Tuesday, July 30, 2019

बोध 1

बोध 1
आप सब मे ऊर्जा का अजश्र स्त्रोत है,क्योंकि चेतना अपने आप मे पूर्ण है,पूर्ण से पूर्ण को अगर निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा,हां यह बात अलग है आपमें जिस ऊर्जा का संचरण हो रहा है उसका विस्फोट आप ही कर रहे है या यह वह है,जो आपके अन्तःक्रियाओं के परिणाम है?या प्रतिक्रिया स्वरूप आप एक अभिनव,सकरात्मक ऊर्जा का निर्माण करते चल रहै है?यहां यह ध्यातव्य हो कि जो भी सकरात्मकता एवम नाकारत्मकता है वह हमारे-आपके द्वारा विभाजित रेखा है जिसके इस पार से उस पार तक पूरा जगत है।हम उसी जगत की बात कर रहे है जहां प्रतिस्पर्धा,द्वेष,ईर्ष्या,है तो ठीक इसके विपरीत करुणा,दया,ममता का समानांतर अजस्र स्त्रोत भी है जो अपनी स्वाभाविता में गतिशील है।बस्तुतः ये जगत के वे उत्पाद है जिसके रचयिता व संघारक हमीं आप है । हमने ही जीवन को जटिल-सरल किया हुआ है।जटिलता जगत का गुण नही।जब आप जगत को संवेदनशील हो देखते है तो जो दृष्टि उभरती है वह आपकी हमारी एक जैसी ही होती है क्योंकि हमारा जीव विज्ञान,रसायन विज्ञान,भौतिक विज्ञान, मानव विज्ञान,साहित्य एक ही है विश्व के जितने ज्ञान की विधाएं है सब एक जैसी ही है अतः हमारा सबका आभ्यांतरिक जगत एक जैसा ही है।सामाजिक परिवेश,परिवारिक परिवेश,सांस्कृतिक परिवेश हमारी निर्लिप्त चेतना में संलिप्तता लाते है यह संलिप्तता ही निर्लिप्तता से पृथक करती है यह कभी भाषा के रूप में,कभी विचारों के रूप में पृथक -पृथक हो कर पूर्वाग्रहों आग्रहों का निर्माण कराते है।अचेतन मन इन पूर्वाग्रहों एवम आग्रहों की अत्यंत झीनी विभाजक रेखा को देख नही पाता फिर या तो वह आग्रही हो जाता है या वह पूर्वाग्रही हो जाता है।आइए चेतना के पूर्वाग्रह और उसके आग्रह को देखते है।एक पारिवारिक इकाई के रूप में जब हमारे ऊपर विचारों की श्रृंखला को संप्रेषित किया जाता है तब हम नही जानते की वह जीवन का आग्रह है या हमारे अंदर पूर्वाग्रहों की एक लंबी श्रृंखला बनाई जा रही है।हम उसी भांति जीवन को आचरित करना शुरू कर देते है।नदियों को प्रणाम,धरती को प्रणाम बृक्षों को प्रणाम चराचर जगत को प्रणाम करते है जिससे आवश्यक रूप से बिनीत भाव उपजता है और बिनीत भाव से हम अपने आंतरिक जगत के सौंदर्य को बाह्य जगत में देखना शुरू कर देते है तब वह हमारे धार्मिक,रीति,रिवाजों की अहम अभिव्यक्ति होती है।व्यक्तिगत सौंदर्य का हम जब विस्तार करते है वह वैभिन्नईक समाजों से होता हुआ गोचर होता है,ज्यों ही इसको पसारना शुरू करते है तत्क्षण अहमतियों- सहमतियों का जन्म शुरू हो जाता है सारा सौहार्द बोध ग्रसित हो अपनी समस्त ऊर्जा को या तो असहमतियों को समहत करने में या सहमतियों की युक्तिसंगतता देखने मे क्षरित हो जाता है यही से भगौलिक वटवारा,संप्रभुता,युद्ध,जैसी स्थितियां बननी शुरू हो जाती है,और हम विरोधाभाषी हो एक चेहरे में कई चेहरे लगाना शुरू कर देते है और जगत के सौंदर्य से बंचित हो जाते है यह सौंदर्य की त्यक्तता हमे रिक्त करती चलती है और हम एकांगी होना या उसके प्रतिपादक या अग्रदूत होने की अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के पात्र होना शुरू करते है यह हमारा आग्रह भी होता है और पूर्वाग्रह भी।सहमति और सहजता से च्युत तब हम अधिनायक होते है तब हमें रंगों में भेद दिखाई देने लगता है तब कोई कुरुप होता है तब कोई सुदर्शन होता है।तब सभी पर्यायवाची न होकर विलोम हो जाते है । हमने जितने अनुलोम विलोम बनाये है हम उसी अनुलोम- विलोम में पूरा जीवन खपा देते है और यही से हमारे बोध का क्षरण आरम्भ होता है अतः इन उच्चावच्चों में यह देखना होगा कि सम्यक का संकुल किधर है ।

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम
मैं अपने पिताजी के घुटने के बराबर ही था पर उनके जैसा बनने,बड़ा हो जाना चाहता था अब मेरे चाहने से पूरी पृथ्वी अपनी कक्षा में पचास वर्ष एक ही बार मे घूम तो नही जाती पर मैं चाहता था कि वह घूम जाय और मैं पिताजी जैसा बन जाऊं,पर ऐसा होता कहाँ है ? से अनिभिज्ञ अपने बड़े होने की प्रतीक्षा करता रहता,अन्य भाई बहन जिनके हाथ पैर लंबे होते जाहिर है उनका कपड़ा भी बड़ा होता था । सबके सब आदेश की मुद्रा में मुझे अनुशासन का पाठ पढ़ाते बड़े हो रहे थे और मैं आज्ञापालक की भूमिका में विनम्र रहता क्योंकि थप्पड़ से चोट बहुत तेज लगती यह बात अलग है कि जब मैं फुक्कारे मार जोर - जोर से रोता मेरी बड़ी बहन जिसने एकाध तप्पड़ रसीद किया होता था वे गुड़ भी खिलाती थी जिसको माँ न जाने कहाँ - कहां रखती थी । उसका डिब्बा कभी खाली नही रहता था,मुझे उस डिब्बे की ज्यों ही महक लगती उसका कुछ गुड़ उदरस्थ हो गया रहता सो स्थान बदलती रहती मैं अपना मन बदलता रहता वह छिपाती और मैं खोजता रहता कभी कभी मुझे लगता था कि वह छिपाती ही इसीलिए थी मैं खोज लूँ । लुका छिपी के इस खेल मैं लगभग पारंगत था,इस विशिष्ट कौशल का विकास उसकी सदाशयता ही थी दांत पिसती,डांटती वह कब बूढ़ी हो गयी और मैं युवा इसका पता ही न चला,पर उसकी हनक के हुंकार से मैं आजीवन सहमा रहा कभी हिम्मत न पड़ी की उसके सामने तेज से कुछ बोल पाऊं । उसके स्वर की कडुआहट में उतना ही गुड़ रहता था जितना कि उसके प्यार में,जिसको मैं कभी उसकी गोद मे बैठ उसके दूध पीने के लिए नाटक करता, यह नाटक इसलिए भी करता क्योंकि उसकी गोद मे जब भी मैं होता आँचल से मेरा सिर ढ़ंक कर दूध पिलाती और मेरे सर को सहलाये जाती अपने जन्धे को बार बार फैलाती की मैं उसमे समा जाऊं और मैं जगह घेरता जाता आकार के अनुरूप उसकी गोद में भर जाता था यह सिलसिला कभी पाँच मिनट का होता या मैं छोड़ता ही न था । कंठ में जो भी बूंद गए उसने इस शरीर मे इतना बड़ा घर बनाया की मैं आज तक निवृत्त न हो पाया । ऐसा नही है कि मैं निवृत्त होना चाहता हूं क्योंकि उसकी स्मृतियों से निवृत्त होना मेरे अस्तित्व से निवृत्ति है अतः वह मुझमे है और मैं उसमे हूँ । अब पिता जी !! मेरे पिताजी की कद काठी सामान्य थी उनके साथ जानवरों को चारा ले आने जाते समय मैं उनके कदमों को देखता जूते की तलवे की छाप वरसात के दिनों में स्पस्ट दिखयी पड़ जाता था उनके जूते के तलवे की लकीरों से जो बोध उपजा वे इस पृथ्वी के सम्राट से कम न थे और मैं  स्वयम्भू राजकुमार । वे अक्सर राजनीतिक धार्मिक दार्शनिक व्यख्या किया करते थे जबकि वे अपने जीवन मे कम पढ़ने को लेकर मर्माहत भी रहते थे । शायद यह मर्म ही रहा होगा कि वे महाराज दशरथ न बन पाए न ही मैं राम,लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न्, वे जुलाई 1924 में पैदा  हुए थे,स्वतंत्रता संघर्ष भी देखा था,वे घोषित स्वतंत्रता सेनानी तो नही थे लेकिन इस मातृभूमि के सच्चे भक्त थे,इस देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण मैं बना तमाम प्रकार की संपत्तियों से बंचित उत्तराधिकारी के रूप में मुझे वैसुधैव कुटुम्बकम ही मिला और अब तक मैं उनकी इस धरोहर को सुरक्षित रखा हूँ ।
क्रमशः

Saturday, July 27, 2019

ठूँठ का ऊँट

ठूँठ का ऊँट
बहुत कुछ आपको पढ़ना नही होता,वह तो आपके अन्तर्जगत में समाहित है,हां कभी -कभी उस पट को झांक अवश्य लिया करे ,जहां तक आपने देखा है,उसके उस पार का जगत भी ऐसा ही है,जैसा आपने देख छोड़ा है,जब आप किसी सजीव को देख रहे होते है,उसके लिए आपको कोई साहित्य या पुस्तक पढ़नी नही पड़ती,आपके अंदर का साहित्य,इतिहास,अर्थशात्र,दर्शनशात्र,भूगोल,भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान,मानव विज्ञान, संस्कार,धृणा,प्रेम,अनुकूल - प्रतिकूल अक्षरों के रूप में वाक्य के समूहों में उद्घाटित होने लगते हैं।आपके अंदर का तमस - उमस के साथ वाहर निकलने लगता है और आप उसे व्याकरण के धागे में पिरोते हुए किसी के गर्दन में उस शब्दों की माला को डालकर प्रतीत की अनुभूति को प्राप्त होते है,हां यहां यह ध्यान रखना होगा कि प्रतीति का भी संवेदी सूचकांक होता है बस यहीं-कहीं,किसी को प्रतीति में संभावना दिखती है तो किसी में वह चक्रवात की तरह आलोड़न कर देती है या प्रतीति अपना अर्थ ही खो देती है । खैर संवेदना कोई ठोस बस्तु नही वह द्रव होता है जो स्वयम में गतिशलता लिए कभी सीधे तो कभी चौतरफा पानी के बेग को  धरती में फटे दरार को तृप्त कर देती है,यह प्रक्रिया कभी मद्धिम तो कभी-कभी तीव्र होती ही रहती है । मद्धिम और तीव्र होते उसके गुण रैखिक नही होते वे छैतिज भी नही होते है।रैखिक और छैतिज के बीच मे आप कभी जीवन के चतुष्कोण बनाते व्यास को अपने प्रक्रार से मापना शुरू कर देते है क्योंकि इनकोणों में ही या तो आप व्यस्त है याआपके द्वारा खींची गई रेखा आपकी भंगिमा है तो भागिमाओं को पढ़िए जो आपके मूल उतपत्ति में है जो आपको विश्राम देती है,विश्राम से गोचर होती भंगिमाओं को आप उसके इर्द - गिर्द ही देख पाएंगे,क्योंकि जहां से आप इन चीजों को देख रहे है  वह निराधार नही वह आपके अस्तित्व के आधार होते है,तो जिसका जो आधार हो उसका वह ही निष्कर्ष भी होता है तो निष्कर्णात्मकता की दृष्टि भी  वायवीय ही जानिए, वायवीय होने के अपने खतरे है तो अवायवीय के भी अपने खतरे कम नही हैं अतः वायवीय होते चित्त को देखिए और यह भी देखिए कि वह ज्यामितीय कोण बना पाते है या नही ? अगर कोई आकृति नही बन पाती है तो भिन्न भिन्न कोणों के बीच स्वयम को देखें,आप यहीं कहीं किसी व्यास या कोण के आधार को लम्बवत या  दंडवत करते देखे जाएंगे ।

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

मैं अपने पिताजी के घुटने के बराबर ही था पर उनके जैसा बनने,बड़ा हो जाना चाहता था अब मेरे चाहने से पूरी पृथ्वी अपनी कक्षा में पचास वर्ष एक ही बार मे घूम तो नही जाती पर मैं चाहता था कि वह घूम जाय और मैं पिताजी जैसा बन जाऊं,पर ऐसा होता कहाँ है ? से अनिभिज्ञ अपने बड़े होने की प्रतीक्षा करता रहता,अन्य भाई बहन जिनके हाथ पैर लंबे होते जाहिर है उनका कपड़ा भी बड़ा होता था । सबके सब आदेश की मुद्रा में मुझे अनुशासन का पाठ पढ़ाते बड़े हो रहे थे और मैं आज्ञापालक की भूमिका में विनम्र रहता क्योंकि थप्पड़ से चोट बहुत तेज लगती यह बात अलग है कि जब मैं फुक्कारे मार जोर - जोर से रोता मेरी बड़ी बहन जिसने एकाध तप्पड़ रसीद किया होता था वे गुड़ भी खिलाती थी जिसको माँ न जाने कहाँ - कहां रखती थी । उसका डिब्बा कभी खाली नही रहता था,मुझे उस डिब्बे की ज्यों ही महक लगती उसका कुछ गुड़ उदरस्थ हो गया रहता सो स्थान बदलती रहती मैं अपना मन बदलता रहता वह छिपाती और मैं खोजता रहता कभी कभी मुझे लगता था कि वह छिपाती ही इसीलिए थी मैं खोज लूँ । लुका छिपी के इस खेल मैं लगभग पारंगत था,इस विशिष्ट कौशल का विकास उसकी सदाशयता ही थी दांत पिसती,डांटती वह कब बूढ़ी हो गयी और मैं युवा इसका पता ही न चला,पर उसकी हनक के हुंकार से मैं आजीवन सहमा रहा कभी हिम्मत न पड़ी की उसके सामने तेज से कुछ बोल पाऊं । उसके स्वर की कडुआहट में उतना ही गुड़ रहता था जितना कि उसके प्यार में,जिसको मैं कभी उसकी गोद मे बैठ उसके दूध पीने के लिए नाटक करता, यह नाटक इसलिए भी करता क्योंकि उसकी गोद मे जब भी मैं होता आँचल से मेरा सिर ढ़ंक कर दूध पिलाती और मेरे सर को सहलाये जाती अपने जन्धे को बार बार फैलाती की मैं उसमे समा जाऊं और मैं जगह घेरता जाता आकार के अनुरूप उसकी गोद में भर जाता था यह सिलसिला कभी पाँच मिनट का होता या मैं छोड़ता ही न था । कंठ में जो भी बूंद गए उसने इस शरीर मे इतना बड़ा घर बनाया की मैं आज तक निवृत्त न हो पाया । ऐसा नही है कि मैं निवृत्त होना चाहता हूं क्योंकि उसकी स्मृतियों से निवृत्त होना मेरे अस्तित्व से निवृत्ति है अतः वह मुझमे है और मैं उसमे हूँ । अब पिता जी !! मेरे पिताजी की कद काठी सामान्य थी उनके साथ जानवरों को चारा ले आने जाते समय मैं उनके कदमों को देखता जूते की तलवे की छाप वरसात के दिनों में स्पस्ट दिखयी पड़ जाता था उनके जूते के तलवे की लकीरों से मुझे वे इस पृथ्वी के सम्राट से कम न थे और मैं  स्वयम्भू राजकुमार । वे अक्सर राजनीतिक धार्मिक दार्शनिक व्यख्या किया करते थे जबकि वे अपने जीवन मे कम पढ़ने को लेकर मर्माहत भी रहते थे । शायद यह मर्म ही रहा होगा कि वे महाराज दशरथ न बन पाए न ही मैं राम,लक्ष्मण,भरत, शत्रुघ्न्, वे जुलाई 1924 में पैदा  हुए थे,स्वतंत्रता संघर्ष भी देखा था,वे घोषित स्वतंत्रता सेनानी तो नही थे लेकिन इस मातृभूमि के सच्चे भक्त थे,इस देशभक्ति का जीता जागता उदाहरण मैं बना तमाम प्रकार की संपत्तियों से बंचित उत्तराधिकारी के रूप में मुझे वैसुधैव कुटुम्बकम ही मिला और अब तक मैं उनकी इस धरोहर को सुरक्षित रखा हूँ ।
क्रमशः 

Monday, July 22, 2019

फिलॉसफी


मेरे गाँव मे एक निहायत सज्जन व्यक्ति थे वे दर्शनशात्र से एम.ए. थे ! यह घटना 1978 की होगी,आटा पिसाने के लिए पचास किलो का बोरा ले के जब चक्की पर जाते तो वह चक्की वाला  भी उनका गेहूं पीसने में हिला हवाली करता ! उस चक्की पीसने वाले का बेटा भी आई. टी. आई. फिटर ट्रेड से पास करके उस समय नया -नया रेलवे में नॉकरी में लगा था,उसके पिता को यह बड़ा नागवार लगता कि उसके पड़ोसी के बड़े भाई के बेटे ने एम.ए. कैसे कर लिया ! उस जमाने मे एम.ए. कोई - कोई होता था ! वैसे उन्होंने दर्शनशात्र क्या पढ लिया विचारे पर आफत आ गयी,जहाँ भी जाते लोग बाग उनका मजाक उड़ाने से नही चूकते थे,कारण था कि बहुत उनके साथ पढ़े लोग दारोगा हो गए,बहुत लोग चपरासी भी हो गए,अन्यान्य पदों पर,पर उनकी कहीं नॉकरी नही लगी,वैसे भी उन दिनों अभिभावकों में इतना धैर्य कहां होता था, एक सीमा के बाद बच्चो को पढाये,एम.ए. थे ही,तो गांव लोग उन्हें पंडीजी कहना शुरू कर  दिए, कहीं किसी के दरवाजे पर शादी विवाह में जाते तो उन्हें देखकर लोग अपने बगल वाले से धीरे से कहते,देखिए अपने बच्चे को फिलॉसफी कभी मत पढाईयेगा,मैने इनके बाप से कहा था सब पढा लीजिए पर फिलॉसफी मत पढ़ाएगा अब भोगे ससुर, यहां से पंडीजी का परिचय दे दिया जाता था ! फिर उनको यह कह कर बुलाया जाता कि  ए पंडीजी जरा यहां आइए,पंडीजी किसी कहने पर चले जाते,तब उनसे मुखातिब हो पूछते क्यों  मिठाई मिली ? वे संकोची स्वभाव के थे सहज ही बच्चों की तरह कह देते न अभी तो नही मिली, लेकिन आप परेशान न हो मिठाई का क्या है मिल ही जाएगी जिन्होंने उनका परिचय कराया होता था वह बड़े ही जिज्ञाषा भरी नजर से दोनों आंख को बाहर करते हुए उकड़ू हो पूछते अरे पूरा जवार मिठाई खा गया अभी ये लोग आपको मिठाई ही नही दिए ? इस प्रश्नवाचक चिन्ह में उनका हास परिहास होता था,जैसे उन्हें कोई समय पास करने के लिए कोई लड्डू मिल गया हो ! राह चलते हर चलाने वाला भी कह लेता था कि आपकी पढ़ाई दो कौड़ी की है आप हर भी नही चला सकते ! मैने आपके बाप से कहा था कि अंगूठा टेक निमन है पर फिलॉसफी पढ़ाना तो बच्चे को पागल कर देता है ! आपको नही पता होगा जब हम बच्चे थे तो हमारे जमाने मे भी एक जने एम.ए. किये थे,वो तो इतना पढ़े की पगला ही गए,तब हमने उनको बताया था कि कानू ओझा के यहां ले जाइए इसका दिमाग सनक गया है,मेरी बात मान कर वो कानू के यहां गए और उस ओझा ने ऐसी मिर्चे की धुंवे की सुघनी सुघाई की वह एकदम मुठ पकड़ कर हर जोतने लगे, आप भी एक दिन अपने पिता जी को ले के जाईये हर चलाना सिख जाएंगे,उन्होंने उनकी सलाह ली और आगे बढ़े ! संयोग से एक दिन मेरे भी सर पर बीस किलो का गेहूं का बोरा था,कपार का बोझा क्या होता है उस दिन पता चला तीनों त्रिलोक चौदह भुवन दिख रहे थे,किसी तरह गिरते पड़ते मैं भी चक्की की तरफ बढ़ा,हमसे पहले वे पहुंच चुके थे,मैं उनके ठीक पीछे था,वरसात का दिन था एक प्लास्टिक का बोरा ओढ़े वे आगे -आगे मैं पीछे -पीछे ! मेरे लिए वह बोझा पृथ्वी का बोझ था झट से उतार पैक मैने कहा पंडीजी जरा गमछा दीजिये,पंडीजी ने झट से गमछा दे कहा आप तो बहुत छोटे है फिर भी ? लाद लिया लोंगों ने ?जी मैने कहा,अरे अब  जब गेहूं पिसाना हो,तो मेरे घर आ जाना,मैं तुम्हारे घर का गेहूं पिसवा दिया करूँगा,अभी वे बात ही कर रहे थे कि चक्की वाले ने कहा,हे पंडीजी,आपका गेहूं 49 किलो है, पंडीजी गमछे से मुँह पोछते हुए बोले, ना काका घर से तो जोख कर पचास किलो ही मिला है,कहीं आपके बटखरे में तो दिक्कत नही है ? तुम फिलॉसफी क्या पढ़ लिए ! हाफ माइंड हो गये हो ?मैं कक्षा आठ में नया -नया गया था,मुझे हाफमाइंड कुछ अटपटा लगा उस समय तक हाफ माइंड का मतलब समझ में आ गया था ! मैने धीरे से कहा कि एक किलो के बटखरे के साथ आपने तौल दिया है चाचा ! वे थोड़ा सकपकाए,पता नही क्या सोचकर उन्होंने ने मेरी बात मान ली ! अब उनका गेंहू पचास किलो हो गया था,मैं भी हवाई चप्पल को हाथ मे उठाये प्लास्टिक की पन्नी ओढ़ कीचड़ में आगे बढ ही रहा था पंडीजी ने आवाज लगाई रुकिए हम भी चलते है रास्ते मे पानी के बरसने से कीचड़ बहुत हो गया है कही आप गिर न जायँ ! मैं मना करता रहा लेकिन वे नही माने,मेरे पीछे - पीछे ठीक,से खांच बा, दिखाते -दिखाते मेरे घर के मोड़ पर आकर बोले, अब इधर पक्का है,आप जा सकते है ! मैने बड़े ही संकोच में उनसे कहा भाईया आप पिलासफी से एम.ए. क्यों किये ? उन्होंने मेरे मनोभाव को भाफते हुए कहा, जीवन की गुणा गणित में मैं फेल था राजनीति मुझे आती न थी जब गणित ही नही आई तो अर्थशात्र को कैसे पढ़ पाता विज्ञान को मैने भौतिकता से जोड़ कर देखा,अब क्या करता ले दे कर फिलासफी ही बची थी और मजे की बात यह थी वह विषय मुझे अच्छा भी लगता था सो पूरा बावन परसेंट नम्बर से पास हुआ था,लेकिन क्या करता ? नॉकरी नही लगी,और सच बताता हूँ मैंने भी नॉकरी को जीवन का जंजाल ही समझा ! अभी उनकी बात खत्म भी न हुई थी कि मैंने पूछा कि भाईया लोग आपका मजाक उड़ाते है,वे कुछ गम्भीर हो गए, अंधेरा होने को था पानी बरसना फिर शुरू होने ही वाला था उन्होंने कहा ''वे लोग नही जानते मैं उनको वेवकूफ समझता हूं और वे मुझे "मेरे लिए यह एक ऐसा प्रश्नचिन्ह था जिसका सटीक उत्तर आज तक नही खोज पाया और अपने घर आ गया ! अगले हफ्ते इसका अगला भाग !

प्रतिरोध,चुप्पी - संतुलन

प्रतिरोध,चुप्पी और संतुलन
आप यह ध्यान रखें कि वृहत्तर सामाजिक संगठन में परस्पर विरोधाभाषी समाज रहता है ! जो देखने मे तो एक वृहत्तर समाज दिखता है लेकिन इसकी  प्रवृत्तियों में एक तरफ प्रतिरोध है तो दूसरी तरफ चुप्पी तो तीसरा वह जो उस समाज का अधिष्ठाता मानव है, जो अक्सर चुप्पी साधे रहता है ! यह चुप्पी उसके स्वार्थी और परमार्थी होने का सममुच्चय है ! यह चुप्पी उसकी अनुकूलता की चुप्पी है,जब उसकी अनूकूलता - प्रतिकूलता में बदलती है तो प्रतिरोध का जन्म होता है ! बस्तुतः प्रतिरोध भी स्वयम की अनूकूलता में प्रतिकूलता द्वारा खलल डालना है ! प्रतिरोध का स्वर तीक्ष्णता से ओतप्रोत होता है,यह तीक्ष्णता अपनी  दृष्टिबोध से ध्वंसात्मक है जिसमे मनुष्य की समस्त ऊर्जा के संकेन्द्रण में वह मनुष्य न रहकर नाभिकीय विखंडन की वह प्रक्रिया हो जाता है जिसमे उसका मूल उत्स होता ही नही ! मनुष्य एक शांत, कोमल,सहस्तित्ववादी होता है जिसमे अनुराग, प्रेम, करुणा, की अजश्र धारा बहती है जो प्रवाहमान है ! अतः वह उस मूल उत्स से ध्वंसात्मक प्रवृत्ति की तरफ नही जाना चाहता,क्योंकि उसकी सारभौमिक सर्वस्वीकारोक्ति ही प्रेम, दया, ममता, करुणा से आप्लावित है ! वह अपने मूल उत्स के आस्वादन में इतना तन्मय होता है कि वह अपनी तन्मयता को भंग नही करना चाहता और वह उसमें खो जाना चाहता है ! अनुराग द्वेष के परस्पर विरोधाभाषी संगठकों से उसकी एकाग्रता भंग होती है अतः वह जिस सुरक्षात्मक परिवेश का सृजन करता चलता है उससे उसकी आंतरिक तृप्ति में वह चुप्पी साध लेता है,यह चुप्पी उसके सहअस्तित्व को अक्षुण रखने हेतु सम्बल होती है ! आलम्बन की आड़ लेता मनुष्य संतुलन चाहता है ! व्यक्तित्व में आलम्बन का होना उसके आप्त का संवल है, आप्त की उतपत्ति संतुलन को जन्म देती है ! इस तरह मानव मन आप्त और उत्स की परिधि में वैचारिक संतुलन बनाता है ! यह संतुलन इसलिए भी होता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते उसके कुछ अंतरंग अनुबंध है जिन अनुबंधों में जीना उसके मूल उत्स की अनिवार्यता भी है अतः वह प्रतिरोध में भी चुप्पी को सम्बल बना संतुलन में व्यस्त हो जाता है और उसका प्रतिरोध चुप्पी में परिवर्तित हो जाता है !

हिंदी भाषा और अभिव्यक्ति के खतरे


भाषा का पराभव किसी भी सभ्य समाज की नीव का हिल जाना है जिसपर उसका पूरा समाज टिका है । यह दुःखद है ! बस्तुतः भाषा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम एक दूसरे के मनोभावों को जानते है,कुछ भावों का अनुकरण करते है तो कुछ नए मार्ग बनाते है । समय की गतिशलता के साथ ही साथ पूरा मानव समाज गतिशील है,इस गतिशलता मे हिंदी भाषा के उत्थान और पतन पर समीक्षा करें तो पाएंगे,हिंदी भाषा ने बहुत कुछ खोया है,अगर भाषा आत्मचिंतन करे तो वह पाएगी की उसने अपने शब्द संरचना और  उसके घातक प्रयोग सीखे है,यह प्रचलन में क्यों बढ़ा ? इसकी तह तक जायँ तो पता चलता है कि पूरी हिंदी पट्टी में भाषागत रोजगार का जो दौर पहले था वह उससे और भी खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है,इसके कारण में यह भाषा पूर्व की भांति आज भी उपेक्षित है त्यक्त है ,आम बोल चाल की भाषा का अपना महत्व है उसकी अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है तो उसके आर्थिक,राजनैतिक,सामाजिक पक्ष भी है । अगर हिंदी पट्टी के आर्थिक पक्ष पर जायँ तो दिखता है कि हिंदी पट्टी अन्य भाषाभाषी पट्टी से पिछड़ा है । पूरे हिंदी पट्टी में भाषागत अराजकता का जो माहौल बना है वह अत्यंत दयनीय है ।भाषागत अराजकता यूँ ही नही है,इसके प्रयोग में बरती गई असावधानी सामाजिक दुष्प्रभावों के रूप में दिखती है । हमारा विकास सिर्फ साक्षर होने से नही होता उस साक्षर होने की जो मर्यादा है वह अनुशासन है उससे भी बनता है । पूरी हिंदी पट्टी की शिक्षा व्यवस्था चरमरा गई है । शिक्षा व्यवस्था में वरती गयी असावधानी एक तरफ जहां हमे भाषा के मर्म को समझने  में अक्षम कर रही है तो दूसरी तरफ भाषायी उन्मुक्तता ने इस पट्टी में रहने वाले लोंगों में उश्रृंखलता को जन्म दिया है । भाषा सिर्फ वह नही है जो आपके भाव को ही स्पस्ट करे भाषा वह भी है जो कंठ से निकलते या बोलते समय भाषिक अनुशासन भी बनाये । भाषिक अनुशासनहीनता  ही भाषा का क्षरण है । भाषाई क्षरण आता है सामाजिक संगठन में आई विकृति से  या अन्य भाषा के प्रति उपेक्षात्मक रवैये से । पूरी हिंदी पट्टी में शिक्षा के प्रति जो जागरूकता है वह जागरूकता शायद पहले न थी । यह स्तुत्य है कि शिक्षा के प्रति आई जागरूकता रोजगार है ? आत्मनिर्माण है ? या दो जून की रोटी ? हिंदी भाषा के साथ यह दुर्भाग्य स्वतंत्रता बाद से लेकर आज तक जारी है । पहले पंत निराला जयशंकर प्रसाद रेणु जी अन्याअन्य ने इसके गिरते स्तम्भ को बाखूबी संभाला लेकिन इनके बाद की पीढ़ियों ने भाषागत उत्तराधिकारियों के सामने एक चुनौती भी खड़ी की और आनेवाली पीढ़ियों ने इसकि चुनौतियों को स्वीकार करना तो दूर उनके सामने टिक भी नही सकी,अन्यान्य कारणों में एक कारण यह भी रहे कि अन्य भाषाओं की उपेक्षा हुई । सहज स्वीकृति के लिए असहज उपहास की जो प्रवृत्ति हमने अपनायी वह उपहासात्मक प्रवृत्ति ने हमे भाषायी अनुशासन को उखाड़ने में भरपूर मदद की,कोई भी भाषा उपहास की पात्र नही हो सकती जब तक कि उस भाषा मे सोची गयी चीजे स्वयम में उपहास न हो जाय,अंग्रेजी के विरोध ने हिंदी को अनुशासनहीन बनाया । जब आप किसी भाषा का विरोध करते है तो सिर्फ भाषा का ही विरोध नही करते आप मानवता की संस्कृति का विरोध करते है ।  आप दूसरी भाषाओं के आचरण स्वभाव भगौलिक प्रभावों से दूर एकांतिक होते है जहां हम और आप अच्छे हो सकते है पर भाषाओं के अनुशासनहीनता पर प्रश्न उठता रहेगा । हिंदी के पराभव के लिए इसके इतिहास व लेखन के मर्मज्ञों की खेमेवाजी ने इस भाषा के साथ समस्या खड़ी कर दी,कुछ को तत्सम के प्रयोग की आदत पड़ गयी तो कुछ को तद्भव की अपनी मनोवृत्तियों के अनुसार ! इसके उद्भट विद्वानों ने इसकी सांस्कृतिक निष्ठा पर भी प्रश्न उठाये,जिस तरह भाषा मे अलंकारों का प्रयोग बढ़ा उससे वह दुरूह ही हुआ ! हिंदी भाषा के सहज प्रभाव में अविधा ने उन पुरानी परम्पराओं को छोड़ा जो उसके सहज प्रवाह में गतिरोध का काम करते थे ! पांडित्य प्रदर्शन की यह खेमेवाजी इस भाषा को कुछ लोंगों तक सीमित करती गई ! भाषा वह वेग है जिसमे सहजता हो,प्रवाह हो,भाषा की सहजता को लाक्षणिकता में परोसा जाना उस भाषा के मूल उत्स के सौंदर्य के विपरीत है,फिर भी हिंदी भाषा के चितेरे इस भाषा के प्रति उठे सम्मोहन से खुद को नही बचा पाए और हिंदी की  मौलिकता को खो बैठे ! हिंदी भाषा पर काम कर रहे अध्यताओं को चाहिए था कि वे हिंदी को खमेवाजी से बचायें ! किसी भी भाषा को जानने के लिए उस भाषा के विज्ञान को जब तक न समझ लिया जाय वह अधूरा रहता है ! उच्चरित भाव की उतपत्ति का प्रवाह एवम उन भावों में भाषा का गर्भधारण न कर पाना ही भाषा का अवरोध है, निष्प्रभावी होना है ! यह हिंदी के साथ खूब हुआ है ! भाषा भी संस्कार की मांग करती है क्योंकि भाषा के संस्कार के अभाव में जगत की विद्रूपता या उसके आवेग - संवेग की  मौलिकता और उस मौलिकता में ठीक उसी भाव के साथ सम्प्रेषण उसके उत्स के साथ अभिव्यक्त करना ही भाषिक समृद्धि है ! जब तक हम मानव मन के भाव को उन शब्दों में नही लिख नही पाते या बोल नही पाते जिसमे उस स्वर का मूल उत्स है तब तक वह भाषा समृद्ध हो ही नही सकती,इसलिए यह आवश्यक है कि हिंदी भाषा विज्ञान के द्वार खटखटाये जायँ और और भाषा की बन्द पड़ी कोठरी में से कुछ शब्द निकाले जायँ नही तो यह अपने शाब्दिक सामर्थ्य के अभाव में यह अपना दम घोट लेगी !

Saturday, July 20, 2019

दुआर - दलान और ड्राइंग रूम

पहले दुआर होता था, किसी खास मेहमान के आ जाने पर दलान तक ही उनका आना - जाना सीमित होता था जहां खटिया,तखत,पलंग,वसहटा बिछाया जाता था,दुआर - दलान की यह सीमा व्यक्तिगत हुआ करती थी ! दुआर वह जगह होती थी जहां एक दलान होता था, जहाँ वरसात या दोपहर में धूप से बचने के लिए लोग बनाते थे ! उस जमाने मे बड़ों के साथ बैठने का साहस कम बच्चो में होता था ! उसका कारण था कही पानी के लिए न दौड़ा दें या कोई पहाड़ा न पूछ लें या गणित का सवाल या अंग्रेजी का ट्रांसलेशन या व्याकरण न पढ़ाने लगे ? सो बच्चे दिन की दोपहरी से बचने के लिए आम के बगीचे में होते  क्या ऊंच - क्या नीच ? कुछ नही था साहब ! यह दौर वर्ष 75 - 76 इमेजेन्सी और परिवार नियोजन का था जिसका हो हल्ला था ! सभी जाति के लोग आपसी भाई चारे के साथ रहते थे,नून,नमक,तेल,लकड़ी,तक उधार दे देते थे ! बहुतायत सम्पन्न वर्ग के लोग अनाज,मुफ्त में दे देते ! किसी को यह अभिमान न होता था कि उसने कोई एहसान किया है ! लेने वाला स्वयम ही आकंठ विनम्रता की मुद्रा में इस फिराक में रहता था कि अगर इनका कोई काम पड़ता है तो मैं उनके काम आ जाऊं ! मसलन शिक्षा,विवाह,बीमारी,मृत्यु तक में सब एक दूसरे के साथ वैठे रहते थे ! जिससे जो भी सहायता बन पड़ती करते थे ! किसी का बच्चा,किसी भी जाति का हो अगर वह पान,सुर्ती, सिगरेट,पीते दिख जाए या कहीं वह निषिद्ध वस्तुओं का सेवन करता हुआ दिख जाता तो उसे तुरंत ही डांट डपट देते थे बड़े लोग ! उस समय बच्चे सामूहिक समाज की संपत्ति थे ! यह कोई आवश्यक नही था आम,महुआ,पीपल,का बगीचा,खरिहान,आप का ही हो, वह सब सकके थे, आम के दिनों आम का,जामुन,महुआ,अमरूद, का खूब स्वाद लेते थे,जिसका पेड़ होता वह बड़े प्यार से खिलाते थे ! हां उस समय पढ़े लिखे लोंगों की संख्या कम थी, पर बहुतायत लोंगों की आदत या तो कबीर की तरह होती थी,या कुछ लोग रैदास जैसे होते थे,हा कुछ निराला की तरह अक्खड़ भी थे,इस तरह अक्खड़ और फक्कड़ के बीच ही व्यक्तितत्व का निर्माण होता गया ! अभी संविधान और कानून तो बहुत लोंगों ने देखा भी न था और जो लोग कानून और संविधान को जानते थे गांव आकर सब कबीर ही हो जाते,कबीर होने का मतलब सारा रौब वे गांव के सिवान से बाहर ही छोड़ गांव की वेशभूषा में हो जाते ! मेरे गाँव मे एक बार मानवीय हिंसा हो चुकी थी,आपसी ताना बाना कुछ दरक गया था फिर भी व्यक्तिगत सम्बन्धों ने उस दरार को कम करते - करते आपसी सौहार्द से लोगों के बीच पड़ी खाई को पाट दिया था,फिर लोग उसी तरह एक दूसरे के सुख दुःख में भागीदार होना शुरू हो गए थे ! कोई भी देश या गाँव राजनीतिक प्रभावों से कहा दूर रह पाता है ? क्योंकि सामाजिक अभिव्यक्ति ही राजनीति इक्षा होती है सरकार होती है ! इंदिरा गांधी चुनाव हार चूंकि थी,जनतापार्टी का शासन था ! जनता एक बार फिर ठगी जा चुकी थी ! मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे,उनदिनों विदेश मंत्री का पद आज कल की तरह गृहमंत्री की तरह ही महत्वपूर्ण होता था,अटल जी देश के विदेश मंत्री बने थे वे पूर्ववर्ती सरकारों की आलोचना से बहुत दूर अपने विदेश विभाग तक ही सीमित थे,वे अनावश्यक टिप्पणी से बचते थे ! पूर्ववर्ति सरकारों को भी लोग अपनी ही सरकार की तरह मानते थे इसका एक प्रमुख कारण यह हो सकता है की अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर हम अपनी ही सरकार की आलोचना कर रहे है ! ऐसी प्रवृत्ति रही हो ? उस समय किसी भी केंद्रीय मंत्री से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह द्विभाषीय है या नही ? उसका कारण था, उस समय देश  के नागरिकों  को लगता था कि विदेश में उनकी पहचान उनकी ही भाषा मे दिया जा सकता है ! नागरिक यह मानते थे की हम अंतराष्ट्रीय प्रभावों से बच नही सकते,अगर देश को अपने नागरिकों को उनके अनुसार सुविधा देनी है तो हमे अंग्रेजी भी सीखना होगा ! अतः सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अपने देश के उत्तरी हिस्से में हिंदी में संबोधन करते और दक्षिण में अंग्रेजी तो पूरब में भी हिंदी - अंग्रेजी का मिश्रण चलता था । भाषण को रेडीयो पर सुनते,खासकर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का भाषण विशेष महत्व रखता था ! समाचार हिंदी में देवकी नन्दन पांडेय व रामानुज प्रसाद सिंह और अंग्रेजी में इंदु वाही पढ़ती थी लेकिन उस तरह का उच्चारण हिंदी और अंग्रेजी का अभी भी याद आता है तो उनकी आवाज स्पस्ट गूंजती है जिसे मैं अभिव्यक्त नही कर सकता उच्चारण की शुद्धता और प्रवाह क्या कहने ! उन दिनों अंग्रेजी योग्य लोंगों की भाषा हुआ करती थी इसका पता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पता चला था,अपने यहां या तो बादशाह रहे या फिर राजा ? सभी राजा विक्रमादित्य ही नही रहे जयचंदों की भी कमी न थी ! भारत का पूर्वी हिस्सा बंगाल था ! वहां के लोगों ने स्वतन्त्रा आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसका कारण था वे जानबूझकर सत्ता की भाषा को पढ़ना शुरू किया वह इसलिए की विश्व की अद्यतन राजनीतिक गतिविधियों से वे अवगत हो सके ! चूंकि यूरोपीय लोंगों की शासन व्यवस्था थी और उनकी भाषा लैटिन से निःसृत थी उनका प्रभाव पूरे विश्व पर था सो उनके प्रभाव को कम करने या समानांतर होने के  बोध ने हमने अंग्रेजी पढ़ना,पढ़ाना शुरू किया वह भी इसलिए कि 1789 में फांसीसी क्रांति हो चुकी थी ! पूरे यूरोप का पुनर्जागरण 17 वी सदी के उत्तरार्ध तक हो चुका था ! यूरोप में लोकतंत्र मजबूत हो चुका था ! उस जामने में गांधी जी व अन्य को लगा होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था होनी चाहिए सो लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुना गया होगा कि हम भी अपने समस्त नागरिकों को जीवन संपत्ति और सुरक्षा की गारंटी देंगे,जैसा कि यूरोपीय देशों में था ! सो नेहरू या गांधी  को यह कहना कि उन्होंने लोकतंत्र को अपनाया और यह पद्धयति गलत थी यह उन महान नेताओं के साथ अन्याय होगा ! हां  हमारे यहां स्वतंत्रता की इक्षा का 300 वर्षों के बाद आना यह भारतीय भूभाग में रहने वाले लोंगों के लिए शोध का विषय हो सकता है ! विश्व की राजनीतिक,सामाजिक चेतना के इतने दिनों बाद हम भारतीय जागे ? यह शोध का विषय हो सकता है,वह भी करीब -करीब 300 वर्षो के बाद ! विलम्बित राजनीतिक चेतना का अभ्युदय यह इंगित करता है कि हम कहीं न कहीं यथास्थितिवाद के पक्षधर तो नही ?
क्रमशः