डॉ0 फिरोज के लिए
भाषा किसी जाति व धर्म की नही होती।यह जो हो रहा है मैं एक भारतीय नागरिक के रूप में छुब्ध हूँ और बेहद दुःख है कि संस्कृत भाषा की संस्कृति कलंकित हुई है।हम क्या करें
हम नए तरह के आदिवासी जीवन जीने को मजबूर है।जहां कोई स्नेह नही है ना कोई प्रेम है,ना ही कोई परस्पर अनुराग है,जहाँ असहमति है,विखण्डन है,क्षोभ है,कुछ रिक्त हो जाने का भय है,कुछ पा लेने की चाह है,प्रतिस्पर्धा है,हम पुनः उसी तरफ चल रहे है जहां से हम यह कह कर चले थे कि हम सभ्य हो रहे है,हमने एटम बम बना लिए है,हमने उपकरण खरीद लिए है,हम जमीन पर दोनों पैरों से चलने वाले से साइकिल तक,साइकिल से कार,कार से हवाई जहाज,अब अंतरिक्ष मे प्लाट लेने की तैयारी है।क्या यह प्रगति है?प्रगति का अर्थ है लगातार उन्नत होने से है प्र जो ऊर्ध्व हो गति का अर्थ है चलायमान।सभ्यता के विकाश क्रम में हम गतिहीन नही हो सकते।इसका कारण यह है यह चराचर जगत गतिशील है।हम रुक जायँ पर जगत कहां रुकता है?वह गतिशील है तो इस गतिशीलता में आप आगे जा रहे है या पीछे यह देखना पड़ेगा।सभ्यता का विकास हिमयुग से शुरू होता हुआ पाषाण युग फिर धातुओं की खोज फिर उन धातुओं का सकारात्मक व नकारात्मक प्रयोग,आपस के झगड़े,युद्ध,विविषिका,फिर शांति।आज हम जहां खड़े है वह शांति है या शांति की विविषिका है?क्या हम कुछ ज्यादा भयभीत,अशांत,दुराग्रही,असन्तुष्ट,उत्पाती,नही हो रहे है?अगर यह सब है तो क्या हम सभ्य है?या हम सभ्यता की खोज में सेक्स के आनंद,मदिरा सेवन का आनंद नही ले रहे?अगर उपरोक्त में आनंद आ रहा है तो फिर हम असन्तुष्ट,भयग्रस्त,परस्पर प्रतिस्पर्धा में क्यों जी रहे है?बस्तुतः हम और आप मिलकर एक ऐसे समूह की संरचना कर रहे है जिसमे घृणा में आनंद आ रहा है?परस्पर प्रतिस्पर्धा में आनंद आ रहा है?बल पूर्वक किसी का कुछ छीन लेने में आनंद आ रहा है?अगर इन सब मे आनंद नही आ रहा है आनंद कहां है?सेक्स शराब,जमीन,दुकान,मकान,कार,बंगला,गाड़ी मोटर,हवाई जहाज अंतरिक्ष मे?आंनद और सभ्यता कहां है?यह सोचना पड़ेगा।क्या किसी का हक छीन लेने का आंनद,ऊंचे पद पाकर आप आनंदित है?हर जगह उत्तर नही ही मिलेगा।यह सब जो आप और हम कर रहे है।इसमें अगर आनंद होता तो ये प्रश्न ही न खड़े होते।इसका मतलब इसके निषेध में आनंद है?तो इसका सर्जक कौन है हम आप?तो दुःखी कौन होगा हम और आप ही।बस्तुतः यह एक गंभीर विषय है यह मनोरंजन का विषय नही है।हम और आप ही ने मिलकर इसकी सर्जना की है।अगर सर्जना नकारात्मक है तो इसे समाप्त करने पर ही हम आनंदित रह सकते है।तो क्या हम आधुनिक बस्त्र पहने आदिवासी है?या आदिवासी होना ही मनुष्य का मौलिक चरित्र है?तो क्या हम नए किस्म के आदिवासी होते जा रहे है जहां हमारा कोई समाज नही है ना ही कोई सुरक्षा है।क्योंकि सुरक्षा के लिए हमने पिस्तौल बना ली है?सुरक्षा के लिए कांक्रीट के ऊंचे दीवार बना लिए है?क्या कुत्ते के साथ सड़क पर हम कुत्ते से मैत्री का भाव रख रहे है कि उसके अलावां कोई आपका मित्र नही है?तो जीवन क्या इस पड़ाव पर आ चुका है कि हम मनुष्यों में संभावना बची ही नही रह गयी है।हमारा मष्तिष्क लगातार प्रगति कर रहा है जितने डॉ0 बड़ रहे है उससे ज्यादा रोगी?क्या डॉ0 रोग बढ़ा रहा है?या सभ्य होना आनंद से च्युत होना है।तब तो वही काल अच्छा था जब हम सामूहिक रूप से जीवन जीते थे।तो क्या हम आधुनिक बस्त्रों में क़बीले नही है?अगर नही हैं तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम कितने भी सभ्य हों या सभ्य दिख रहे हो हम बस्तुतः सभ्य नही है।हम शिक्षित इसलिए होते है कि हम सभ्य परिवार बनायेगे,यही परिवार समाज का अंग होता जाता है फिर यही राष्ट्र का फिर अंतराष्ट्रीय संदर्भो में होता जाता है।हम जहां भी समाधान की तरफ बढ़ते है समस्याएं जटिल और जटिल होती जाती है।इसका एक मात्र निदान सहअस्तित्व व अहिंसा है।हम भारतीय कुछ असहिष्णु व अहिंसक होते जा रहे है।हम जब विचारों के कपाट बंद कर लेते है तो नए विचार दस्तक नही देते।अतः सब लोग खुले मन से एक दूसरे के साथ सहअस्तित्व बनाये व अपने-अपने परिवारों को प्रसन्न रखे।अन्याय के खिलाफ एकजुट हो व अच्छे लोग सार्वजनिक जीवन मे आएं विचार व्यक्त करें।हमारा पूरा भारतीय समाज फिर 1947 से पहले की स्थिति में न पहुंच जाए इसके लिए हमे खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना पड़ेगा।2014 से राजनीतिक दिशा ग़लत रास्ते पर जा रही है इसको रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है और उनलोंगों से सतर्क रहने की जिम्मेदारी भी है जो हमारा एकता व अखड़ंता को नष्ट करना चाहते है।हम धनहीन होते हुए मन से कर्म से व वचन से सबकी सेवा कर सके ऐसा ईश्वर हमे सद्बुद्धि दे।अगर हम लिख सकते है तो लिखे जो भी कर सकते हो करे।मुझे लग रहा है हम प्रगति न कर अधोगति की तरफ जा रहे है।यह अतीत का अनुभव है जिसे मैं व्यक्त कर रहा हूँ।हमारी कट्टरता हमारा विनाश कर देगी।हमारी जीवन पद्यति,शिक्षा पद्यति,आर्थिक पद्यति,सामाजिक पद्यति,राजनीतिक पद्यति कट्टरता में नही रही है।हम ज्यों ही कट्टर होते जायेगे शनै: शनै: विनाश की तरफ बढ़ रहे होंगे।अतः राम कृष्ण,विवेकानंद के इस देश को राम कृष्ण के अनुसार चलने दे,इनके नाम पर राजनीति,अर्थनीति,से अगर बच सके तो बचे,हां अगर लोकतंत्र को बचाना है तो जातिबाद को मिटाना होगा।लोकतंत्र एक अनुपम धरोहर है हर कीमत पर इसे बचाना हमारा नागरिक धर्म है,लोकतांत्रिक मूल्यों व वैश्विक शांति के हम तभी अग्रदूत हो पाएंगे जब हम शांत व हमारी वैश्विक साख बची रहे।अन्यराष्ट्रीय संदर्भों में हमारी साख गिर रही है अतः क्षरण से रोकें।
मैं लिख लिख कर अपना काम कर रहा हूँ।आप भी लिखें।