Saturday, July 27, 2019

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

मैं अपने पिताजी के घुटने के बराबर ही था पर उनके जैसा बनने,बड़ा हो जाना चाहता था अब मेरे चाहने से पूरी पृथ्वी अपनी कक्षा में पचास वर्ष एक ही बार मे घूम तो नही जाती पर मैं चाहता था कि वह घूम जाय और मैं पिताजी जैसा बन जाऊं,पर ऐसा होता कहाँ है ? से अनिभिज्ञ अपने बड़े होने की प्रतीक्षा करता रहता,अन्य भाई बहन जिनके हाथ पैर लंबे होते जाहिर है उनका कपड़ा भी बड़ा होता था । सबके सब आदेश की मुद्रा में मुझे अनुशासन का पाठ पढ़ाते बड़े हो रहे थे और मैं आज्ञापालक की भूमिका में विनम्र रहता क्योंकि थप्पड़ से चोट बहुत तेज लगती यह बात अलग है कि जब मैं फुक्कारे मार जोर - जोर से रोता मेरी बड़ी बहन जिसने एकाध तप्पड़ रसीद किया होता था वे गुड़ भी खिलाती थी जिसको माँ न जाने कहाँ - कहां रखती थी । उसका डिब्बा कभी खाली नही रहता था,मुझे उस डिब्बे की ज्यों ही महक लगती उसका कुछ गुड़ उदरस्थ हो गया रहता सो स्थान बदलती रहती मैं अपना मन बदलता रहता वह छिपाती और मैं खोजता रहता कभी कभी मुझे लगता था कि वह छिपाती ही इसीलिए थी मैं खोज लूँ । लुका छिपी के इस खेल मैं लगभग पारंगत था,इस विशिष्ट कौशल का विकास उसकी सदाशयता ही थी दांत पिसती,डांटती वह कब बूढ़ी हो गयी और मैं युवा इसका पता ही न चला,पर उसकी हनक के हुंकार से मैं आजीवन सहमा रहा कभी हिम्मत न पड़ी की उसके सामने तेज से कुछ बोल पाऊं । उसके स्वर की कडुआहट में उतना ही गुड़ रहता था जितना कि उसके प्यार में,जिसको मैं कभी उसकी गोद मे बैठ उसके दूध पीने के लिए नाटक करता, यह नाटक इसलिए भी करता क्योंकि उसकी गोद मे जब भी मैं होता आँचल से मेरा सिर ढ़ंक कर दूध पिलाती और मेरे सर को सहलाये जाती अपने जन्धे को बार बार फैलाती की मैं उसमे समा जाऊं और मैं जगह घेरता जाता आकार के अनुरूप उसकी गोद में भर जाता था यह सिलसिला कभी पाँच मिनट का होता या मैं छोड़ता ही न था । कंठ में जो भी बूंद गए उसने इस शरीर मे इतना बड़ा घर बनाया की मैं आज तक निवृत्त न हो पाया । ऐसा नही है कि मैं निवृत्त होना चाहता हूं क्योंकि उसकी स्मृतियों से निवृत्त होना मेरे अस्तित्व से निवृत्ति है अतः वह मुझमे है और मैं उसमे हूँ । अब पिता जी !! मेरे पिताजी की कद काठी सामान्य थी उनके साथ जानवरों को चारा ले आने जाते समय मैं उनके कदमों को देखता जूते की तलवे की छाप वरसात के दिनों में स्पस्ट दिखयी पड़ जाता था उनके जूते के तलवे की लकीरों से मुझे वे इस पृथ्वी के सम्राट से कम न थे और मैं  स्वयम्भू राजकुमार । वे अक्सर राजनीतिक धार्मिक दार्शनिक व्यख्या किया करते थे जबकि वे अपने जीवन मे कम पढ़ने को लेकर मर्माहत भी रहते थे । शायद यह मर्म ही रहा होगा कि वे महाराज दशरथ न बन पाए न ही मैं राम,लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न्, वे जुलाई 1924 में पैदा  हुए थे,स्वतंत्रता संघर्ष भी देखा था,वे घोषित स्वतंत्रता सेनानी तो नही थे लेकिन इस मातृभूमि के सच्चे भक्त थे,इस देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण मैं बना तमाम प्रकार की संपत्तियों से बंचित उत्तराधिकारी के रूप में मुझे वैसुधैव कुटुम्बकम ही मिला और अब तक मैं उनकी इस धरोहर को सुरक्षित रखा हूँ ।
क्रमशः 

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