परिधि शब्द की अर्थवत्ता के देखते हुए
स्वयम को गोलाकार करते हुए
परीधि में घूमता रहा
मै कुछ नहीं कर रहा था
सब कुछ स्वयं हो रहा था
मेरे व्यक्तित्व की बटन कीसी दुसरे के हाथ थी
मेरे जीवन की उलटी गिनती शुरू हुयी
शून्य तक पहुतचते-पहुचते
शून्य में विलीन हुयी
नियंत्रण कक्ष से आवाज आई
अब तुम्हे बाहें उठाना है
दायें चलना है
वाएं चलना है तुम्हे वह सब कुछ देखना है ?
जो तुम नहीं देख सकते ?
या देखना नहीं चाहते
पर क्या करते
देखना था ?
निर्देशन था
देखा वाही आग
वाही आत्मा
वही व्यक्ति
जिसकी सत्ता
दूसरों के द्वारा संचालित थी !!
देखा था मैंने भूख से उत्तप्त आग
देखा है मैंने आँतों का देत्याकार रूप
जो मुह बाये खड़ी थी खाने को
आतुर
व्यक्ति को
उसके अस्तित्व को !!
समायोजन की प्रक्रिया
जैसे यह जीवन का आयोजन हो
विचारों के कनात पर खड़े हुए
ताने हुए
कभी झुके कभी रुके
फिर तनें
तनते चले गए
पतंग की तरह
जहाँ हवाओं का साम्राज्य था
प्रतिकुलन अनुकूलन की डोर के
खीचते हुए
झुकते हुए
डोर का हर ताना -बना खीच जाता है
स्वयम से त्रस्त
तरसता है
स्वयम को गोलाकार करते हुए
परीधि में घूमता रहा
मै कुछ नहीं कर रहा था
सब कुछ स्वयं हो रहा था
मेरे व्यक्तित्व की बटन कीसी दुसरे के हाथ थी
मेरे जीवन की उलटी गिनती शुरू हुयी
शून्य तक पहुतचते-पहुचते
शून्य में विलीन हुयी
नियंत्रण कक्ष से आवाज आई
अब तुम्हे बाहें उठाना है
दायें चलना है
वाएं चलना है तुम्हे वह सब कुछ देखना है ?
जो तुम नहीं देख सकते ?
या देखना नहीं चाहते
पर क्या करते
देखना था ?
निर्देशन था
देखा वाही आग
वाही आत्मा
वही व्यक्ति
जिसकी सत्ता
दूसरों के द्वारा संचालित थी !!
देखा था मैंने भूख से उत्तप्त आग
देखा है मैंने आँतों का देत्याकार रूप
जो मुह बाये खड़ी थी खाने को
आतुर
व्यक्ति को
उसके अस्तित्व को !!
समायोजन की प्रक्रिया
जैसे यह जीवन का आयोजन हो
विचारों के कनात पर खड़े हुए
ताने हुए
कभी झुके कभी रुके
फिर तनें
तनते चले गए
पतंग की तरह
जहाँ हवाओं का साम्राज्य था
प्रतिकुलन अनुकूलन की डोर के
खीचते हुए
झुकते हुए
डोर का हर ताना -बना खीच जाता है
स्वयम से त्रस्त
तरसता है
behtreen shabd sanyojan khoobsurat bhaav se paripoorn prastuti.
ReplyDeleteरवि शंकर जी,
ReplyDeleteअपने अनुभवों से उत्पन्न मनोभावों को बहुत सहज सुन्दर रूप से प्रस्तुत करने के लिए बधाइयाँ ..
समायोजन की प्रक्रिया
ReplyDeleteजैसे यह जीवन का आयोजन हो
विचारों के कनात पर खड़े हुए
ताने हुए
कभी झुके कभी रुके
फिर तनें
तनते चले गए
पतंग की तरह
वाह ....एक सच्ची कविता है ये !!! बधाई रवि साहब !!
वाह ...खूबसूरत भाव
ReplyDeleteBahut sundar bhavabhivyakti.behtreen prastuti..utkrisht rachna ke liye bahut bahut badhayi..
ReplyDeleteBahut sundar bhavabhivyakti.behtreen prastuti..utkrisht rachna ke liye bahut bahut badhayi..
ReplyDeleteBahut sundar bhavabhivyakti..
ReplyDeleteBehtreen prastuti..
Utkrisht rachna ka liye bahut bahut badhayi