दिनमान 89 वशिष्ठ नारायण सिंह
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का सस्वर शरीर नस्वरता को प्राप्त हो गया।अपने विद्यार्थी जीवन मे वे गणित विषय के विशेषज्ञता के लिये जाने गए।इससे पृथक जो गणित से हटकर जीवन था वह कुछ नही था।वह तो वह शरीर था जो उपयोगिता व ह्रास के नियम से आवद्ध है।उनके शारीरिक संगठन मे वह मष्तिष्क था जो गणित के अलावां कुछ नही था।उनको गंभीर मानसिक विमारी थी जो उनके मृत्यु तक साथ रही,उनकी असली मित्र भी वह बीमारी ही थी जो उनके जीवन में प्रसिद्ध गतितज्ञ होने के साथ तक रही।आज जब मैं लिख रहा हूँ तो सिर्फ उनकी विशेषता या उस गणीतिय प्रभाव से मुक्त नही हूँ कि वे प्रसिद्ध गणितज्ञ थे।मैं सिर्फ अपनी कलम इसलिए चला रहा हूँ कि वे गणितज्ञ थे,अगर मैं उनका पुत्र होता तो शायद उनको कोसता की क्या जरूरत थी ऐसी पढाई की जिसने जीवन को जीवन की तरह जीने ही न दिया?तो मेरा स्वयम का उत्तर भी यही होता कि यह उनका दुर्भाग्य था या जीवन का सौभाग्य की गहन विक्षिप्तता की अवस्था में भी उनके प्रशंसकों की कोई कमी नही है।यही तो जीवन है जो मरने के तत्काल बाद लोकमानस में जिंदा हो जाता है,इसीलिये वह जीवन जीत जाता है और मृत्यु हार जाती है।कहने वाले तो यहां तक कहते है कि जब तक आप मरेंगे नही तब तक आपको नर्क क्या स्वर्ग में भी जगह न मिलेगी?यह सही है कि मरना पड़ेगा तभी आपको या हमको नर्क या स्वर्ग मिलेगा।तो कब मरे ?इस सोच में बहुत लोग जिये जा रहे है।तो कुछ लोग मर-मर के जी रहे है?कि पता नही स्वर्ग व नर्क होता भी है या नही,चलो जी लेते है।जीने में भी हाच-पाच है कि मरे या जीये?मृत्यु क्या है?अगर व्यक्ति स्वस्थ है उसे शारीरक कष्ट नही है तो मृत्यु से साक्षात्कार करता हुआ मर जाता है,वह यह देखते हुए मर जाता है कि अब उसके स्वर के स्पंदनहींन हो रहे है और वह जब निस्पंद जब स्थगित हो जाता है फिर उस व्यक्ति की न कोई कल्पना होती है न कोई स्मृति होती है।वह निश्चेत होते-होते मर जाता है।निश्चेतना ही मृत्यु है।मृत्यु के बाद शनै: शनै: उसका शरीर नष्ट होना शुरू करता है।हमारी फिजियोलॉजी इस तरह की होती है अगर सक्रिय कोशिकाएं निष्क्रिय हुई तो वह सड़ने लगती है।अगर उसे उसी तरह छोड़ दिया जाय तो उसकी शारीरिक क्रिया के प्रतिक्रियाहीन होने की वह वजह है।जहां सूर्य की ऊष्मा उसे अवशोषित करती चलती है तो हवा उस ताप के अवशोषण को और हवा देती है।हाड़ मांस का शरीर क्रमशः गलना शुरू कर देता है व उसका सातत्य उसके शरीर को नष्ट कर देता है।फिर न उसकी कोई आकृति ही रहती है न उसकी सर्जना ही वह अतीत का वह भाग हो जाता है जैसे बीता हुआ कल हो।जैसे आपको याद है जब आप प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे तो आपका रूप रंग कैसा था?और आज कैसे है?तो क्या बदलती हुई शारीरिक अवस्था आपकी मृत्यु नही?यह बदलता चलता है और आपको पता भी नही चलता।इसकी प्रक्रिया इतनी धीमी-धीमी गति से होती है कि आप उससे अनजान ही जीवन को जी रहे होते है।वह जो आपका अतीत मरा है उसका अहसास है आपको है?नही।यही जीवन की तिलष्मी है कि जो आपको पता भी नही चलता और आप मर भी जाते है।यह जीवन के मृत्यु का पक्ष है तो जीवन का पक्ष वह यह है कि आप रोज-रोज जीये।जीते हुए मरें जैसे कुछ गांधी की तरह मर जायँ।उस तरह मरे कि लोंगो के लिए कुछ कर के मरे।मरना तो सबको है आज नही तो कल।तो हम रोज-रोज जी कर निर्भय होकर क्यो न मरे?भय में भी मरना है?निर्भय में भी मरना है?तो निश्चित कीजिये कैसे मरना है?जब आप किसी के सामने हाँथ फैलाते है मरने को तो आप उसी समय ही मर जाते है।जो आदमी जितना ही मरता है उतनी ही प्रचण्डता से वह जीता भी है।क्रिया -प्रतिक्रिया ही जीवन है।मृत्यु शरीर का स्थगन है।जितने ग्रन्थ लिखे गए है वह जीवन की जीवंतता से मृत्यु की भयावहता के बीच भोगी गयी त्रासदी में लिखे गए है।जीवन की जीवंतता लोकमंगल से जुड़ी है तो मृत्यु की भयावहता आस के अभाव से जुड़ी है।जीवन मे आस के दिये को जलाए रखिये रोज-रोज मरिये जिंदा रहने के लिए।यही जीवन है।इतने संवेदनशील न हो जाय कि आप और हम आत्महंता न हो जाएं।जैसे वशिष्ठ नारायण सिंह जिंदा रहे।बस्तुतः वे मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन उनके गणित ने उनको मार दिया था।यह जीवन उपयोगिता व ह्रास के नियम पर नही चलता यह जीवन जीवन की जीवंतता से चलता है जैसे महाराणा प्रताप का जीवन था,जोखिम में भी साहस रख्खे,लगातार जीयें उन असंख्य लोंगों को जो विरोधाभाषी जीवन की आवृत्ति में युक्त है युक्त से मुक्त ही जीवन है।ईश्वर और नियति और मानवता को यह देखना पड़ेगा कि जो वशिष्ठ नारायण सिंह थे वह नियति के मारे थे या मानवता के माननीयों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया।यही असली भारत का वह तथाकथित मानवता से भरा समाज है जो उपयोगी अत्यापयोगी अनुपुयोगी को योगी सिद्ध करती है।नही साध सकने में हमारे सामाज की विफलता ही वशिष्ठ नारायण सिंह को वह वशिष्ठ नारायण बनाता है।जिसकी कोई शिष्टता नही है यही जो नही है यही मृत्यु है नही तो जीवन आनंद ही आनंद ही है इस तरह एक गतितज्ञ आनंद को प्राप्त हो गया।यहाँ मृत्यु हार गई नियति भी उनका कुछ न विगाड़ सकी जीवन जीता वह मृत्यु वशिष्ठ नारायण सिंह से हार गई।नियति भी उनकी परीक्षा में अनुत्तीर्ण ही रही।उनकी अजर अमर आत्मा को प्रणाम
आप सभी का अभिवादन
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का सस्वर शरीर नस्वरता को प्राप्त हो गया।अपने विद्यार्थी जीवन मे वे गणित विषय के विशेषज्ञता के लिये जाने गए।इससे पृथक जो गणित से हटकर जीवन था वह कुछ नही था।वह तो वह शरीर था जो उपयोगिता व ह्रास के नियम से आवद्ध है।उनके शारीरिक संगठन मे वह मष्तिष्क था जो गणित के अलावां कुछ नही था।उनको गंभीर मानसिक विमारी थी जो उनके मृत्यु तक साथ रही,उनकी असली मित्र भी वह बीमारी ही थी जो उनके जीवन में प्रसिद्ध गतितज्ञ होने के साथ तक रही।आज जब मैं लिख रहा हूँ तो सिर्फ उनकी विशेषता या उस गणीतिय प्रभाव से मुक्त नही हूँ कि वे प्रसिद्ध गणितज्ञ थे।मैं सिर्फ अपनी कलम इसलिए चला रहा हूँ कि वे गणितज्ञ थे,अगर मैं उनका पुत्र होता तो शायद उनको कोसता की क्या जरूरत थी ऐसी पढाई की जिसने जीवन को जीवन की तरह जीने ही न दिया?तो मेरा स्वयम का उत्तर भी यही होता कि यह उनका दुर्भाग्य था या जीवन का सौभाग्य की गहन विक्षिप्तता की अवस्था में भी उनके प्रशंसकों की कोई कमी नही है।यही तो जीवन है जो मरने के तत्काल बाद लोकमानस में जिंदा हो जाता है,इसीलिये वह जीवन जीत जाता है और मृत्यु हार जाती है।कहने वाले तो यहां तक कहते है कि जब तक आप मरेंगे नही तब तक आपको नर्क क्या स्वर्ग में भी जगह न मिलेगी?यह सही है कि मरना पड़ेगा तभी आपको या हमको नर्क या स्वर्ग मिलेगा।तो कब मरे ?इस सोच में बहुत लोग जिये जा रहे है।तो कुछ लोग मर-मर के जी रहे है?कि पता नही स्वर्ग व नर्क होता भी है या नही,चलो जी लेते है।जीने में भी हाच-पाच है कि मरे या जीये?मृत्यु क्या है?अगर व्यक्ति स्वस्थ है उसे शारीरक कष्ट नही है तो मृत्यु से साक्षात्कार करता हुआ मर जाता है,वह यह देखते हुए मर जाता है कि अब उसके स्वर के स्पंदनहींन हो रहे है और वह जब निस्पंद जब स्थगित हो जाता है फिर उस व्यक्ति की न कोई कल्पना होती है न कोई स्मृति होती है।वह निश्चेत होते-होते मर जाता है।निश्चेतना ही मृत्यु है।मृत्यु के बाद शनै: शनै: उसका शरीर नष्ट होना शुरू करता है।हमारी फिजियोलॉजी इस तरह की होती है अगर सक्रिय कोशिकाएं निष्क्रिय हुई तो वह सड़ने लगती है।अगर उसे उसी तरह छोड़ दिया जाय तो उसकी शारीरिक क्रिया के प्रतिक्रियाहीन होने की वह वजह है।जहां सूर्य की ऊष्मा उसे अवशोषित करती चलती है तो हवा उस ताप के अवशोषण को और हवा देती है।हाड़ मांस का शरीर क्रमशः गलना शुरू कर देता है व उसका सातत्य उसके शरीर को नष्ट कर देता है।फिर न उसकी कोई आकृति ही रहती है न उसकी सर्जना ही वह अतीत का वह भाग हो जाता है जैसे बीता हुआ कल हो।जैसे आपको याद है जब आप प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे तो आपका रूप रंग कैसा था?और आज कैसे है?तो क्या बदलती हुई शारीरिक अवस्था आपकी मृत्यु नही?यह बदलता चलता है और आपको पता भी नही चलता।इसकी प्रक्रिया इतनी धीमी-धीमी गति से होती है कि आप उससे अनजान ही जीवन को जी रहे होते है।वह जो आपका अतीत मरा है उसका अहसास है आपको है?नही।यही जीवन की तिलष्मी है कि जो आपको पता भी नही चलता और आप मर भी जाते है।यह जीवन के मृत्यु का पक्ष है तो जीवन का पक्ष वह यह है कि आप रोज-रोज जीये।जीते हुए मरें जैसे कुछ गांधी की तरह मर जायँ।उस तरह मरे कि लोंगो के लिए कुछ कर के मरे।मरना तो सबको है आज नही तो कल।तो हम रोज-रोज जी कर निर्भय होकर क्यो न मरे?भय में भी मरना है?निर्भय में भी मरना है?तो निश्चित कीजिये कैसे मरना है?जब आप किसी के सामने हाँथ फैलाते है मरने को तो आप उसी समय ही मर जाते है।जो आदमी जितना ही मरता है उतनी ही प्रचण्डता से वह जीता भी है।क्रिया -प्रतिक्रिया ही जीवन है।मृत्यु शरीर का स्थगन है।जितने ग्रन्थ लिखे गए है वह जीवन की जीवंतता से मृत्यु की भयावहता के बीच भोगी गयी त्रासदी में लिखे गए है।जीवन की जीवंतता लोकमंगल से जुड़ी है तो मृत्यु की भयावहता आस के अभाव से जुड़ी है।जीवन मे आस के दिये को जलाए रखिये रोज-रोज मरिये जिंदा रहने के लिए।यही जीवन है।इतने संवेदनशील न हो जाय कि आप और हम आत्महंता न हो जाएं।जैसे वशिष्ठ नारायण सिंह जिंदा रहे।बस्तुतः वे मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन उनके गणित ने उनको मार दिया था।यह जीवन उपयोगिता व ह्रास के नियम पर नही चलता यह जीवन जीवन की जीवंतता से चलता है जैसे महाराणा प्रताप का जीवन था,जोखिम में भी साहस रख्खे,लगातार जीयें उन असंख्य लोंगों को जो विरोधाभाषी जीवन की आवृत्ति में युक्त है युक्त से मुक्त ही जीवन है।ईश्वर और नियति और मानवता को यह देखना पड़ेगा कि जो वशिष्ठ नारायण सिंह थे वह नियति के मारे थे या मानवता के माननीयों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया।यही असली भारत का वह तथाकथित मानवता से भरा समाज है जो उपयोगी अत्यापयोगी अनुपुयोगी को योगी सिद्ध करती है।नही साध सकने में हमारे सामाज की विफलता ही वशिष्ठ नारायण सिंह को वह वशिष्ठ नारायण बनाता है।जिसकी कोई शिष्टता नही है यही जो नही है यही मृत्यु है नही तो जीवन आनंद ही आनंद ही है इस तरह एक गतितज्ञ आनंद को प्राप्त हो गया।यहाँ मृत्यु हार गई नियति भी उनका कुछ न विगाड़ सकी जीवन जीता वह मृत्यु वशिष्ठ नारायण सिंह से हार गई।नियति भी उनकी परीक्षा में अनुत्तीर्ण ही रही।उनकी अजर अमर आत्मा को प्रणाम
आप सभी का अभिवादन
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