Thursday, December 1, 2011

सत्य

सत्य
  सत्य को संधान कर
  बीनता सत्य जीवन का
पग -पग पर यथार्थ के सत्य से संस्पर्शर्ण
     आकर्षण विकर्षण
  संधान क्रिया में अंधत्व की तरफ अग्रसर हू 
      मै प्रकाश की तलाश में
      अंधत्व से युद्ध के लिए तैयार
              शंखनाद
    अभी सीप से ही शंख हुआ हूँ
     उसमे हवा स्वर के लिए ठडा हूँ
   समुद्र के लहरों के विरुद्ध
   अपने सीपे में जीवन से युद्ध
   अनंत है समुद्र
  उसकी गहराई भी मेरी सीपे में मापी जा सकती है
  मैंने भी उसके पानी को उफान से पनाह दी है
   बार-बार वह क्रुद्ध हो मेरे अन्दर आता है
   अपना खारा पानी दे जाता है
   और मै इस सत्य को
  शंकर की तरह पी  जाता हूँ

10 comments:

  1. अतिशय सुन्दर भाव रवि जी

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  2. इस जीवन में खुद से शंकर बनना ही बहुत बडी बात है

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  3. अति सारगर्भित रचना।

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  4. सशक्त भाषा और भावगर्भित गहरी रचना ....बहुत सुंदर

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  5. और मै इस सत्य को
    शंकर की तरह पी जाता हूँ..bilkul sahi bat peena hi padta hai ...

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  6. ये दुर्भाग्य है इस दौर का की सत्य को पीना पढता है विश की तरह ...
    जबकि शाश्वत कवल सत्य ही है ...
    प्रभावी लेखन ...

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  7. बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...

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  8. गहन अभिव्यक्ति...

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