बोध 1
आप सब मे ऊर्जा का अजश्र स्त्रोत है,क्योंकि चेतना अपने आप मे पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण को अगर निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा,हां यह बात अलग है आपमें जिस ऊर्जा का संचरण हो रहा है उसका विस्फोट आप ही कर रहे है या यह वह है,जो आपके अन्तःक्रियाओं के परिणाम है?या प्रतिक्रिया स्वरूप आप एक अभिनव,सकरात्मक ऊर्जा का निर्माण करते चल रहै है?यहां यह ध्यातव्य हो कि जो भी सकरात्मकता एवम नाकारत्मकता है वह हमारे-आपके द्वारा विभाजित रेखा है जिसके इस पार से उस पार तक पूरा जगत है।हम उसी जगत की बात कर रहे है जहां प्रतिस्पर्धा,द्वेष,ईर्ष्या,है तो ठीक इसके विपरीत करुणा,दया,ममता का समानांतर अजस्र स्त्रोत भी है जो अपनी स्वाभाविता में गतिशील है।बस्तुतः ये जगत के वे उत्पाद है जिसके रचयिता व संघारक हमीं आप है । हमने ही जीवन को जटिल-सरल किया हुआ है।जटिलता जगत का गुण नही।जब आप जगत को संवेदनशील हो देखते है तो जो दृष्टि उभरती है वह आपकी हमारी एक जैसी ही होती है क्योंकि हमारा जीव विज्ञान,रसायन विज्ञान,भौतिक विज्ञान, मानव विज्ञान,साहित्य एक ही है विश्व के जितने ज्ञान की विधाएं है सब एक जैसी ही है अतः हमारा सबका आभ्यांतरिक जगत एक जैसा ही है।सामाजिक परिवेश,परिवारिक परिवेश,सांस्कृतिक परिवेश हमारी निर्लिप्त चेतना में संलिप्तता लाते है यह संलिप्तता ही निर्लिप्तता से पृथक करती है यह कभी भाषा के रूप में,कभी विचारों के रूप में पृथक -पृथक हो कर पूर्वाग्रहों आग्रहों का निर्माण कराते है।अचेतन मन इन पूर्वाग्रहों एवम आग्रहों की अत्यंत झीनी विभाजक रेखा को देख नही पाता फिर या तो वह आग्रही हो जाता है या वह पूर्वाग्रही हो जाता है।आइए चेतना के पूर्वाग्रह और उसके आग्रह को देखते है।एक पारिवारिक इकाई के रूप में जब हमारे ऊपर विचारों की श्रृंखला को संप्रेषित किया जाता है तब हम नही जानते की वह जीवन का आग्रह है या हमारे अंदर पूर्वाग्रहों की एक लंबी श्रृंखला बनाई जा रही है।हम उसी भांति जीवन को आचरित करना शुरू कर देते है।नदियों को प्रणाम,धरती को प्रणाम बृक्षों को प्रणाम चराचर जगत को प्रणाम करते है जिससे आवश्यक रूप से बिनीत भाव उपजता है और बिनीत भाव से हम अपने आंतरिक जगत के सौंदर्य को बाह्य जगत में देखना शुरू कर देते है तब वह हमारे धार्मिक,रीति,रिवाजों की अहम अभिव्यक्ति होती है।व्यक्तिगत सौंदर्य का हम जब विस्तार करते है वह वैभिन्नईक समाजों से होता हुआ गोचर होता है,ज्यों ही इसको पसारना शुरू करते है तत्क्षण अहमतियों- सहमतियों का जन्म शुरू हो जाता है सारा सौहार्द बोध ग्रसित हो अपनी समस्त ऊर्जा को या तो असहमतियों को समहत करने में या सहमतियों की युक्तिसंगतता देखने मे क्षरित हो जाता है यही से भगौलिक वटवारा,संप्रभुता,युद्ध,जैसी स्थितियां बननी शुरू हो जाती है,और हम विरोधाभाषी हो एक चेहरे में कई चेहरे लगाना शुरू कर देते है और जगत के सौंदर्य से बंचित हो जाते है यह सौंदर्य की त्यक्तता हमे रिक्त करती चलती है और हम एकांगी होना या उसके प्रतिपादक या अग्रदूत होने की अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के पात्र होना शुरू करते है यह हमारा आग्रह भी होता है और पूर्वाग्रह भी।सहमति और सहजता से च्युत तब हम अधिनायक होते है तब हमें रंगों में भेद दिखाई देने लगता है तब कोई कुरुप होता है तब कोई सुदर्शन होता है।तब सभी पर्यायवाची न होकर विलोम हो जाते है । हमने जितने अनुलोम विलोम बनाये है हम उसी अनुलोम- विलोम में पूरा जीवन खपा देते है और यही से हमारे बोध का क्षरण आरम्भ होता है अतः इन उच्चावच्चों में यह देखना होगा कि सम्यक का संकुल किधर है ।
आप सब मे ऊर्जा का अजश्र स्त्रोत है,क्योंकि चेतना अपने आप मे पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण को अगर निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा,हां यह बात अलग है आपमें जिस ऊर्जा का संचरण हो रहा है उसका विस्फोट आप ही कर रहे है या यह वह है,जो आपके अन्तःक्रियाओं के परिणाम है?या प्रतिक्रिया स्वरूप आप एक अभिनव,सकरात्मक ऊर्जा का निर्माण करते चल रहै है?यहां यह ध्यातव्य हो कि जो भी सकरात्मकता एवम नाकारत्मकता है वह हमारे-आपके द्वारा विभाजित रेखा है जिसके इस पार से उस पार तक पूरा जगत है।हम उसी जगत की बात कर रहे है जहां प्रतिस्पर्धा,द्वेष,ईर्ष्या,है तो ठीक इसके विपरीत करुणा,दया,ममता का समानांतर अजस्र स्त्रोत भी है जो अपनी स्वाभाविता में गतिशील है।बस्तुतः ये जगत के वे उत्पाद है जिसके रचयिता व संघारक हमीं आप है । हमने ही जीवन को जटिल-सरल किया हुआ है।जटिलता जगत का गुण नही।जब आप जगत को संवेदनशील हो देखते है तो जो दृष्टि उभरती है वह आपकी हमारी एक जैसी ही होती है क्योंकि हमारा जीव विज्ञान,रसायन विज्ञान,भौतिक विज्ञान, मानव विज्ञान,साहित्य एक ही है विश्व के जितने ज्ञान की विधाएं है सब एक जैसी ही है अतः हमारा सबका आभ्यांतरिक जगत एक जैसा ही है।सामाजिक परिवेश,परिवारिक परिवेश,सांस्कृतिक परिवेश हमारी निर्लिप्त चेतना में संलिप्तता लाते है यह संलिप्तता ही निर्लिप्तता से पृथक करती है यह कभी भाषा के रूप में,कभी विचारों के रूप में पृथक -पृथक हो कर पूर्वाग्रहों आग्रहों का निर्माण कराते है।अचेतन मन इन पूर्वाग्रहों एवम आग्रहों की अत्यंत झीनी विभाजक रेखा को देख नही पाता फिर या तो वह आग्रही हो जाता है या वह पूर्वाग्रही हो जाता है।आइए चेतना के पूर्वाग्रह और उसके आग्रह को देखते है।एक पारिवारिक इकाई के रूप में जब हमारे ऊपर विचारों की श्रृंखला को संप्रेषित किया जाता है तब हम नही जानते की वह जीवन का आग्रह है या हमारे अंदर पूर्वाग्रहों की एक लंबी श्रृंखला बनाई जा रही है।हम उसी भांति जीवन को आचरित करना शुरू कर देते है।नदियों को प्रणाम,धरती को प्रणाम बृक्षों को प्रणाम चराचर जगत को प्रणाम करते है जिससे आवश्यक रूप से बिनीत भाव उपजता है और बिनीत भाव से हम अपने आंतरिक जगत के सौंदर्य को बाह्य जगत में देखना शुरू कर देते है तब वह हमारे धार्मिक,रीति,रिवाजों की अहम अभिव्यक्ति होती है।व्यक्तिगत सौंदर्य का हम जब विस्तार करते है वह वैभिन्नईक समाजों से होता हुआ गोचर होता है,ज्यों ही इसको पसारना शुरू करते है तत्क्षण अहमतियों- सहमतियों का जन्म शुरू हो जाता है सारा सौहार्द बोध ग्रसित हो अपनी समस्त ऊर्जा को या तो असहमतियों को समहत करने में या सहमतियों की युक्तिसंगतता देखने मे क्षरित हो जाता है यही से भगौलिक वटवारा,संप्रभुता,युद्ध,जैसी स्थितियां बननी शुरू हो जाती है,और हम विरोधाभाषी हो एक चेहरे में कई चेहरे लगाना शुरू कर देते है और जगत के सौंदर्य से बंचित हो जाते है यह सौंदर्य की त्यक्तता हमे रिक्त करती चलती है और हम एकांगी होना या उसके प्रतिपादक या अग्रदूत होने की अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के पात्र होना शुरू करते है यह हमारा आग्रह भी होता है और पूर्वाग्रह भी।सहमति और सहजता से च्युत तब हम अधिनायक होते है तब हमें रंगों में भेद दिखाई देने लगता है तब कोई कुरुप होता है तब कोई सुदर्शन होता है।तब सभी पर्यायवाची न होकर विलोम हो जाते है । हमने जितने अनुलोम विलोम बनाये है हम उसी अनुलोम- विलोम में पूरा जीवन खपा देते है और यही से हमारे बोध का क्षरण आरम्भ होता है अतः इन उच्चावच्चों में यह देखना होगा कि सम्यक का संकुल किधर है ।