मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है एसा किताबों में पढ़ा था!वह जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के बीच वह सामाजिक अंतक्रिया और उसके ज्ञात- अज्ञात परिणामों से भी वह बच भी नहीं सकता,मत मतान्तरों के बीच स्वयम की स्थापना में,अंतहक्रियाओं से उपजा दृष्टिकोण वैविध्य में सम्यक सोच,सम्यक ज्ञान से स्वयम को आधार देता है,और उसकी भित्ति पर आवाहन करता हुआ दीखता है,जीवन का यह सातत्य निरंतर चलायमान है,बह वाद-प्रतिबाद=संवाद की प्रक्रिया,और उससे उपजे निष्कर्षों पर पूर्वाग्रह से वैचारिक स्वातन्त्र्य की यात्रा, और मंथन से जो चित्र उभरता है वह करीब -करीब पूर्वाग्रह से व्यक्ति स्वतंत्र्य की यात्रा है!और यही से स्थापना का क्रम दिखना शुरू होता हुआ दीखता है जिसे पूर्वाग्रह की मुक्ति भी कह सकते है!आवश्यकता है ऐसी स्थापना को आकर देने की और इस सातत्य प्रवाह को कायम करने की..........................
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