Thursday, December 26, 2019

दिनमान 114

दिनमान 116
भारत एक अत्यंत प्रचीन देश है।इसकी विविधता मे एक तरफ हिमालय है तो दूसरी तरफ समुद्र।विस्तृत भूखण्ड में फैला यह देश मंदिरों पूजा घरों के साथ ही साथ मोक्ष की संकल्पना से आक्षादित है।जीवन क्या है?जीवन के उद्देश्य क्या है?इसमें भटका यह देश आज भी अपनी जिज्ञाशा से परिपूर्ण है।यहां की पूजा पद्धयती ईश्वर के प्रति आस्था सघन है।यह आस्थाओं की पगडंडी पर चलता है।आस्था की पगडंडी पर चलने वाले देश ने सिर्फ आस्थाओं तक की ही यात्रा न की थी इस देश ने आत्म मंथन भी किया जिसमें उसने चांद तारे ग्रह नक्षत्रों की विधा से लेकर ज्ञान, विज्ञान,गणित,लेखन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचार एवम विधाएं भी दिए ।इसका प्राचीनतम स्वरूप व्यापक और दार्शनिकता से भरा पड़ा है तो व्यहारिक स्वरूप आत्मकेंद्रित है।नदियां पहाड़ झरने बनों से आक्षादित यह देश अपने प्राचीन काल मे काफी समृद्ध रहा है।इसकी समृद्धि इसके विस्तृत उपजाऊ जमीन और नदियों के भरपूर उपयोग पर टिका था।गंगा यमुना सिंध वेतवा नर्वदा अन्यान्न नदियों ने यहां के नागरिकों को उत्तम आहार की व्यवस्था सुनिस्चित की थी।पर्याप्त मानव संसाधनों एवम उचित श्रम उपयोग से यह देश परिपूर्ण रहा है। इसकी समृद्धि और ज्ञान की पिपाषा ने बाहर के देशों को यहां आने के लिए विवश किया।इस देश को समझने के कौतूहल ने विश्व को आकर्षित किया एवं परिणाम स्वरूप इस देश को विश्व मे ऊंचा मान दिया।यहां के लोगों की समृद्धि ने यहां के लोंगों में धर्म दर्शन के प्रति गहरी रुचि जाग्रत की,यह जागरण इस देश को भौतिकता से दूर गम्भीर जीवन दर्शन से यात्रा कराता हुआ बहुत कुछ यहां के निवासियों को विचारशील बनाया।जीवन को जीने से कम,जीवन के आत्मिक परिष्कार से जोड़ता चला गया।परिष्करण की प्रक्रिया इतनी जटिल और मनोवैज्ञानिक थी कि यहां के लोग भौतिक जगत से दूर होते गए,भौतिक जगत से दूर होने एकांतवास की प्रवृत्ति ने इस देश के नागरिकों को काल्पनिकता एवम काल्पनिक जीवन जीने को मजबूर किया,उसका कारण जीवन की विविधताओं से लड़ने की जगह उसके शमन की व्यवस्था का धर्म मे आना इस देश के समाज को जड़ करता गया।इसीलिए यह समाज संगठित न होकर विभाजित होता गया यह वैचारिक विभाजन भी इसी कारण हुआ कि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता ने इस देश को अत्यंत समृद्ध बनाया था,समृद्धि विकास का सातत्य लिए नही होता इसलिये यह वैचारिक समृद्धि को अक्षुण रखने के लिए इसके बचाव करने पड़ते है,यह इस आक्रमक होने से बचाता रहा।आक्रामकता का अभाव ही भौतिक पराभव का कारण बना।यह देश  जीव व जगत को समझने में अक्षम रहा(यहां आशय पदार्थजगत से है)इस अक्षमता में भी हमसब ने विश्व कल्याण की बात कही।विश्व वन्धुत्व व सहअस्तित्व ही हम देश वासियों का मूल मंत्र था।विस्तृत सोच वायवीय होती चली गयी इस प्रक्रार की वायवीय  सोच ने  राजनीतिक रणनीति न बना पाने की अक्षमता ने हमे गुलाम बनाया।हमारी प्रतिरोधात्मक शक्ति को क्षीण बनाया।ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना ने हमे धीरे-धीरे भौतिक होना सीखाया।और 1857 तक आते आते प्रतिरोध इतना चरम पर हुआ कि जो देश हथियारों से न लड़कर शाहत्रार्थ मे लोंगों को पराजित करता था,उसने बंदूक भी उठाई,ज्ञान और विज्ञान से भरे इस देश मे राजनीतिक अस्थिरता इस देश की नियति रही है।बस्तुतः छह ऋतुओं समतल उपजाऊ मैदान,एक विस्तृत भूभाग यहां की कृषि,वाणिज्य,सूती कपड़े,मसाले,आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदाय,उन्नत अर्थव्यवस्था,विश्व के लोंगों के लिए कौतुहल का विषय रही,राजनीतिक स्थिरता के अभाव में  हम अपने धरोहर खोते गए।यहां के लोगों में जीवन के भौतिक पक्ष पर कम ध्यान गया,यहां का धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष इतना प्रबल था कि तत्कालीन समाज ने विश्व बंधुत्व,वसुधैव कुटुम्बकम,तक विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती गईं।इसके इतर  ब्रितानी हुकूमत के दौरान यहां के नागरिकों का एक बहुत बड़ा समुदाय कम्पनी के हितों की रक्षा करता था उसका हित साधक वर्ग संस्कृत,उर्दू,हिंदी,इन भाषाओं पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी,चूंकि कम्पनी की भाषा अंग्रेजी थी,अतः कम्पनी के हित में कार्य के लिए यहां के नागरिकों ने अंग्रेजी भाषा को सीखा,जब अंग्रेजी भारत आई तब तक अंग्रेजी विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी।अतः भारतीय लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग अंग्रेजी साहित्य को पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया था,इसका फायदा यह हुआ कि यहां के निवासीयों ने विश्व साहित्य के अद्यतन विचारों एवम विश्व के सांस्कृतिक,सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक पक्षों से परिचित होंगे गए अतः वैचारिक वैविध्य में स्वतंत्र विचारों के नए-नए मानक गड़े जाने लगे,इसका फायदा यह हुआ कि वैचारिक वैविध्य ने भारतीय जीवन शैली को बदलना शुरू किया और यही से भारत पूरे विश्व मे फैल गया,यह इसलिए सम्भव हो सका कि हम विश्व के साथ चलने में स्वयम को सक्षम पाने लगे,इसके परिणाम स्वरूप विश्व के साथ कदम ताल करने के क्रम में इस देश ने लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को अपनाया।लोकतंत्र और संप्रभुता का समन्वय ही हमारे स्वराज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था से जन्मे
संसद,संविधान,न्यायपालिका,कार्यपालिका,विधायिका बनी।राज्य की शक्तियों का विभाजन ही इसलिए किया गया कि अपरिहार्य स्थितियों में लोकतंत्र को बचाया जा सके,इसे ही स्वतंत्रता कहा जाता है।यह क्रम 1947 से आज तक कायम है आवश्यकता इस वात की है कि हर स्वायत्त संस्थान की स्वयत्तता जितनी सम्यक संतुलित होती जाएगी,लोकतंत्र और मजबूत होता जाएगा,और हम अपने सतत नागरिक बोध से आने वाली पीढ़ी को एक मानवतावादी साहित्य,एक मानवतावादी समाज की रचना कर पाएंगे जिससे हमारी आर्थिक असमानता में प्रविष्ट गहरी खाई को अपने समन्वयवादी दृष्टि से सम्पूर्ण भारत को पुनः एकाकार करेंगे,यह काम बिना मानवतावादी विचार के सम्भव न होगा।

आप सभी को अभिवादन

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