अक्षर , क ,से ज्ञ ,तक
व्यक्ति की यात्रा भी यही तक
अक्षर के जाल
केचुवे की चाल से तब्दील होता हुआ
सर्प केंचुल को छोड़ता हुआ
आक्रामक है यथार्थ
तड़प ,कसक, अवसाद
चखता अर्थहीनता का स्वाद
एक निश्चित से शब्द ,जो व्यक्ति को आदर्श की परिधि में रखता
जिससे व्यक्तिव बनता
पुन: अपने केंचुल में आता
फिर छोड़ता ,फिर निकलता
करता प्रहार
जैसे उसका जन्म ही प्रहार के लिए हुआ हो
और व्यक्ति सह रहा हो
आदर्शों की खायी जिसमे व्यक्ति धसा जा रहा
निकलने को मजबूर फंसा जा रहा
दुखित होता ,प्रताणित करता ,स्वयं को
करता प्रलाप
साहब मैंने ही खायी खोदी है
इसकी मिट्टी सोंधी है
मै मजबूर हूँ इसकी महक के लिए
शायद मेरा स्वार्थ ,आत्म तुष्टि का
भावना द्वारा अभिव्यक्त परमार्थ
इन दोनों के बीच की कसमकश
करती वेवश अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता ?
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता ?
जनता हूँ रहस्य को
जनता हूँ जीवन को
फिर भी लाचार हूँ
मेरी भवनाएँ मेरी पीछा नहीं छोडती
वेचैन सी आत्मा तडपती ,कराहती ,
फिर शून्य में ही तो समष्टि है
समष्टि ही तो सत्य है
सत्य ही तो जीवन है
जीवन ही तो प्रवाह है
प्रवाह जिसने आकर दिया शिलाओं को
प्रवाह ही पुरुष है
और शिलाएँ ही संतति
Bahut Hi Badiyaan Sir...!!!
ReplyDelete"मेरी भवनाएँ मेरी पीछा नहीं छोडती
ReplyDeleteवेचैन सी आत्मा तडपती ,कराहती ,
फिर शून्य में ही तो समष्टि है
समष्टि ही तो सत्य है
सत्य ही तो जीवन है
जीवन ही तो प्रवाह है"
सुन्दर लयबद्ध आत्मीय अभिव्यक्ति ..
सादर ..
nice thought.
ReplyDeleteसुंदर रचना है sir.....
ReplyDeleteLoved the flow of this post a lot......
सुंदर रचना............................
ReplyDeleteપાંડેય જી બહુત સુંદર રચના દિલ પ્રસન્ન હો ગયા
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