व्यक्तिवादी युग की अवधारणा में सामाजिक और नागरिक चिंतन के प्रति स्वयम को उपस्थित करना स्वयम के साथ जद्दोजहद है! फिर भी सामाजिक इकाई के रूप में हम जाने -अनजाने योगदान करते है, जिसकी अभिव्यक्ति ही वर्तामानिक सामाजिक ठांचा है!जहाँ हमारी अपनी सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आत्म मुग्धता है तो सनातन के प्रति विस्तृत अनुशाशन भाव और क्रमश:आत्म स्वीकारोक्ति भी! यह इसीलिए है की एक इकाई के रूप में व्यक्ति के योगदान ने तत्कालीन समय में सम्पूर्ण रूप से एक संस्कृति को जन्म दिया!जिसके निरंतर पवाह ने हम सबको अभिसिंचित किया है !हम सब उसी के अंश है, आईये एक इकाई के रूप में हम सब संस्कृति की संसृत बन पुन इस तपोभूमि में स्वयम को तपायें और व्यक्तिगत स्तर पर हो सके तो लोंगों का मार्ग दर्शन करें और संस्कृति की त्वरा को प्रवाहमान,गति दे .................
Thursday, December 29, 2011
काल चिंतन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है एसा किताबों में पढ़ा था!वह जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के बीच वह सामाजिक अंतक्रिया और उसके ज्ञात- अज्ञात परिणामों से भी वह बच भी नहीं सकता,मत मतान्तरों के बीच स्वयम की स्थापना में,अंतहक्रियाओं से उपजा दृष्टिकोण वैविध्य में सम्यक सोच,सम्यक ज्ञान से स्वयम को आधार देता है,और उसकी भित्ति पर आवाहन करता हुआ दीखता है,जीवन का यह सातत्य निरंतर चलायमान है,बह वाद-प्रतिबाद=संवाद की प्रक्रिया,और उससे उपजे निष्कर्षों पर पूर्वाग्रह से वैचारिक स्वातन्त्र्य की यात्रा, और मंथन से जो चित्र उभरता है वह करीब -करीब पूर्वाग्रह से व्यक्ति स्वतंत्र्य की यात्रा है!और यही से स्थापना का क्रम दिखना शुरू होता हुआ दीखता है जिसे पूर्वाग्रह की मुक्ति भी कह सकते है!आवश्यकता है ऐसी स्थापना को आकर देने की और इस सातत्य प्रवाह को कायम करने की..........................
Wednesday, December 28, 2011
समसामयिक राजनितिक परिदृश्य में सिर्फ आत्म अनुशासन और नैतिक प्रवित्तियो को विकसित कर हम समस्त भारत के उज्जवल भविष्य के का निर्माण कर सकते है ! इसके लिए हम सब को आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया अपनानी होगी ! विशिष्ट और आम के बीच एक सेतु के रूप में उभरना होगा,समता आपसी भाईचारा और हमारी अतीत की गौरवशाली परम्परा को पुन:कायम करना होगा !टूटते हुए संयुक्त परिवार की अवधारणा को पुन: प्रतिस्थापित करना होगा जहाँ से हमारे व्यक्तित्व का विकाश होता था ? आतीत के क्षरित होती संस्थाओं को पुनर्जीवित करना होगा !सरकार के कार्यक्रम और नीतियों आत्मनिर्भर ग्रामसमुदाय को प्राथमिकता देनी होगी !
Thursday, December 15, 2011
शब्द
अक्षर , क ,से ज्ञ ,तक
व्यक्ति की यात्रा भी यही तक
अक्षर के जाल
केचुवे की चाल से तब्दील होता हुआ
सर्प केंचुल को छोड़ता हुआ
आक्रामक है यथार्थ
तड़प ,कसक, अवसाद
चखता अर्थहीनता का स्वाद
एक निश्चित से शब्द ,जो व्यक्ति को आदर्श की परिधि में रखता
जिससे व्यक्तिव बनता
पुन: अपने केंचुल में आता
फिर छोड़ता ,फिर निकलता
करता प्रहार
जैसे उसका जन्म ही प्रहार के लिए हुआ हो
और व्यक्ति सह रहा हो
आदर्शों की खायी जिसमे व्यक्ति धसा जा रहा
निकलने को मजबूर फंसा जा रहा
दुखित होता ,प्रताणित करता ,स्वयं को
करता प्रलाप
साहब मैंने ही खायी खोदी है
इसकी मिट्टी सोंधी है
मै मजबूर हूँ इसकी महक के लिए
शायद मेरा स्वार्थ ,आत्म तुष्टि का
भावना द्वारा अभिव्यक्त परमार्थ
इन दोनों के बीच की कसमकश
करती वेवश अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता ?
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता ?
जनता हूँ रहस्य को
जनता हूँ जीवन को
फिर भी लाचार हूँ
मेरी भवनाएँ मेरी पीछा नहीं छोडती
वेचैन सी आत्मा तडपती ,कराहती ,
फिर शून्य में ही तो समष्टि है
समष्टि ही तो सत्य है
सत्य ही तो जीवन है
जीवन ही तो प्रवाह है
प्रवाह जिसने आकर दिया शिलाओं को
प्रवाह ही पुरुष है
और शिलाएँ ही संतति
Friday, December 2, 2011
परिधि
परिधि शब्द की अर्थवत्ता के देखते हुए
स्वयम को गोलाकार करते हुए
परीधि में घूमता रहा
मै कुछ नहीं कर रहा था
सब कुछ स्वयं हो रहा था
मेरे व्यक्तित्व की बटन कीसी दुसरे के हाथ थी
मेरे जीवन की उलटी गिनती शुरू हुयी
शून्य तक पहुतचते-पहुचते
शून्य में विलीन हुयी
नियंत्रण कक्ष से आवाज आई
अब तुम्हे बाहें उठाना है
दायें चलना है
वाएं चलना है तुम्हे वह सब कुछ देखना है ?
जो तुम नहीं देख सकते ?
या देखना नहीं चाहते
पर क्या करते
देखना था ?
निर्देशन था
देखा वाही आग
वाही आत्मा
वही व्यक्ति
जिसकी सत्ता
दूसरों के द्वारा संचालित थी !!
देखा था मैंने भूख से उत्तप्त आग
देखा है मैंने आँतों का देत्याकार रूप
जो मुह बाये खड़ी थी खाने को
आतुर
व्यक्ति को
उसके अस्तित्व को !!
समायोजन की प्रक्रिया
जैसे यह जीवन का आयोजन हो
विचारों के कनात पर खड़े हुए
ताने हुए
कभी झुके कभी रुके
फिर तनें
तनते चले गए
पतंग की तरह
जहाँ हवाओं का साम्राज्य था
प्रतिकुलन अनुकूलन की डोर के
खीचते हुए
झुकते हुए
डोर का हर ताना -बना खीच जाता है
स्वयम से त्रस्त
तरसता है
स्वयम को गोलाकार करते हुए
परीधि में घूमता रहा
मै कुछ नहीं कर रहा था
सब कुछ स्वयं हो रहा था
मेरे व्यक्तित्व की बटन कीसी दुसरे के हाथ थी
मेरे जीवन की उलटी गिनती शुरू हुयी
शून्य तक पहुतचते-पहुचते
शून्य में विलीन हुयी
नियंत्रण कक्ष से आवाज आई
अब तुम्हे बाहें उठाना है
दायें चलना है
वाएं चलना है तुम्हे वह सब कुछ देखना है ?
जो तुम नहीं देख सकते ?
या देखना नहीं चाहते
पर क्या करते
देखना था ?
निर्देशन था
देखा वाही आग
वाही आत्मा
वही व्यक्ति
जिसकी सत्ता
दूसरों के द्वारा संचालित थी !!
देखा था मैंने भूख से उत्तप्त आग
देखा है मैंने आँतों का देत्याकार रूप
जो मुह बाये खड़ी थी खाने को
आतुर
व्यक्ति को
उसके अस्तित्व को !!
समायोजन की प्रक्रिया
जैसे यह जीवन का आयोजन हो
विचारों के कनात पर खड़े हुए
ताने हुए
कभी झुके कभी रुके
फिर तनें
तनते चले गए
पतंग की तरह
जहाँ हवाओं का साम्राज्य था
प्रतिकुलन अनुकूलन की डोर के
खीचते हुए
झुकते हुए
डोर का हर ताना -बना खीच जाता है
स्वयम से त्रस्त
तरसता है
मीमांशा
समाज ,सभ्यता ,राजनिति
विज्ञान ,धर्म और समष्टि
राजनिति ,कूटनीति ,हितोपदेश ,
प्रकृति पुरुष में विभेद
मीमांशा
आकांक्षा उपलब्द्धियो के आंकड़ें
व्यक्ति के समाज के ,
सभ्यता के प्रस्थान से शीर्ष तक
स्वर आरोह अवरोह
वर्तमान के आईने में
यथार्थ जीवन अतीत के परिधान में लिपटी दुल्हन
वर्तमान की स्रष्टा
सर्जक
अंतहीन
उर्जा स्त्रोत की जनक
अखंड अजन्मा
जीवन
वह गया , यह आया
यही जीवन
विज्ञान ,धर्म और समष्टि
राजनिति ,कूटनीति ,हितोपदेश ,
प्रकृति पुरुष में विभेद
मीमांशा
आकांक्षा उपलब्द्धियो के आंकड़ें
व्यक्ति के समाज के ,
सभ्यता के प्रस्थान से शीर्ष तक
स्वर आरोह अवरोह
वर्तमान के आईने में
यथार्थ जीवन अतीत के परिधान में लिपटी दुल्हन
वर्तमान की स्रष्टा
सर्जक
अंतहीन
उर्जा स्त्रोत की जनक
अखंड अजन्मा
जीवन
वह गया , यह आया
यही जीवन
साक्षात्कार
विचरों का गहन अँधेरा
बुद्धिबाद का अंत
सत्य अपना अर्थ खोजता
तिलष्मी का खोह
व्यक्ति का व्यामोह
अनुत्तरित प्रश्न
जो समय के लबादे में खो गया है !!
बुद्धिबाद का अंत
सत्य अपना अर्थ खोजता
तिलष्मी का खोह
व्यक्ति का व्यामोह
अनुत्तरित प्रश्न
जो समय के लबादे में खो गया है !!
Thursday, December 1, 2011
सत्य
सत्य
सत्य को संधान कर
बीनता सत्य जीवन का
पग -पग पर यथार्थ के सत्य से संस्पर्शर्ण
आकर्षण विकर्षण
संधान क्रिया में अंधत्व की तरफ अग्रसर हू
मै प्रकाश की तलाश में
अंधत्व से युद्ध के लिए तैयार
शंखनाद
अभी सीप से ही शंख हुआ हूँ
उसमे हवा स्वर के लिए ठडा हूँ
समुद्र के लहरों के विरुद्ध
अपने सीपे में जीवन से युद्ध
अनंत है समुद्र
उसकी गहराई भी मेरी सीपे में मापी जा सकती है
मैंने भी उसके पानी को उफान से पनाह दी है
बार-बार वह क्रुद्ध हो मेरे अन्दर आता है
अपना खारा पानी दे जाता है
और मै इस सत्य को
शंकर की तरह पी जाता हूँ
सत्य को संधान कर
बीनता सत्य जीवन का
पग -पग पर यथार्थ के सत्य से संस्पर्शर्ण
आकर्षण विकर्षण
संधान क्रिया में अंधत्व की तरफ अग्रसर हू
मै प्रकाश की तलाश में
अंधत्व से युद्ध के लिए तैयार
शंखनाद
अभी सीप से ही शंख हुआ हूँ
उसमे हवा स्वर के लिए ठडा हूँ
समुद्र के लहरों के विरुद्ध
अपने सीपे में जीवन से युद्ध
अनंत है समुद्र
उसकी गहराई भी मेरी सीपे में मापी जा सकती है
मैंने भी उसके पानी को उफान से पनाह दी है
बार-बार वह क्रुद्ध हो मेरे अन्दर आता है
अपना खारा पानी दे जाता है
और मै इस सत्य को
शंकर की तरह पी जाता हूँ
नैतिक --------
मेरी अपनी व्यक्तिगत राय में .......केवल नैतिक मूल्यों से ही
पाशविक प्रब्रितियो पर नियंत्रण पाया जा सकता है ,आंतरिक अनुशासन से ही हम
समाज में अपना अस्तिव अक्षुण रख पा रहे है, अगर ऐसा न होता तो पाषाण युग से आज
तक की यात्रा,या यूँ कहे की होमोसेम्पियेस से चेतना स्तर को हमने विकसित किया
या प्रकृति के द्वारा हो गया कह नहीं सकता ! सब कुछ मानवीय अनुशासन से और
मानवीयता से निसृत है और यह सब हमारे अंदर संवेदनशीलता से आती है, और संवेदना
का विकास हमरे प्रबत्तियों से, और प्रबत्तियां हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से, और
सांस्क्रतिक मूल्य धर्म से ,और धर्म हमरी पद्यतियों से जीवन शौली से! रही कानून
व्यवस्था की बात, तो वो इसी अन्तर्द्वन्द की उपज है !व्यक्ति की पशुता को कानून
से नही दूर किया जा सकता ! एतिहासिक सांस्क्रतिक पृष्ठिभूमि का बिहंगम अवलोकन
आवश्यक है !कानून व्यक्ति के लिए होता है पशु के लिए नहीं, अगर व्यक्ति में
पशुता है तो देवत्व भी है! अभी कितने साल हुए गाँधी जी को हमसे अलग हुए जितने
भी महापुरुष हुए है, वे ऐसा सिर्फ अपनी प्रबल घनीभूत संवेदनशीलता एवं द्रष्टिकोण
व्यापकता की वजह से ही है .....................सादर
पाशविक प्रब्रितियो पर नियंत्रण पाया जा सकता है ,आंतरिक अनुशासन से ही हम
समाज में अपना अस्तिव अक्षुण रख पा रहे है, अगर ऐसा न होता तो पाषाण युग से आज
तक की यात्रा,या यूँ कहे की होमोसेम्पियेस से चेतना स्तर को हमने विकसित किया
या प्रकृति के द्वारा हो गया कह नहीं सकता ! सब कुछ मानवीय अनुशासन से और
मानवीयता से निसृत है और यह सब हमारे अंदर संवेदनशीलता से आती है, और संवेदना
का विकास हमरे प्रबत्तियों से, और प्रबत्तियां हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से, और
सांस्क्रतिक मूल्य धर्म से ,और धर्म हमरी पद्यतियों से जीवन शौली से! रही कानून
व्यवस्था की बात, तो वो इसी अन्तर्द्वन्द की उपज है !व्यक्ति की पशुता को कानून
से नही दूर किया जा सकता ! एतिहासिक सांस्क्रतिक पृष्ठिभूमि का बिहंगम अवलोकन
आवश्यक है !कानून व्यक्ति के लिए होता है पशु के लिए नहीं, अगर व्यक्ति में
पशुता है तो देवत्व भी है! अभी कितने साल हुए गाँधी जी को हमसे अलग हुए जितने
भी महापुरुष हुए है, वे ऐसा सिर्फ अपनी प्रबल घनीभूत संवेदनशीलता एवं द्रष्टिकोण
व्यापकता की वजह से ही है .....................सादर
माँ
माँ
मेरी माँ के सफेद बालों में
कुछ काले भी हैं
जो अब सफेद होने को आतुर हैं
अब उसकी मांशपेशियां झूल रही हैं माथे पर अनुभवों की लकीरें
क्रमश उतर कर गालों
एवं हाथों तक आ गयी है
लकीरें कुछ समय पूर्व यात्रा कर थकी हैं
अभी भी आतुर है कुछ करने को
उसका निजी सामान सार्वजनिक सा है
मेरी माँ सार्वजनिक सार्वजनीन है
उसका सूप पर दानों को फटकना
चावल से खुद्दी का निकालना
सूप पर थाप दिए गाती है
राग भैरवी
चिड़ियों की चह छाह्त एवं उसका हंसना पृथक नही
उसकी फूली हुयी आँखों में सृष्टि समाया है
उसकी कानों ने सृर्फ़ गीत गुनगुनाया है
उसमें मैंने भी नहाया है
उसने मुझे बज्र भी सह लेने की ताकत दी है
सूप की थाप पर
मूसर की घन पर
दिखाया है पसीना
आंचल से पोंछती हुयी सिखाया है
मुझे कूट कूट कर बताया है
कभी न रोना ,कभी न रोना
माँ
माँ
मेरी माँ के सफेद बालों में
कुछ काले भी हैं
जो अब सफेद होने को आतुर हैं
अब उसकी मांशपेशियां झूल रही हैं माथे पर अनुभवों की लकीरें
क्रमश उतर कर गालों
एवं हाथों तक आ गयी है
लकीरें कुछ समय पूर्व यात्रा कर थकी हैं
अभी भी आतुर है कुछ करने को
उसका निजी सामान सार्वजनिक सा है
मेरी माँ सार्वजनिक सार्वजनीन है
उसका सूप पर दानों को फटकना
चावल से खुद्दी का निकालना
सूप पर थाप दिए गाती है
राग भैरवी
चिड़ियों की चह छाह्त एवं उसका हंसना पृथक नही
उसकी फूली हुयी आँखों में सृष्टि समाया है
उसकी कानों ने सृर्फ़ गीत गुनगुनाया है
उसमें मैंने भी नहाया है
उसने मुझे बज्र भी सह लेने की ताकत दी है
सूप की थाप पर
मूसर की घन पर
दिखाया है पसीना
आंचल से पोंछती हुयी सिखाया है
मुझे कूट कूट कर बताया है
कभी न रोना
कभी न रोना
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