Thursday, August 1, 2019

दुआर -दलान और ड्राइंग रूम

उन्नीस का पहाड़ा आज तक नही याद हो सका गुणा -गणित में कमजोर,कितने कीचड़ों,बीहड़ो,से दो चार होते गांव के मेड से ना जाने कहाँ - कहाँ भटकते-भटकते जीवन के रास्ते पर चल ही रहा था,हर रास्ते पर कुछ दूर चलते चौराहे मिल जाते थे न कोई लक्ष्य था न कोई मंजिल ही थी,इसी बीच कुछ ने इस दुनियां से ही विदा ले ली।खैर यात्रा का प्रारम्भ होगा तो समाप्ति भी होगी यह सबके साथ होता चला आया है सो कोई नई बात नही है।कुछ लोंगों का समय उकड़ूँ वैठा था तो कुछ अर्जुन की तरह मछली का आंख देख स्वयम्बर भी रचा लिये।तो कुछ सूत पुत्र हो कर्ण हो गए।सबका चयन अपना -अपना था।कुछ ने रति का साथ नही छोड़ा तो कुछ के लिए रति भष्मीभूत काम को पुनर्जीवित करने के यत्न में जुटे थे,कुछ को शिखंडी होना पड़ा तो कुछ जन्मजात थे,रूप और यौवन से मत्त मेनका ने विश्वामित्र को तीसरे जगत के निर्माण से रोका था।कुछ पुत्र इतने आज्ञाकारी थे कि उन्होंने अपना यौवन ही अपने पिता को दे कर संतुष्टि पाई और पिता रंगमहल में अपने बच्चे को जीर्ण होते देख यौवन की मादकता से ऊब कर यौवन लौटाया था।अंततः यथार्थ को भी दया आ गई थी।समय के चौराहों ने कितनों के चेतन -अचेतन को प्रभावित किया था।चेतन-अचेतन की वह अंधी दौड़ जो कभी स्कूल में खेल-खेल में खेले थे।अब खुली आँखों से अंधी दौड़ की तैयारी हो ही रही थी कि किसी ने आंख की पट्टी को खोला था।अब बाधारहित दौड़ की बारी थी सो आंख की पट्टी खोल दी गयी थी।इस भाग दौड़ में कुछ ने नंगी आखों की दौड़ लगाई तो तो कुछ ने गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध ली।स्त्रीलिंग,पुलिंग,उभयलिंगीयों के व्याकरण को ठीक से समझ भी नही पाया था पंडीजी ने तत्सम,तद्भव,उपमा,अविधा,लक्षणा,व्यंजना,तक पढ़ाते-पढ़ाते कब रस की निष्पत्ति हो गईं यह कहाँ पता चलता है।अभी तो पालने के पूत की तरह कुछ हाथ-पैर मारता कुछ दूर ही चला था कि किसी ने जोर से आवाज लगाया क्या करते हो भाई,कमसे कम वह ब्रूटस तो नही था।कालीदास की तरह पेड़ काटते काटते एक ब्रह्म दो हो गया दो का एक ब्रह्म कब हो गया यह ध्यान ही न रहा।यह सब दुआर को छोड़ने का नतीजा था।जब आदमी अपना दुआर छोड़ता है तो ठीक दूसरे दुआर के कुत्ते जैसा हाल होता है।इसकी अलग त्रासदी है तो मजे भी अलग हैं।दूसरे दुआर के कुत्तों से साहचर्य बढ़ना।साहचर्य और सौहार्द को खोजता निकलता अभी आगे ही बढ़ा था कि अखाड़े के पहलवान ऐसी लंगी मारी की चारो खाने चित्त हो गया।अखाड़े में लंगी की वेईमानी पुरष्कृत हो चुकी थी।हारे हुए जुवारी की तरह सर को नीचे झुकाए दुनियां के सर्कस में जोकर हो गया।भूमिकाओं और भागिमाओं का जीवन मे कितना महत्व होता है यह समझते समझते इतनी देर हो गयी थी जैसे अंग्रेजी का ट्रांसलेशन के पाठ को पढ़ाते हुए पंडीजी ने मुझे पूछा था कि मेरे आने से पहले गाड़ी छूट चुकी थी और मैं उसका अंग्रेजी में अनुवाद न कर पाया था।जीवन मे अनुवाद न करने की गलती से मौलश्री की छाया छुटी और किसी का सैल्यूट आजीवन किताबों में बंद हो गया।जन्म के समय पाया कवच कुंडल कितने दिन काम आता।दया से दैन्य होता कब किसको क्या दे दिया ?कब किसने कितना लिया ? यह कहां कोई भूलता है।उधार की नांव पर सवार अभी पानी की धार को देख ही रहा था कि हवा पछुवाँ वह गयी,मल्लाह अभी नांव की कुंडी को सीधा कर ही रहा था कि हवा के ववण्डर ने नांव के पाल को ही उड़ा ले के चल पड़ी।एकोहम द्वितियों नास्ति की सारी परिभाषा ही बदल गयी।राम नाम सत्य है कहते -कहते नांव किनारे चुपचाप खडा हो यात्रियों की उतरने की प्रतीक्षा ही कर रहा था किसी ने पीछे से आवाज लगाई क्या करते हो भाई?मुझे ठेलते वह आगे बढ गया।अभी वो आगे बढ़कर पूछ ही रहा था कि कितनी नावों में कितनी बार ?घाट-घाट का पानी कोस कोस की भाषा को अभी कोस ही रहा था तब तक पैर के अगूंठे में उडुक लग चुका था खून से लतफत अंगूठे के नाखून को जोर से आंख मूँदते हुए खिंच ही रहा था कि किसी ने शवासन की मुद्रा बताई और यह भी बताया कि जीवन के लिए यह मुफीद होता है।इसी मुफीद दवा को हांथ में लिए -लिए साहित्य हो गया।आदिकाल,मध्यकाल,आधुनिक काल से होता हुआ प्लेटो से कार्ल मार्क्स हो गया इधर कुछ प्रेमचंद और गोर्की बनने की तैयारी चल ही रही थी कि छायावाद और अंधायुग शुरू हो चुका था।नॉका विहार कहा कर पाया था कि कामायनी ने सारे सर्गों की याद दिला दी थी।इसी सर्गो में विचरण करते राम की शक्तिपूजा की याद हो आई थी।रामचन्द्र शुक्ल की तरह टी.एस.इलियट को अभी कहा पढ़ पाया था तब तक भाषावैज्ञानिकों की टुकड़ी शंखनाद करते हुए स्नायु तंत्र पर ही टूट पड़े थे।अब उन्हें शरीर से कोई खतरा न था शब्दों को ढाल बनाये तलवारें भांज ही रहे थे तब तक कलिकाल का प्रभाव उनके धर दस्तक दे चुका था और लिखा जा रहा था ''अंधेर नगरी चौपट राजा।टका से भाजी टका सेर खाझा।।हा खाझा से ननिहाल की याद आ आई जहां की सीता जी थी वही मेरा ननिहाल भी है।सो उनकी त्रासदी को मैं कैसे भूल सकता था,प्राक्कथन में दोहराता बुदबुदाता रावण को अट्ट -सट बोलता,मर्यादा को कैसे तोड़ता?प्रश्नवाचक चिन्हों के बीच समय वक्र हो चला था,1857 में मंगल पांडे ने जो गोली मारी की धुंआ आज तक उठा ही रह गया,नव्वे बर्षों के अथक परिश्रम के बाद राम राज्य आ ही गया था।1947 में झंडा फहराया गया था। ऐसा किताबों में पढ़ा था,संविधान लिख उठा था।हम भारत के लोग ही प्रस्तावक व प्रस्तावना थे इसमे न जाने कब कौन प्रस्तावक बन बैठा कुछ याद नही।शक्तियों के विभाजन में कब कौन शक्तिशाली होता रहा पता ही न चला,नून,तेल,लकड़ी,में कहाँ कुछ बुझाता है भाई ।