Thursday, December 1, 2011

माँ

माँ
मेरी माँ के सफेद बालों में
कुछ काले भी हैं
जो अब सफेद होने को आतुर हैं
अब उसकी मांशपेशियां झूल रही हैं
माथे पर अनुभवों की लकीरें
क्रमश उतर कर गालों
एवं हाथों तक आ गयी है
लकीरें कुछ समय पूर्व यात्रा कर थकी हैं
अभी भी आतुर है कुछ करने को
उसका निजी सामान सार्वजनिक सा है
मेरी माँ सार्वजनिक सार्वजनीन है
उसका सूप पर दानों को फटकना
चावल से खुद्दी का निकालना
सूप पर थाप दिए गाती है
राग भैरवी
चिड़ियों की चह छाह्त एवं उसका हंसना पृथक नही
उसकी फूली हुयी आँखों में सृष्टि समाया है
उसकी कानों ने सृर्फ़ गीत गुनगुनाया है
उसमें मैंने भी नहाया है
उसने मुझे बज्र भी सह लेने की ताकत दी है
सूप की थाप पर
मूसर की घन पर
दिखाया है पसीना
आंचल से पोंछती हुयी सिखाया है
मुझे कूट कूट कर बताया है
कभी न रोना
कभी न रोना

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