौतिक पराभव का कारण बना।यह देश  जीव व जगत को समझने में अक्षम रहा(यहां आशय पदार्थजगत से है)इस अक्षमता में भी हमसब ने विश्व कल्याण की बात कही।विश्व वन्धुत्व व सहअस्तित्व ही हम देश वासियों का मूल मंत्र था।विस्तृत सोच वायवीय होती चली गयी इस प्रक्रार की वायवीय  सोच ने  राजनीतिक रणनीति न बना पाने की अक्षमता ने हमे गुलाम बनाया।हमारी प्रतिरोधात्मक शक्ति को क्षीण बनाया।ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना ने हमे धीरे-धीरे भौतिक होना सीखाया।और 1857 तक आते आते प्रतिरोध इतना चरम पर हुआ कि जो देश हथियारों से न लड़कर शाहत्रार्थ मे लोंगों को पराजित करता था,उसने बंदूक भी उठाई,ज्ञान और विज्ञान से भरे इस देश मे राजनीतिक अस्थिरता इस देश की नियति रही है।बस्तुतः छह ऋतुओं समतल उपजाऊ मैदान,एक विस्तृत भूभाग यहां की कृषि,वाणिज्य,सूती कपड़े,मसाले,आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदाय,उन्नत अर्थव्यवस्था,विश्व के लोंगों के लिए कौतुहल का विषय रही,राजनीतिक स्थिरता के अभाव में  हम अपने धरोहर खोते गए।यहां के लोगों में जीवन के भौतिक पक्ष पर कम ध्यान गया,यहां का धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष इतना प्रबल था कि तत्कालीन समाज ने विश्व बंधुत्व,वसुधैव कुटुम्बकम,तक विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती गईं।इसके इतर  ब्रितानी हुकूमत के दौरान यहां के नागरिकों का एक बहुत बड़ा समुदाय कम्पनी के हितों की रक्षा करता था उसका हित साधक वर्ग संस्कृत,उर्दू,हिंदी,इन भाषाओं पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी,चूंकि कम्पनी की भाषा अंग्रेजी थी,अतः कम्पनी के हित में कार्य के लिए यहां के नागरिकों ने अंग्रेजी भाषा को सीखा,जब अंग्रेजी भारत आई तब तक अंग्रेजी विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी।अतः भारतीय लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग अंग्रेजी साहित्य को पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया था,इसका फायदा यह हुआ कि यहां के निवासीयों ने विश्व साहित्य के अद्यतन विचारों एवम विश्व के सांस्कृतिक,सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक पक्षों से परिचित होंगे गए अतः वैचारिक वैविध्य में स्वतंत्र विचारों के नए-नए मानक गड़े जाने लगे,इसका फायदा यह हुआ कि वैचारिक वैविध्य ने भारतीय जीवन शैली को बदलना शुरू किया और यही से भारत पूरे विश्व मे फैल गया,यह इसलिए सम्भव हो सका कि हम विश्व के साथ चलने में स्वयम को सक्षम पाने लगे,इसके परिणाम स्वरूप विश्व के साथ कदम ताल करने के क्रम में इस देश ने लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाया।लोकतंत्र और संप्रभुता का समन्वय ही हमारे स्वराज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था से जन्मे
संसद,संविधान,न्यायपालिका,कार्यपालिका,विधायिका बनी।राज्य की शक्तियों का विभाजन ही इसलिए किया गया कि अपरिहार्य स्थितियों में लोकतंत्र को बचाया जा सके,इसे ही स्वतंत्रता कहा जाता है।यह क्रम 1947 से आज तक कायम है आवश्यकता इस वात की है कि हर स्वायत्त संस्थान की स्वयत्तता जितनी सम्यक संतुलित होती जाएगी,लोकतंत्र और मजबूत होता जाएगा,और हम अपने सतत नागरिक बोध से आने वाली पीढ़ी को एक मानवतावादी साहित्य,एक मानवतावादी समाज की रचना कर पाएंगे जिससे हमारी आर्थिक असमानता में प्रविष्ट गहरी खाई को अपने समन्वयवादी दृष्टि से सम्पूर्ण भारत को पुनः एकाकार करेंगे,यह काम बिना मानवतावादी विचार के सम्भव न होगा।

आप सभी को अभिवादन

दिनमान 117


जन्म और मृत्यु के बीच राजनीति भी है।जो विभिन्न  सामाजिक घटकों से होता हुआ भारतीय समाज एक राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त होता है।इस राष्ट्र में समाहित हम भारत के लोग गायब है?भारत के लोंगों की जगह हम विभिन्न जातियों संप्रदायों में अभिव्यक्त  हो रहे है।भारतीय जनमन में एक दूसरे के प्रति अपनी जातियों से सम्मोहन उनकी कमजोरी बनता जा रहा है।इतिहास के पन्नों को पलटा जा रहा है।कुछ उसके समर्थक तो कुछ विरोधी?लोकतंत्र की यह बदसूरती क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म देती है।स्वायत्तशाषी भारत आत्मनिरीक्षण से बच रहा।इसके कारणों की तह में जायँ तो शासन व्यवस्था में आई राजनीतिक अदूरदर्शिता जहाँ इसके विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है तो दूसरी तरफ आंतरिक रणनीतिक के  अभाव लोगों में लोंगों को रोजगार,शिक्षा,चिकित्सा,से वंचित कराता हुआ नागरिक हितों से समान दूरी बनाए जा रहा है। जहां एक तरफ जनसंख्या के विस्फोट का खतरा है तो दूसरी तरफ राजनीतिक इक्षा शक्ति का अभाव। येन केन प्रकारेण सत्ता की प्राप्ति जिससे अधिक से अधिक व्यक्तिगत सम्प्पत्ति बनाना राजनीतिक उद्देश्य होता जा रहा है।राजनीति व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिगत संपत्ति के उत्पादन का पिछले कई दशकों से स्तोत्र बना हुआ है,अगर सत्ताधीश व्यक्तिगत संपत्तियों तक ही राजीनीतिक सोच रख रहे है तो हम भारत के लोंगों का क्या होगा?सत्य और अहिंसा जिस देश की धरोहर हो उस देश मे सत्य और अहिंसा पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे है?लोकतांत्रिक मूल्यों में प्रश्न खड़ा करने की आजादी अवसरवादी हो चली है?लोग सत्ता बनाने और अपना हित साधने में मस्त है।यह मौकापरस्ती कब तक?इन प्रश्नों को हल करने से कतराते लोग अब सामूहिक सोच की जगह व्यक्तिगत हितसंवर्धन की तरफ बढ रहे है।आम चुनाव में नागरिक मुद्दे गौड़ है।राजनीतिक दल यह नही समझ पा रहे है कि इस देश के लोग क्या चाहते है?आम लोंगों की यह मांग है कि चदुर्दिक विकास हो जिसमें उनकी चिकित्सा रोजगार शिक्षा आवागमन के साधन हों,पर बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक एवम उचित वितरण का प्रवन्ध सुनिश्छित हो सके,इसके लिए राजनीतिक दृढ़ इक्षा शक्ति का अभाव है,इस राजनीतिक जीवन शैली का अभाव में नागरिक कभी  रैखिक गति से तो कभी क्षैतिज से त्रिभुज,जीवन के कोण बनाता चल रहा है। राजनीतिक जीवन के सद्गुणों और दुर्गुणों की जो विभाजक रेखा है उसके इस  पार और उस पार में झूलता राजनीति,समाजनीति होती जा रही है ।राजनीतिक जीवन संभावना का वह सकारात्मक-नकरात्मक संभावना का विन्दु है जहाँ न कोई आस है न विश्वास ही है?राजनीतिक अभ्युदय की आस एक ऐसा सुख समुद्र है जिसके जीवन का सौन्दर्य रोज प्रस्फुटित होता है और हम रोज रोज जीवन जीते हुए जीवन के अनुभव प्राप्त करते है।यह अनुभव हमारे बीते हुए कल की चट्टान है जिसको परत दर परत उघाड़ते चलते है और जीवन मिलता चलता है।हाँ दृष्टि वैभिन्न के हम शिकार हो सकते हैं जिसमे हमारा स्वयम के पूर्वाग्रह, स्वयम की मान्यता, जिसका निर्माण हमारी  सामाजिक,सांस्कृतिक,आर्थिक,राजनैतिक, एतिहासिक परम्पराओं में दिखता है उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।किन्तु हमारी सम्यक दृष्टि,चेतना यह निर्धारित कर सकती है की पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगता है या नहीं?अगर पूर्वाग्रहों की युक्तिसंगतता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाते तो शायद जीवन को खो रहे होते है।अचेतन में आपके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी होते है जो आपके इतिहास का निर्माण करते है और ज्यों ही इतिहास की बात आती है उसमे समाहित होता हुआ उसका जीव विज्ञान,मनोविज्ञान,समाजविज्ञान,सांस्कृतिक धरातल पर यह स्वयम ही प्रस्फुटित होता चलता है।तो हम यह माने की यह विज्ञान,इतिहास,समाज,धर्म दर्शन हमने नहीं बनाए है?यह वाह्य  आरोपित हैं?अगर ध्यान से देखेंगे तो लगेगा यह वाह्य आरोपित न होकर स्वयम द्वारा रोपित है।यह जीवन का आवाह्न है।यह आवाहन एक प्रवाह है जिसकी गति में हम प्रवाहमान है।प्रवाह में अवरोध बोध का है बोध के स्तर का है दृष्टि का है दृष्टि की समग्रता का है।हम अज्ञात के प्रति डरे सहमे अनवरत छिन जाने के भय से भयग्रस्त है।यही से जीवन में अन्तर्विरोध का बीज उगना शुरू होता है और अंतहीन भयग्रस्तता के भवर में फंस जाते है।
हम अनिश्छितता में जीवन जीने वाले लोग है !अनिश्चचित है क्या?निश्चितता का अभाव।यह जीवन में प्रवेश करता है हमारे खुद के सृजन से।सृजन आंतरिक संरचना है।आंतरिक संरचना का वाह्य प्रकटीकरण ही जगत है।जगत है जो विवधताओ से भरा है।यह हो भी क्यों नही?संपूर्ण बांगमय को पूर्ण आकृति देना ही विविधताओं का सममुच्चय है।हमारे आस पास सृष्टि विखरी पड़ी है।हम एक एक कर उन चीजों को प्राप्त करते है जो जीवन के सातत्य,प्रवाह के लिए आवश्यक है।जहां ही सातत्य और आवश्यकता की उतपत्ति होती है वही  हम विविधा में होते है हम और हमारा अंतर्विरोध एक साथ सातत्य में प्रवाहित होना चाहता है लेकिन होता ऐसा कुछ भी नही है?अंतर्विरोध मृत्यु का?अंतर्विरोध दासत्व का ? अंतर्विरोध कुछ छीन जाने का?कुछ रिक्त हो जाने का ? इत्यादि इत्यादि।इस अंतर्विरोध में जीवन के सौंदर्य से जीवन प्राप्त करने से हम वंचित हो जाते है।हम एक काल्पनिक दुनिया का खाका खिंचने में इतने व्यस्त होते है कि हमारा स्वयम से ही विरोध होना शुरू होता है यह विरोध कही सहमतियों का निर्माण करता चलता है तो कही असहमतियों का?दुख का सुख का?प्रचुरता और अभाव का?इन परस्पर विरोधाभाषी जीवन मे स्थायी भाव का न होना या न कर पाना हमे हमारे स्व को अनुकूल और प्रतिकूल बनाता है।अनुकूलन एवम प्रतिकुलन से परस्पर विरोधाभाषी चित्त का निर्माण होता चलता है
और ठीक यहीं से हम जीवन से भयग्रस्त होते है।हम जीवन से कम भयग्रस्त रहते है जीवन के परिणामों से ज्यादा भयग्रस्त रहते है।यह भयग्रस्तता हममे असुरक्षा की भावना उतपन्न करती है असुरक्षा के प्रभाव में हम एक ऐसे वायवीय जीवन का निर्माण करते है जहां दुख ही दुख है ! बेदना है ! करुणा है
 अट्टहास है।यह सब शब्द आते ही है विचारों के मनोभाव से।इन शब्दों का निर्माण ही उन मनोभावों का प्रकटीकरण है।तो गौर करे भय से मुक्ति कैसे हो ? भय से मुक्ति ही निर्भय है अतः निर्भय रहे।

आप सभी प्रबुद्ध मित्रों को अभिवादन

दिनमान 115

आइए आज सत्य व अहिंसा क्या है इन दो प्रश्नों के देखते है सत्य होता क्या है?वस्तुतः सत्य एक पूर्णता की अवधारणा है।यह उगते सूर्य की सुखद अनुभूति है जो उगते समय सप्तरंगी आभा से युक्त एवम आनंद का उद्गम होता है। जिसको देखने से या उसके अस्तित्व से इनकार नही किया जा सकता।दिन के उजाले में व्यक्ति विरोध, स्वयम का दुःख हो सकता,सुख हो सकता है।लेकिन इसके अस्तित्व व जीवन के आरम्भ और अंत अतिरिक्त और क्या हो सकता है?दिन और रात का सत्य और समय का सत्य सब सत्य है।तो असत्य क्या है?हमारी दृष्टि?हमारी शास्त्र सम्मत धारणा है कि हम पूर्ण ही जन्म लेते है,और पूर्णता में ही समाप्त भी हो जाते है।अतः इसका निहतार्थ यह है हम सब सत्य ही है और इसमें से जो निकलता है वह सत्य ही होता है।यहां एक संस्कृत के श्लोक का उद्धहरण दे रहा हूँ ॐ पूर्ण मद: पूर्णमिदम पूर्णाति पूर्ण मुदच्छत्ते पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवा वशीषस्यते।।एक घटक के रूप में आप पूर्ण है।जो पूर्ण है उसमें से जो निकलेगा वह पूर्ण ही होगा और पूर्ण से अगर पूर्ण को भाग दिया जाय तो पूर्ण ही होगा।वह पूर्ण ईश्वर है।और हम उनकी संतानों में से एक है।अतः यह हम सब पर एक समान है,समानता में ही सत्य निवास करता है।सत्य कैसा है?जहां निष्कलुष प्रेम है कुछ शब्द दे देने की उत्कंठा है या दूसरे की पीड़ा से स्वयम को जो पीड़ा होती है वह सत्य है।प्रेम है।आनंद है।जब हम किसी के साथ मनसा बाचा कर्मणा साथ होते है।तो वहाँ हम दो व्यक्तियों में साथ-साथ एकाकार होते है।एकाकार होना ही प्रेम है।उस सामूहिकता में करुणा है,प्रेम है,भले ही उसका दायरा शाब्दिक ही सही,अहिंसात्मक ही सही,विना किसी कारण के जब हम सब स्मृति में होते हैं।सत्य वहाँ-वहाँ होता है।जहां दूसरे के दर्द को अपना समझते है,सत्य वहाँ- वहां होता है।जब हम अपने चरित्र से क़ई लोंगों में निवास करते है सत्य वहा होता है।जब हम निश्छल होते है,और दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे होते है, विनम्र होते है, सत्य वहां-वहां होता है।जब कोई अकारण आशीर्वाद दे रहा होता है सत्य वहां होता है।जब हमारा आभ्यांतरिक जगत और हमारा वाह्य जगत एक होता है सत्य वहाँ होता।जब हम किसी के जीवन मे जीने की आस होते है सत्य वहां होता है।जब यह हमसब हम रोज-रोज करते है सत्य वहां होता है।जब हम किसी के दुःख में दुःखी और सुख में  सुखी होते है सत्य वहाँ-वहाँ होता है।असमान दृष्टि ही असत्य है।सामूहिक चेतना में प्रेम निष्कलुष,निश्छल,जल की तरह पारदर्शी व्यक्ति समूह होता चलता है सत्य वहां-वहां रहता है।जब आप खिलखिला कर हँसते है सत्य वहां होता है।सत्य वहां भी होता है जहां आप किसी रोते हुए के आँशु पोछ रहे होते है।आंशू पोछते-पोछते आप स्वायम रो देते है सत्य वहां होता है।जब आपको भूख लग रही हो और कोई और भूखा आ जाय और जब आप अपनी रोटी बांट रहे होते है सत्य वहां होता है।जब आपमे अपने विरोधी के प्रति समादर आता है और आप दयावान हों सत्य वहां उपस्थित होता जाता है।इत्यादि इत्यादि।सत्य एक सुखद अनुभूति है जो स्वयम के साथ समान भाव से सबमे वितरित होती रहती है सत्य वहां होता है।वस्तुतः सत्य की अनुपस्थिति क्यों है?जब आप दूसरे के दुःख में दुखी नही होते है वहाँ असत्य होता जाता है।दरअसल हम जीवन की सम्पूर्णता में रोज रोज रिक्त होते है।जानते है कैसे?जब हम उपरोक्त के विपरीत होते है और  विपरीत होते क्यों है?आइए इस पर भी विचार करते है।हम विपरीत होते है,शारीरिक आवश्यकताओं के लिए।हम और हमारी चेतना से एकाकार नही हो पाती वहां असत्य अद्भाशित होता जाता है।असत्य जीवन मे जीवन जीते -जीतेइतने असहाय होते है कि हम चाहते हुए भी किसी के लिए कुछ नही कर पाते है असत्य वहां होता है,और इसी असत्य में जीते-जीते  हम स्वयम के लिए भी कुछ नही कर पाते।जब हम स्वयम के साथ ही नही हो पाते है तो हम दूसरे के लिए क्या करेंगे?असत्य तब होता है।ऐसा तब होता है जव हम अपनी इक्षाओं के विपरीत कार्य कर रहे होते है।जब हम ऐसा कर रहे हैं हम असत्य और असंतुष्ट जीवन जी रहे होते है।आईए ऐसा क्यों होता है इसके कारणों की तह तक की यात्रा करें।हम जो करना चाहते है वह नही कर रहे है।जिस समय हम अपने को रोक लेते है मुँह फेर रहे होते है हम खंडित मनुष्य होते है,जबकि सत्य पूर्ण है.खंडित मन,खंडित दृष्टि,खण्डित विचार के  संवाहक होते जाते है जानते हैं क्यों?हमसब इसलिए होते है क्योंकि बच्चे को पैदा करने से लेकर हम और हम अकेले होते है हम जितने ही अकेले-अकेले भौतिक जीवन मे होते जाते है हम रोज रोज खण्डित होते-होते समाप्त होते जाते है।अतः वही करें जो आपको अच्छा लगे जो आपको आनंद दे।सुख और आनंद में अंतर को समझते चलें।सुख बस्तुओं में होते है आनंद हमारे अंदर होता है।ठीक उसी तरह जैसे हम अकेले जन्म लेते है और अकेले ही मर जाते है।अतः प्रत्येक मनुष्य वस्तुतः सामुदायिक होता है जब समाज मे पीर पराई जाने रे का अभाव हो जाता है,हमारे अंदर की जो भी करुणा है संवेदना है क्षरित होने लगती है और हम क्रमशः उसको मारते जाते है अन्त तक आते-आते हम स्वयम करुणा के पात्र हो जाते है।जहां आप करुणा बाटने आये थे वह न कर हम सब इतने कंजूस होते जाते है कि अपना दुःख दर्द भी नही बांट पाते है,आप समाप्त हो जाते है इसी तरह आपका तत्कालीन समाज मर जाता है यह विकृतियां इसलिए आती हैं जब हमारी सामुदायिक सोच समाप्त हो जाती है।यह सब इसलिए होता है की हमारा जो सामुदायिक जीवन है ईर्ष्या जगत में परिवर्तित होता जाता है,अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती जाती है।हम ज्यो ही किसी के सुख में दुखी या ईर्ष्या रखने लगते है दुखी होते जाते है।जानते है क्यों?इसके कारणों की तह तक जाँय तो हमारा पीर पराई जान रे का बोध ही क्रमशः समाप्त होता जाता है हम कठोर व लालची अपने आपको ऊंचा आंकना शुरू कर देते है।दरअसल हम जीवन मे परस्पर विरोधाभाषी समाज मे रहते है जहां कोईं आपका अपना नही होता तब आपको पता चलता है कि कौन अपने है?जब तक यह पता चलता है जीवन काफी आगे निकल चुका होता है कि हम उनलोंगों के प्रति निर्मोही होते जाते है ऐसा करते समय हम सभी लोंगों के प्रति दया की जगह हिकारत करने लगते है यहां भी हम एक नए तरह की शब्दिक हिंसा कर रहे होते है।जब हम किसी  की सिर्फ आलोचना कर रहे होते है तो स्वयम के प्रति भी हिंसा कर रहे होते है.अगर आप किसी को कुछ दे नही सकते तो क्या सहानुभूति भी नही दे सकते?अगर आप यह सब नही कर रहे है तो आप अहिंसक नही है?आप स्वार्थी है हिंसक है?और अगर आप स्वयं में स्वार्थी और हिंसक है?तो कब आपका व्यापक समाज कब तक इन विकृतियों से मुक्त रहेगा।और अगर आपस मे हम पूर्वाग्रह से मुक्त नही है वह सरल,स्वाभाविक,निष्कलुष समाज रह पाएगा?जब कि आप उस समाज के बराबर के सहभागी है.तो क्या ईश्वर ने आपको इसलिए जीवन दिया है कि आप असहस्तित्ववादी हो जाँय आप हिंसक हो जाएं?एकदम नही,कदापि नही,मूल्यों से न हटे चाहे जो हो जाय।जब निश्चय ऐसा होता है तब आप निर्भय होते है और ज्यों ही आप निर्भय होते है आप और आपका ईश्वर आपके साथ होता है।ईश्वर पर अटूट भरोषा रखे।सफलता रुपया नही है ना ही यह पद है ना ही अन्य बस्तुओं की प्राप्ति है इसके इतर ईश्वर आपके साथ है वह आपकी सहायता करता चलेगा आप ईश्वर के साथ-साथ होते जाईये।आपमें निर्बल के बल राम है।आपके पास जो भी है वह ऋण के रूप में हो जिम्मेदारियों के रूप में हो रोग के रूप में विपरीत परिस्थितियों के रूप में हो वह आपकी मनुष्य के रूप में हमेशा आपको आपके साथ मिलेंगे।मनुष्य का शरीर मरता है स्मृतियां नही।स्मृतियों में किसी मनुष्य का वस जाना ही वह मानवता की सार्थकता है।अतः हमेशा अच्छा बोले हो सके तो करते रहे आपका भी अच्छा होता चलेगा। आपके लिए भी लोग प्रार्थनाएं करते चलेंगे।अतः जितने लचीले व सहज हो सकते है लचीले व सहज होते चलिये यह करने से आप स्वयम में आनंदित होते रहेगे।अगर आप आनंदित रहेंगे तभी तो आप अन्य लोंगों में आनंद बांटेंगे।अतः अपने अंदर वैठे अपने अबोध वालक को जीवित रखे यह याद रखिये आपका अबोध वालक मनोवृत्ति ही व्यापक जन सुधार करती चलेगी।
आप सभी को नमस्कार

Thursday, November 21, 2019

डॉ0 फिरोज


डॉ0 फिरोज के लिए
भाषा किसी जाति व धर्म की नही होती।यह जो हो रहा है मैं एक भारतीय नागरिक के रूप में छुब्ध हूँ और बेहद दुःख है कि संस्कृत भाषा की संस्कृति कलंकित हुई है।हम क्या करें
हम नए तरह के आदिवासी जीवन जीने को मजबूर है।जहां कोई स्नेह नही है ना कोई प्रेम है,ना ही कोई परस्पर अनुराग है,जहाँ असहमति है,विखण्डन है,क्षोभ है,कुछ रिक्त हो जाने का भय है,कुछ पा लेने की चाह है,प्रतिस्पर्धा है,हम पुनः उसी तरफ चल रहे है जहां से हम यह कह कर चले थे कि हम सभ्य हो रहे है,हमने एटम बम बना लिए है,हमने उपकरण खरीद लिए है,हम जमीन पर दोनों पैरों से चलने वाले से साइकिल तक,साइकिल से कार,कार से हवाई जहाज,अब अंतरिक्ष मे प्लाट लेने की तैयारी है।क्या यह प्रगति है?प्रगति का अर्थ है लगातार उन्नत होने से है प्र जो ऊर्ध्व हो गति का अर्थ है चलायमान।सभ्यता के विकाश क्रम में हम गतिहीन नही हो सकते।इसका कारण यह है यह चराचर जगत गतिशील है।हम रुक जायँ पर जगत कहां रुकता है?वह गतिशील है तो इस गतिशीलता में आप आगे जा रहे है या पीछे यह देखना पड़ेगा।सभ्यता का विकास हिमयुग से शुरू होता हुआ पाषाण युग फिर धातुओं की खोज फिर उन धातुओं का सकारात्मक व नकारात्मक प्रयोग,आपस के झगड़े,युद्ध,विविषिका,फिर शांति।आज हम जहां खड़े है वह शांति है या शांति की विविषिका है?क्या हम कुछ ज्यादा भयभीत,अशांत,दुराग्रही,असन्तुष्ट,उत्पाती,नही हो रहे है?अगर यह सब है तो क्या हम सभ्य है?या हम सभ्यता की खोज में सेक्स के आनंद,मदिरा सेवन का आनंद नही ले रहे?अगर उपरोक्त में आनंद आ रहा है तो फिर हम असन्तुष्ट,भयग्रस्त,परस्पर प्रतिस्पर्धा में क्यों जी रहे है?बस्तुतः हम और आप मिलकर एक ऐसे समूह की संरचना कर रहे है जिसमे घृणा में आनंद आ रहा है?परस्पर प्रतिस्पर्धा में आनंद आ रहा है?बल पूर्वक किसी का कुछ छीन लेने में आनंद आ रहा है?अगर इन सब मे आनंद नही आ रहा है आनंद कहां है?सेक्स शराब,जमीन,दुकान,मकान,कार,बंगला,गाड़ी मोटर,हवाई जहाज अंतरिक्ष मे?आंनद और सभ्यता कहां है?यह सोचना पड़ेगा।क्या किसी का हक छीन लेने का आंनद,ऊंचे पद पाकर आप आनंदित है?हर जगह उत्तर नही ही मिलेगा।यह सब जो आप और हम कर रहे है।इसमें अगर आनंद होता तो ये प्रश्न ही न खड़े होते।इसका मतलब इसके निषेध में आनंद है?तो इसका सर्जक कौन है हम आप?तो दुःखी कौन होगा हम और आप ही।बस्तुतः यह एक गंभीर विषय है यह मनोरंजन का विषय नही है।हम और आप ही ने मिलकर इसकी सर्जना की है।अगर सर्जना नकारात्मक है तो इसे समाप्त करने पर ही हम आनंदित रह सकते है।तो क्या हम आधुनिक बस्त्र पहने आदिवासी है?या आदिवासी होना ही मनुष्य का मौलिक चरित्र है?तो क्या हम नए किस्म के आदिवासी होते जा रहे है जहां हमारा कोई समाज नही है ना ही कोई सुरक्षा है।क्योंकि सुरक्षा के लिए हमने पिस्तौल बना ली है?सुरक्षा के लिए कांक्रीट के ऊंचे दीवार बना लिए है?क्या कुत्ते के साथ सड़क पर  हम कुत्ते से मैत्री का भाव रख रहे है कि उसके अलावां कोई आपका मित्र नही है?तो जीवन क्या इस पड़ाव पर आ चुका है कि हम मनुष्यों में संभावना बची ही नही रह गयी है।हमारा मष्तिष्क लगातार प्रगति कर रहा है जितने डॉ0 बड़ रहे है उससे ज्यादा रोगी?क्या डॉ0 रोग बढ़ा रहा है?या सभ्य होना आनंद से च्युत होना है।तब तो वही काल अच्छा था जब हम सामूहिक रूप से जीवन जीते थे।तो क्या हम आधुनिक बस्त्रों में क़बीले नही है?अगर नही हैं तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम कितने भी सभ्य हों या सभ्य दिख रहे हो हम बस्तुतः सभ्य नही है।हम शिक्षित इसलिए होते है कि हम सभ्य परिवार बनायेगे,यही परिवार समाज का अंग होता जाता है फिर यही राष्ट्र का फिर अंतराष्ट्रीय संदर्भो में होता जाता है।हम जहां भी समाधान की तरफ बढ़ते है समस्याएं जटिल और जटिल होती जाती है।इसका एक मात्र निदान सहअस्तित्व व अहिंसा है।हम भारतीय कुछ असहिष्णु व अहिंसक होते जा रहे है।हम जब विचारों के कपाट बंद कर लेते है तो नए विचार दस्तक नही देते।अतः सब लोग खुले मन से एक दूसरे के साथ सहअस्तित्व बनाये व अपने-अपने परिवारों को प्रसन्न रखे।अन्याय के खिलाफ एकजुट हो व अच्छे लोग सार्वजनिक जीवन मे आएं विचार व्यक्त करें।हमारा पूरा भारतीय समाज फिर 1947 से पहले की स्थिति में न पहुंच जाए इसके लिए हमे खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना पड़ेगा।2014 से राजनीतिक दिशा ग़लत रास्ते पर जा रही है इसको रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है और उनलोंगों से सतर्क रहने की जिम्मेदारी भी है जो हमारा एकता व अखड़ंता को नष्ट करना चाहते है।हम धनहीन होते हुए मन से कर्म से व वचन से सबकी सेवा कर सके ऐसा ईश्वर हमे सद्बुद्धि दे।अगर हम लिख सकते है तो लिखे जो भी कर सकते हो करे।मुझे लग रहा है हम प्रगति न कर अधोगति की तरफ जा रहे है।यह अतीत का अनुभव है जिसे मैं व्यक्त कर रहा हूँ।हमारी कट्टरता हमारा विनाश कर देगी।हमारी जीवन पद्यति,शिक्षा पद्यति,आर्थिक पद्यति,सामाजिक पद्यति,राजनीतिक पद्यति कट्टरता में नही रही है।हम ज्यों ही कट्टर होते जायेगे शनै: शनै: विनाश की तरफ बढ़ रहे होंगे।अतः राम कृष्ण,विवेकानंद के इस देश को राम कृष्ण के अनुसार चलने दे,इनके नाम पर राजनीति,अर्थनीति,से अगर बच सके तो बचे,हां अगर लोकतंत्र को बचाना है तो जातिबाद को मिटाना होगा।लोकतंत्र एक अनुपम धरोहर है हर कीमत पर इसे बचाना हमारा नागरिक धर्म है,लोकतांत्रिक मूल्यों व वैश्विक शांति के हम तभी अग्रदूत हो पाएंगे जब हम शांत व हमारी वैश्विक साख बची रहे।अन्यराष्ट्रीय संदर्भों में हमारी साख गिर रही है अतः क्षरण से रोकें।

मैं लिख लिख कर अपना काम कर रहा हूँ।आप भी लिखें।

Monday, November 18, 2019

दिनमान 93


मंदिर शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से मन व दर की संधि से जो बना है वह मंदिर है या मन के दर(स्थान) जहां खुलते है वह मंदिर है।मन क्या है?आइए आज इस विषय पर चर्चा करते हैं।मन मष्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।बस्तुतः मष्तिष्क की रचना धर्मिता ही मन है।जिसको केंद्रीय स्नायुतन्त्र कहते है।हम सबका केंद्रीय स्नायुतन्त्र इतना संवेदनशील होता है कि हमारी दैनिक जीवन की सारी कार्यविधियों का यह संचालक होता है।मष्तिक एक स्थूल परिधि है जिसकी भित्ति पर मन गतिशील होता है।बस्तुतः जिस शरीर के हम वाहक होते हैं उस शरीर की मूल आवश्यकताओं में आहार है।आहार के विना शारीरिक क्रिया की गतिशलता असम्भव है।अतः शरीर को आप अन्न से जोड़ सकते है।लेकिन मन भौतिक शरीर का वह सूक्ष्म शरीर है जो हमे क्रियाशील ही नही बनाता वह अत्यंत गतिशील भी होता है।मन की गतिशलता में मष्तिष्क वह केंद्रीय तत्व है जिसके अस्तित्व में होने के कारण ही मन है।मन अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे कल्पना,सर्जना,वह केंद्रीकृत संवेदना है जिसे आप स्पंदन भी कह सकते है।वह तरंगित होता रहा है।यह लागभग आपके शरीर का अत्यंत सूक्ष्म भाग होता है जिससे आपमें स्मरण शक्ति होती है।और स्मरण शक्ति व वाह्य जगत से निष्कर्ष प्राप्त व उस निष्कर्ष का कल्पनाओं के आधार पर आप किसी भौतिक वस्तु को जिस तरह देख रहे होते है उसमें वह चित्र या विचार जो पूर्व में आपके स्मृति के अंग रह चुके होते है उन्ही विचारों व अभिव्यक्तियों का वह सममुच्चय होता है।सारे विचारों का स्फोट आपकी संकलित की गई जो स्मरण शक्ति है।उसके ही आधार पर आप कोई भित्ति चित्र बना सकते है या लिख सकते है या बोल सकते है या आप करते है।अतः आप यह कह सकते है कि स्मरण और संकलित विचार या विशेष दृष्टि जो आपके मनोनुकूल होती है आप अभिव्यक्त करते है।इसी तरह से आप झूठ बोलते है अच्छे कार्य भी करते है।क्योंकि यह सब सामाजिक अन्तःक्रिया के परिणाम होते है।आपका शरीर इसका संवाहक होता है अतः संवाहक के अस्तित्व व परिवेशकीय संरचनाओं से यह अछूता नही हो पाता।इसकी अधिकता में आपके पूर्वाग्रही होने के खतरे हो सकते है।क्योंकि मनुष्य की कल्पना शक्ति का प्रकार अतिभिन्न है।जैसे कोपरनिकस ने जब यह कहा होगा कि पृथ्वी गोल है तब उसने पृथ्वी का माप नही लिया होगा पर दूर क्षितिज के अंडाकार होते दृश्य से हम भी इस कथन को मान लेते है कि पृथ्वी गोल है बाद में कोपरनिकस की कल्पनाओं के आधार पर यह वैज्ञानिकों ने माना की बस्तुतः पृथ्वी गोल है।मन का शरीर भी आपके शरीर का वह भाग है जो स्थूल रूप से वह अभिव्यक्त होता है।जैसा रूप व शारीरिक संगठन होता है उसी के अनुसार आपका सूक्ष्म शरीर होता है।मन इन्द्रियानुभव का वह आकार होता है जिसमे रूप,रस,स्पर्श,घ्राण,एवम प्रत्यक्ष व परोक्ष की कल्पना करता रहता है।मन ही एकमात्र वह कारक शक्ति है जिससे जगत का व्यापार चलता है।निर्भर यह करता है आपका जो प्रत्यक्ष अनुभव है वह आप किस तरह उसकी अनुभूति करते है।बस्तुओं की ग्रहण शीलता व बोध के भिन्न-भिन्न आयामों में आपने जो स्मृति का भाग बना रखा है वह ऊर्जान्वित है या नही?यह मानते हुए चलें कि दृष्टि वैभिन्न इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण शक्ति, स्पर्श की संवेदना का घनत्व कितना-कितना है साथ ही साथ दृष्टिबोध की आवृत्ति की पूरकता का अनुपात कितना-कितना है।अगर हम सब समग्रता से सब देख रहे होते है तो दृष्टि की विभिन्नता में भी एक निष्कर्ष को प्राप्त होगें नही तो दृष्टि की विभिन्नता आ जायेगी।क्योंकि आपके द्वारा जो स्पर्श किया जा रहा है या जो देखा जा रहा है या जिसका अस्वादन किया जा रहा है सब का बोध अलग-अलग होगा।इस अलगाव में भी मन एक सममुच्चय है तो जो सममुच्चय के रूप में जो होगा वह सममुच्चय में ही चीजों को देखेगा।यही मत मतांतर है।हर व्यक्ति का जिस तरह शरीर अलग-अलग होता है उसी प्रकार मन की स्थिति भी अलग-अलग होती है।अतः बोध की एकता ही मन की एकता है अन्यथा बोध की एकता के अभाव में आपका बोध अपूर्ण होगा।मन एक पूर्ण इकाई है।किसी का मन न तो रिक्त होता है ना ही उसे रिक्त किया ही जा सकता है।अतः पूर्ण से पूर्ण को निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा।तो वह मन का जो दर(स्थान) है वह मन का मन्दिर है या वह दर जहां मन है वह मंदिर है या आप यूँ कह सकते है कि जिन-जिन समुच्चयों में मन है और मन का दर है वह मन्दिर है।इसलिए मन एक मंदिर है या शरीर एक मंदिर है जहां हमारा मन दर पाना चाहता है जहां मन स्थान पाना चाहता है वह मंदिर है या शरीर ही वह दर(स्थान)है जहां मन है।

आप सभी मित्रों का अभिवादन ।