Thursday, November 21, 2019

डॉ0 फिरोज


डॉ0 फिरोज के लिए
भाषा किसी जाति व धर्म की नही होती।यह जो हो रहा है मैं एक भारतीय नागरिक के रूप में छुब्ध हूँ और बेहद दुःख है कि संस्कृत भाषा की संस्कृति कलंकित हुई है।हम क्या करें
हम नए तरह के आदिवासी जीवन जीने को मजबूर है।जहां कोई स्नेह नही है ना कोई प्रेम है,ना ही कोई परस्पर अनुराग है,जहाँ असहमति है,विखण्डन है,क्षोभ है,कुछ रिक्त हो जाने का भय है,कुछ पा लेने की चाह है,प्रतिस्पर्धा है,हम पुनः उसी तरफ चल रहे है जहां से हम यह कह कर चले थे कि हम सभ्य हो रहे है,हमने एटम बम बना लिए है,हमने उपकरण खरीद लिए है,हम जमीन पर दोनों पैरों से चलने वाले से साइकिल तक,साइकिल से कार,कार से हवाई जहाज,अब अंतरिक्ष मे प्लाट लेने की तैयारी है।क्या यह प्रगति है?प्रगति का अर्थ है लगातार उन्नत होने से है प्र जो ऊर्ध्व हो गति का अर्थ है चलायमान।सभ्यता के विकाश क्रम में हम गतिहीन नही हो सकते।इसका कारण यह है यह चराचर जगत गतिशील है।हम रुक जायँ पर जगत कहां रुकता है?वह गतिशील है तो इस गतिशीलता में आप आगे जा रहे है या पीछे यह देखना पड़ेगा।सभ्यता का विकास हिमयुग से शुरू होता हुआ पाषाण युग फिर धातुओं की खोज फिर उन धातुओं का सकारात्मक व नकारात्मक प्रयोग,आपस के झगड़े,युद्ध,विविषिका,फिर शांति।आज हम जहां खड़े है वह शांति है या शांति की विविषिका है?क्या हम कुछ ज्यादा भयभीत,अशांत,दुराग्रही,असन्तुष्ट,उत्पाती,नही हो रहे है?अगर यह सब है तो क्या हम सभ्य है?या हम सभ्यता की खोज में सेक्स के आनंद,मदिरा सेवन का आनंद नही ले रहे?अगर उपरोक्त में आनंद आ रहा है तो फिर हम असन्तुष्ट,भयग्रस्त,परस्पर प्रतिस्पर्धा में क्यों जी रहे है?बस्तुतः हम और आप मिलकर एक ऐसे समूह की संरचना कर रहे है जिसमे घृणा में आनंद आ रहा है?परस्पर प्रतिस्पर्धा में आनंद आ रहा है?बल पूर्वक किसी का कुछ छीन लेने में आनंद आ रहा है?अगर इन सब मे आनंद नही आ रहा है आनंद कहां है?सेक्स शराब,जमीन,दुकान,मकान,कार,बंगला,गाड़ी मोटर,हवाई जहाज अंतरिक्ष मे?आंनद और सभ्यता कहां है?यह सोचना पड़ेगा।क्या किसी का हक छीन लेने का आंनद,ऊंचे पद पाकर आप आनंदित है?हर जगह उत्तर नही ही मिलेगा।यह सब जो आप और हम कर रहे है।इसमें अगर आनंद होता तो ये प्रश्न ही न खड़े होते।इसका मतलब इसके निषेध में आनंद है?तो इसका सर्जक कौन है हम आप?तो दुःखी कौन होगा हम और आप ही।बस्तुतः यह एक गंभीर विषय है यह मनोरंजन का विषय नही है।हम और आप ही ने मिलकर इसकी सर्जना की है।अगर सर्जना नकारात्मक है तो इसे समाप्त करने पर ही हम आनंदित रह सकते है।तो क्या हम आधुनिक बस्त्र पहने आदिवासी है?या आदिवासी होना ही मनुष्य का मौलिक चरित्र है?तो क्या हम नए किस्म के आदिवासी होते जा रहे है जहां हमारा कोई समाज नही है ना ही कोई सुरक्षा है।क्योंकि सुरक्षा के लिए हमने पिस्तौल बना ली है?सुरक्षा के लिए कांक्रीट के ऊंचे दीवार बना लिए है?क्या कुत्ते के साथ सड़क पर  हम कुत्ते से मैत्री का भाव रख रहे है कि उसके अलावां कोई आपका मित्र नही है?तो जीवन क्या इस पड़ाव पर आ चुका है कि हम मनुष्यों में संभावना बची ही नही रह गयी है।हमारा मष्तिष्क लगातार प्रगति कर रहा है जितने डॉ0 बड़ रहे है उससे ज्यादा रोगी?क्या डॉ0 रोग बढ़ा रहा है?या सभ्य होना आनंद से च्युत होना है।तब तो वही काल अच्छा था जब हम सामूहिक रूप से जीवन जीते थे।तो क्या हम आधुनिक बस्त्रों में क़बीले नही है?अगर नही हैं तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हम कितने भी सभ्य हों या सभ्य दिख रहे हो हम बस्तुतः सभ्य नही है।हम शिक्षित इसलिए होते है कि हम सभ्य परिवार बनायेगे,यही परिवार समाज का अंग होता जाता है फिर यही राष्ट्र का फिर अंतराष्ट्रीय संदर्भो में होता जाता है।हम जहां भी समाधान की तरफ बढ़ते है समस्याएं जटिल और जटिल होती जाती है।इसका एक मात्र निदान सहअस्तित्व व अहिंसा है।हम भारतीय कुछ असहिष्णु व अहिंसक होते जा रहे है।हम जब विचारों के कपाट बंद कर लेते है तो नए विचार दस्तक नही देते।अतः सब लोग खुले मन से एक दूसरे के साथ सहअस्तित्व बनाये व अपने-अपने परिवारों को प्रसन्न रखे।अन्याय के खिलाफ एकजुट हो व अच्छे लोग सार्वजनिक जीवन मे आएं विचार व्यक्त करें।हमारा पूरा भारतीय समाज फिर 1947 से पहले की स्थिति में न पहुंच जाए इसके लिए हमे खासकर बुद्धिजीवी वर्ग को आगे आना पड़ेगा।2014 से राजनीतिक दिशा ग़लत रास्ते पर जा रही है इसको रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है और उनलोंगों से सतर्क रहने की जिम्मेदारी भी है जो हमारा एकता व अखड़ंता को नष्ट करना चाहते है।हम धनहीन होते हुए मन से कर्म से व वचन से सबकी सेवा कर सके ऐसा ईश्वर हमे सद्बुद्धि दे।अगर हम लिख सकते है तो लिखे जो भी कर सकते हो करे।मुझे लग रहा है हम प्रगति न कर अधोगति की तरफ जा रहे है।यह अतीत का अनुभव है जिसे मैं व्यक्त कर रहा हूँ।हमारी कट्टरता हमारा विनाश कर देगी।हमारी जीवन पद्यति,शिक्षा पद्यति,आर्थिक पद्यति,सामाजिक पद्यति,राजनीतिक पद्यति कट्टरता में नही रही है।हम ज्यों ही कट्टर होते जायेगे शनै: शनै: विनाश की तरफ बढ़ रहे होंगे।अतः राम कृष्ण,विवेकानंद के इस देश को राम कृष्ण के अनुसार चलने दे,इनके नाम पर राजनीति,अर्थनीति,से अगर बच सके तो बचे,हां अगर लोकतंत्र को बचाना है तो जातिबाद को मिटाना होगा।लोकतंत्र एक अनुपम धरोहर है हर कीमत पर इसे बचाना हमारा नागरिक धर्म है,लोकतांत्रिक मूल्यों व वैश्विक शांति के हम तभी अग्रदूत हो पाएंगे जब हम शांत व हमारी वैश्विक साख बची रहे।अन्यराष्ट्रीय संदर्भों में हमारी साख गिर रही है अतः क्षरण से रोकें।

मैं लिख लिख कर अपना काम कर रहा हूँ।आप भी लिखें।

Monday, November 18, 2019

दिनमान 93


मंदिर शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से मन व दर की संधि से जो बना है वह मंदिर है या मन के दर(स्थान) जहां खुलते है वह मंदिर है।मन क्या है?आइए आज इस विषय पर चर्चा करते हैं।मन मष्तिष्क की अत्यंत सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।बस्तुतः मष्तिष्क की रचना धर्मिता ही मन है।जिसको केंद्रीय स्नायुतन्त्र कहते है।हम सबका केंद्रीय स्नायुतन्त्र इतना संवेदनशील होता है कि हमारी दैनिक जीवन की सारी कार्यविधियों का यह संचालक होता है।मष्तिक एक स्थूल परिधि है जिसकी भित्ति पर मन गतिशील होता है।बस्तुतः जिस शरीर के हम वाहक होते हैं उस शरीर की मूल आवश्यकताओं में आहार है।आहार के विना शारीरिक क्रिया की गतिशलता असम्भव है।अतः शरीर को आप अन्न से जोड़ सकते है।लेकिन मन भौतिक शरीर का वह सूक्ष्म शरीर है जो हमे क्रियाशील ही नही बनाता वह अत्यंत गतिशील भी होता है।मन की गतिशलता में मष्तिष्क वह केंद्रीय तत्व है जिसके अस्तित्व में होने के कारण ही मन है।मन अत्यंत सूक्ष्म शरीर होता है जिसमे कल्पना,सर्जना,वह केंद्रीकृत संवेदना है जिसे आप स्पंदन भी कह सकते है।वह तरंगित होता रहा है।यह लागभग आपके शरीर का अत्यंत सूक्ष्म भाग होता है जिससे आपमें स्मरण शक्ति होती है।और स्मरण शक्ति व वाह्य जगत से निष्कर्ष प्राप्त व उस निष्कर्ष का कल्पनाओं के आधार पर आप किसी भौतिक वस्तु को जिस तरह देख रहे होते है उसमें वह चित्र या विचार जो पूर्व में आपके स्मृति के अंग रह चुके होते है उन्ही विचारों व अभिव्यक्तियों का वह सममुच्चय होता है।सारे विचारों का स्फोट आपकी संकलित की गई जो स्मरण शक्ति है।उसके ही आधार पर आप कोई भित्ति चित्र बना सकते है या लिख सकते है या बोल सकते है या आप करते है।अतः आप यह कह सकते है कि स्मरण और संकलित विचार या विशेष दृष्टि जो आपके मनोनुकूल होती है आप अभिव्यक्त करते है।इसी तरह से आप झूठ बोलते है अच्छे कार्य भी करते है।क्योंकि यह सब सामाजिक अन्तःक्रिया के परिणाम होते है।आपका शरीर इसका संवाहक होता है अतः संवाहक के अस्तित्व व परिवेशकीय संरचनाओं से यह अछूता नही हो पाता।इसकी अधिकता में आपके पूर्वाग्रही होने के खतरे हो सकते है।क्योंकि मनुष्य की कल्पना शक्ति का प्रकार अतिभिन्न है।जैसे कोपरनिकस ने जब यह कहा होगा कि पृथ्वी गोल है तब उसने पृथ्वी का माप नही लिया होगा पर दूर क्षितिज के अंडाकार होते दृश्य से हम भी इस कथन को मान लेते है कि पृथ्वी गोल है बाद में कोपरनिकस की कल्पनाओं के आधार पर यह वैज्ञानिकों ने माना की बस्तुतः पृथ्वी गोल है।मन का शरीर भी आपके शरीर का वह भाग है जो स्थूल रूप से वह अभिव्यक्त होता है।जैसा रूप व शारीरिक संगठन होता है उसी के अनुसार आपका सूक्ष्म शरीर होता है।मन इन्द्रियानुभव का वह आकार होता है जिसमे रूप,रस,स्पर्श,घ्राण,एवम प्रत्यक्ष व परोक्ष की कल्पना करता रहता है।मन ही एकमात्र वह कारक शक्ति है जिससे जगत का व्यापार चलता है।निर्भर यह करता है आपका जो प्रत्यक्ष अनुभव है वह आप किस तरह उसकी अनुभूति करते है।बस्तुओं की ग्रहण शीलता व बोध के भिन्न-भिन्न आयामों में आपने जो स्मृति का भाग बना रखा है वह ऊर्जान्वित है या नही?यह मानते हुए चलें कि दृष्टि वैभिन्न इसलिए होता है क्योंकि आपकी घ्राण शक्ति, स्पर्श की संवेदना का घनत्व कितना-कितना है साथ ही साथ दृष्टिबोध की आवृत्ति की पूरकता का अनुपात कितना-कितना है।अगर हम सब समग्रता से सब देख रहे होते है तो दृष्टि की विभिन्नता में भी एक निष्कर्ष को प्राप्त होगें नही तो दृष्टि की विभिन्नता आ जायेगी।क्योंकि आपके द्वारा जो स्पर्श किया जा रहा है या जो देखा जा रहा है या जिसका अस्वादन किया जा रहा है सब का बोध अलग-अलग होगा।इस अलगाव में भी मन एक सममुच्चय है तो जो सममुच्चय के रूप में जो होगा वह सममुच्चय में ही चीजों को देखेगा।यही मत मतांतर है।हर व्यक्ति का जिस तरह शरीर अलग-अलग होता है उसी प्रकार मन की स्थिति भी अलग-अलग होती है।अतः बोध की एकता ही मन की एकता है अन्यथा बोध की एकता के अभाव में आपका बोध अपूर्ण होगा।मन एक पूर्ण इकाई है।किसी का मन न तो रिक्त होता है ना ही उसे रिक्त किया ही जा सकता है।अतः पूर्ण से पूर्ण को निकाला जाएगा तो वह पूर्ण ही बचेगा।तो वह मन का जो दर(स्थान) है वह मन का मन्दिर है या वह दर जहां मन है वह मंदिर है या आप यूँ कह सकते है कि जिन-जिन समुच्चयों में मन है और मन का दर है वह मन्दिर है।इसलिए मन एक मंदिर है या शरीर एक मंदिर है जहां हमारा मन दर पाना चाहता है जहां मन स्थान पाना चाहता है वह मंदिर है या शरीर ही वह दर(स्थान)है जहां मन है।

आप सभी मित्रों का अभिवादन ।

Sunday, November 17, 2019

दिनमान 90

दिनमान 90
आज लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकार भाईयों का दिवस है।भारतीय गणराज्य का यह वह लोकतंत्र है जहाँ के पत्रकारों को कोई सुविधा नही है।घुट-घुट के पत्रकारिता करते यह इस गणराज्य का वह लोकतांत्रिक स्तम्भ है जहां इनकी आर्थिक सुरक्षा,बीमारी,अस्पताल,बस,रेल,हवाई जहाज,सूचना प्राप्त करने,साहब लोंगों से कुछ पूछ लेने का कोई अधिकार नही है।जिन लोंगों को यह सुविधा प्राप्त है वे दिल्ली स्टेट गेस्ट हाउस के वे पांच सितारा अब के जमाने मे दस सितारा होटल के मेहमान होते है जिनके लिए गाड़ी व ड्राइवर की गाड़ी खड़ी रहती है।अब पत्रकार कारपोरेट व सरकार के बीच सेतु का काम कर रहे है।इस समय कारपोरेट पत्रकार जहां एक तरफ मोटी तनख्वाह पा रहे है।तो नए-नए पत्रकार डंडे की मार या मुकदमे के डर से  नही लिख रहे है।अब हर पत्रकार कहां से कोई मीडिया हाउस खोल सकता है?शुक्र है एक रविश कुमार जो ट्रोल हुआ है और इन्ही के पत्रकार मित्र उसको ट्रोल करते रहे हैं।जब आम जनता उसके साथ खड़ी हुई है तो हालात कुछ सामान्य हुए है।हमारे गांव के कई बच्चे पत्रकार है।मेरे गांव के एक पत्रकार भाई ने मुझे बताया था कि किसी जमाने में मजीठिया आयोग बना था।जो पत्रकारों की आर्थिक सुरक्षा और पत्रकारों को कर्मचारियों की तरह से सेवा सम्बन्धी कुछ प्रस्ताव सुझाये थे,मजीठिया आयोग की संस्तुतियों व उसके अनुपालन के लिए एक निर्णय मा0उच्चतम न्यायालय ने पत्रकारों के पक्ष में आदेश भी दिया था।लेकिन यहां के कारपोरेट को बीस प्रतिशत का लाभ नही चाहिए?यहां के कारपोरेट भी अस्सी प्रतिशत फायदे के चक्कर मे मानवता को बेंच दे रहे है।पूंजीपतियों की संख्या कम है,और श्रमिक ज्यादा हो गए है,तो मजदूरी का रेट पर अगर पेट पर काम हो जाय,तो इससे ज्यादा अच्छा क्या रहेगा?यही भारतीय पूंजीपति हैं और यही इनकी मानवता है।इन पूंजीपतियों को यह नही समझ आता है यही वो श्रम है जो पूंजी में रूपांतरित होती है जिससे उनकी पूंजी की आभा है तो लक्ष्मी की आभा को तिजोरी में रखकर चैन से सो रहे है।सुप्रीम कोर्ट और कानून इनके घर पानी भरता है।मेरे पास आंकड़ा नही है ना ही मा0 उच्चतम न्यायालय का आदेश है ना ही इन पत्रकारों में इतनी हिम्मत ही है कि वे जहां काम कर रहे है उनके खिलाफ संवैधानिक अधिकार मांग सके?पत्रकार को क्या कोर्ट भोजन कराएगा?ये लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ चुप-चाप अखबार मालिकों की जी हूजीरी कर रहे है।क्योंकि खाने पीने की व्यवस्था इन्ही अखबार मालिकों के भरोसे चल रहा है।अगर अवमानना बाद दायर कर दे तो नॉकरी चली जायेगी।ऐसे तो एक टाइम का भोजन भी सुरक्षित है न?तो मा0 पत्रकार महोदय लोंगों से निवेदन है कि अपने लिए अपने देश के लिए पीत पत्रकारिता छोड़कर अपनी आंतों में थोड़ी हवा भरे वह हवा सीने तक आ जायेगी कुछ अपने व अपने बच्चो की हक की लड़ाई लड़ ले।हमलोग तो वकील लोग है,हमको व जज साहब को तो ऋषि मुनि हो जाना चाहिए न?हमारे न घर होते है?न ही हमारी बीबी होती है न बच्चे होते है?पहले हम स्वतन्त्रता के आंदोलन के नेतृत्व करने वाले हुआ करते थे तो आजकल गुंडे हो गए है।तो आप जैसा कर रहे है वैसा ही भर भी रहे है।आप पढ़े-लिखे लोग जब वकीलों और काले कोट को गुंडे बदमाश कहेंगे तो क्या होगा?चार पायों पर खड़ा लोकतंत्र जब आपस मे ही अलोकतांत्रिक होगा तो लोकतंत्र का क्या होगा?आपलोग ज्यादा समझदार है यह हम कहां नही मानते कि आपने जो विद्वान कह-कर हमारा मजाक उड़ाया है वह आपने लोकतंत्र के लिए अच्छा किया है?हमलोगों को तो जनता की नजर में आपने धो ही दिया है।लेकिन हम वो नही जो आप सोचते है।हम तो वही सोचते है जो संविधान की प्रस्तावना सोचती है।इसीलिए हम खुद के बारे में कम हम भारत के लोंगों के बारे में ज्यादा सोचते है।यह हम वकीलों की एक ऐब है हम ऐबी जो ठहरे?हम वकीलों का क्या है?पाकिट में अठन्नी न हो पर क्लास वन आफिसर है।गाहे वेगाहे इस अकड़ से हमारे जज साहब भी परेशान रहते है।इसीलिए बहुत लोग ला करते-करते जज हो जाते है।कुछ जो इस वकालत पेशे में है वे भी जज भी  बन जाते है।फिर वे ही ला ग्रेजुयट जज साहब,वकील साहब को सब्जी बेचने से लेकर जेल भेज देने की धमकी देते रहते है।इसीलिए इस स्तम्भ का भी पाया हिल ही रहा है।वो हम वकील हैं कि अपनी टांग अड़ाए है तो न्यायपालिका का विशाल न्यायतंत्र खडा है।वह चाहे नायब तहसीलदार साहब की कोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट हो?आपलोग ही वे सजग प्रहरी है जिनकी सूचना पर सरकारों का भविष्य तय होता है।हम कानून के जादूगर है तो आप आंकड़ों के जादूगर है।हमारी जादूगीरी संविधान सम्मत है तो आपकी जादूगीरी शब्दों की जादूगीरी है।बता दीजिए जीडीपी दस प्रतिशत है।हम कैसे नही मान लेंगे?मानना पड़ेगा ही।वैसे ही जैसे दरोगा जी की प्रथम सूचना रिपोर्ट है कि अदालत में जिरह करते रहिए एक बार दरोगा जी चाह जाय तो जेल तो पक्का है।यह इसलिए आज नहीं लिख रहा हूं यह न जाने कब का पक्का हो चला है कि नॉकरशाह पुलीस व नेता जी का गठजोड है।इस पर भी सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट है।अगर वह सरकार इम्प्लीमेंट कर देगी तो लोकतंत्र नही आ जायेगा?तो हमारे आपसे सबसे बनी जो सरकार है वही दोषी है?तो उसके घर लिए चलता हूँ।आईये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से इंडियागेट चलते है।यहां अमर जवान की जो ज्योति जल रही है इसकी अनवरत लौ में लोकतंत्र दिख जाएगा।वो देखिए अमर जवान ज्योति से विजय चौक राष्ट्रपति भवन है उसके ठीक बगल में संसद भवन है जो इस देश की सबसे बड़ी पंचायत का भवन है।जहां से 136 करोड़ लोंगों का भविष्य संवरता है।यही से भारत रत्न सहित अनेकों पुरुस्कार मिलते है।यही वह लुटियन जॉन है जहां पहुंचने के बाद सबकी लुटिया डूब जाती है।जिसकी इस लूटीयन जॉन में लुटिया डुबी तो वह लुटिया भर लेता है तो जिसने लोटा डालके निकाला तो उतना पानी निकलता है।कुछ लोग बाल्टी ब तमलेट ले के जाते है और सात पुश्तों के लिए ऐसा पानी निकालते है कि 72 साल से पानी ही निकल ही रहे है।सुना है लुटियन जॉन में पानी व हवा की दिक्कत हो गयी है?तो हम भारत के लोग एक दूसरे से मिल कर क्यों नही रह रहे है?कोई नेहरू को गाली दे रहा है कोईं किसी को गाली दे रहा है।इस जॉन में शब्दों की मर्यादा लोंगों ने खो दी है।जब सबने घर फूक तमाशा देखने की ठान ही ली है तो आइए फिर भोगते है।मीठा-मीठा गप्प-गप्प तो कड़वा-कड़वा थू-थू क्यों भाई?बदलिए।बदलने से सब बदल जाता है।जब आप और हम बदल जाएंगे तब जव मीठा खाने का मन होगा मीठा खायेंगे और जब कड़वा खाने का मन होगा मिर्च डाल के कड़वा कर लेंगे।पहले जब सुगर के रोग का जमाना नही था तो लोग खूब गुड़ खाये है।तो देखिए विचारिये पत्रा खोलकर पंडीजी विना पैसा के सब बता दे रहे है फिर यह मत कहिएगा की पंडीजी ने बताया नही था।अब हम पत्रा बन्द करते है आपलोग भी फालतू की चीजों को बंद करे।'''संघे शक्ति कलियुगे""हम भारतीय  संघ को कह रहे है इससे आर एस एस का कोई लेना देना नही है।

आप सभी पत्रकार भाईयों को लोकतंत्र के पत्रकारिता दिवस की बधाई।अभी भी आपलोग बहुत अच्छा कर रहे है अच्छा करने का प्रयास करते रहिए हम सब साथ-साथ है। मित्रों को अभिवादन

Saturday, November 16, 2019

चाचा नेहरू को समर्पित

दिनमान 88 यह नेहरू को समर्पित है
ये भारत है !यहां हीरे,जवाहरात के तख्तताऊस पर न जाने कितने पैदा हुए और चले गए।कोहिनूर हीरा यहीं का है।हीरे में भी हीरे की खोज करने वाला भारत न सिर्फ कोहिनूर है,बल्कि वह नूर है जिसकी इबादत से पूरी कायनात जवां है।यह कोटि-कोटि ब्रह्मांडों का वह देश है जिसे किसी जामाने में आर्यवर्त कहा जाता था।तब इस भूभाग में रहने वाले सभी आर्य थे।आचार्य से आर्य समझे।यह वह भूभाग है जहां छह ऋतुओं का अनवरत कालचक्र चलता रहता है।जो विश्व के अन्य भूभागों में दुर्लभ है।भारत का वह भू भाग गांगा बेसीन का भूभाग है जिसने अपने तटीय क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपजाऊ व समतल जमीन व अपने निवासियों की विशाल जनसंख्या दी है।जिनकी सुवह जै राम जी से शुरू होता हुआ जै सियाराम तक होती है।उत्तर की उर्वरता में न जाने कितने देवता पैदा हुए तो उत्तर से दक्षिण को विभाजित करती विंध्य पर्वतमाला की बड़ी-बड़ी चोटियां है जिसको दक्षिण भारत का इलाका कहा जाता है।यह भारत माँ का वह बक्सा है जहां धर्म है,दर्शन है,आचार्य हैं।जहां बेद हैं श्रुतियाँ है,असंख्य बन है।कावेरी बेसीन का बहुत बड़ा भाग भारत की अविरल संस्कृति की सरिता है पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्षिण तक विस्तार है।जहाँ वेद लिखे गए हों जिसकी ऊँचाई ज्ञान की अंतिम उचाई है,जहाँ ऋग्वेद इस देश का चिंतन है तो यजुर्वेद यहां के निवासियों के लिये बनस्पतियों में जीवन देता हो तो सामवेद ध्वनि की ध्वन्यात्मकता में प्रभाव डालता है जो जीवन की सलिल सरिता है,अथर्वेद,अर्थों के अर्थ बताता है।भारत को देवभूमि भी कहा जाता है।जानते है क्यों?यहां राम,कृष्ण,व संत ही संत हुए है।विश्व का नक्शा उठाएं टापूओं पर बसे देश मिलेंगे।वह चाहे ग्रेट ब्रिटेन हो या अमरीका हो,फांस हो,जर्मनी हो।यहाँ का सर्वश्रेष्ठ मूर्ख भी उतना ही ज्ञान रखता है जितना कि ज्ञानी जन।जानते है क्यों?यहां की संस्कृति में सहअस्तित्व नाम का जो निच्छल भाव है वह इस देश के  मान को बढाता है।निच्छल शब्द से जो भाव उगता है वह उलीचने का भाव है उलीच देना का मतलब कुछ दे देना वह चाहे आशीर्वाद हो या इस देश का भूभाग हो।इसने विश्व को सिर्फ दिया ही दिया है।यह देश यहां के शासकों को सिर्फ देता ही रहता है यह लेता कुछ नही सब कुछ दे देता है।तो आप भी लीजिये दो अंजुरी गंगा जल न सही तो विलुप्त होती सरस्वती को ले सकते है।लेने के लिए झुकना पड़ता है और यहां के लोंगों ने झुक-झुक के बहुत कुछ लिया है।तभी किसी को बहुत कुछ दिया है।लेना और देना इस देश की विशेषता रही है।किसी देश का नागरिक जितना पढ़ के नही जान पायेगा।यहां का नागरिक मौखिक रूप से उतना अपनी जीवन शैली से जान जाता है।इस देश ने आक्रांताओं को भी उतना ही दिया है जितना इस देश के नागरिकों को दिया है।आक्रांताओं ने उसका सदुपयोग किया और शासन किया तो यहां के नागरिकों ने विगत चालीस वर्षों से जो उत्पात मचाया है कि यह फिर उसी ढर्रे पर निकल पड़ा है जिसे हम मध्यकाल मे छोड़ आये थे।जब कई सौ वर्षों तक लगातार पढ़ते रहेंगे और यहां के पुरातात्विक खोंजे करते रहेंगे तो सब कुछ सप्रमाण सब मिलते जायेंगे।यह विश्व की सबसे उन्नत सभ्यताओं में से एक है।इसका मतलब यह नही है कि सभ्यता के नाम पर आप हिटलर हो जाय?इसदेश के जनमानस में हिटलर कभी न पूज्य रहा है न रहेगा।इस देश ने पूरे विश्व को धर्म,जीवन दर्शन,व अविरल संस्कृति दी है।अगर हमारा इतिहास सौ पचास वर्ष का होता तो खसरा खतियान निकालता। यह कई हजार वर्षों की कहानी है तो कहाँ से खसरा व खतियान निकालूं?जिसके पास रुपया है वह सुदूर पूरब से सूदूर पश्चिम,व सूदूर उत्तर से सूदूर दक्षिण तक की यात्रा कर के देख ले।यहाँ की पुरातात्विक थातियों में वही सारे विश्व के खसरे व खतियान मिल जायेंगे।1857 से जब हम भारत के लोगों ने अपना खसरा व खतियान देखना शुरू किया तब जाकर नब्बे वरष के सतत संघर्षो,वलीदानों के बाद विश्व ने हमे 1947 में हमारा खसरा व खतियान दिया।उसमे जिन्ना की जिद ने पाकिस्तान बनवाया।वह इस देश का वह आवारा विगडैल बेटा है जो रोज-रोज अपने बाप से झगड़ा-रगड़ा करता रहता है।उसकी वेवकूफी से अफगानिस्तान और हमारे अफगानी भाई हमसे बिछड़ गए(सीमांत गांधी वही के थे)मुझे ऐसा लगता है वह फिर मिलेगा गलती सुधारेगा।सबकुछ होते हुए हम जानते है क्यों कुछ नही है?आपस की फूट यही आपसी फूट रही है जो हमें देवता से दानव बनाई है? जिसका इतिहास एक हजार ईसवी के बाद आता है।आज जब हम पुनः इक्कीसवीं सदी में है तो हमे अतीत से कुछ सबक लेना चाहिए।अनेकता में एकता जो 1947 में भगत सिंह,बोस,आजाद,गांधी नेहरू पटेल ने दिया,वह अगर विना मतभेद के रख सके तो रखे।यही से वह सब मिलेगा जो अभी तक नही प्राप्त हो सका है।अतः अपने पूर्वजों को न सिर्फ पढ़े ही उनके आचरण को अपने आचरण में ढाले यही अपने पुरखों के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।आईये हम गांधी,सुभाष,नेहरु भगत सिंह हो जाय।ज्यों ही आप एक हुए यह देश आपको इतना दे देगा कि आने वाली संतति आपको शब्दाजंलि देने से पहले शब्दकोश देखेगी की उस व्यक्तित्व के लिए कौन से शब्द पुष्प ठीक होंगे।तो निवेदन है शब्दों के ऐसे पुष्प बनाइये जिससे सबका पेट भरे,हर बेरोजगार हाथ को काम मीले,सब प्रसन्न हो सब सुखि हों।इसीलिए माहापुरुषों ने कहा है '' सर्वे  भवन्ति सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः,आज नेहरू जी का जन्म दिन है वे आधुनिक भारत के नीव थे।नीव दिखती नही वह पृथ्वी में दब जाती है।अतः नीव को और मजबूत करें उनकी स्मृति में पुनः हम अनेकता में एकता को बनाये रखे यही उनके जन्म दिन को मनाने की सार्थकता होगी।अन्यथा समय निकलता जाता है देश चलता जाता है।निकलते हुए समय को तो हम नही पकड़ पाएंगे पर अगर विना किसी भेदभाव के सबका सम्मान व हर हाँथ को काम देते जाएंगे तो वह दिन दूर नही जब हम पुनः मानवतावाद के अग्रदूत बन विश्व शांति का पाठ पढ़ाएंगे।

आप सभी के अंदर बैठे आदिदेव को प्रणाम।उस महान सपूत को प्रणाम जो कभी इस देश का लाल था।ऐसे लाल के जवाहर को शत-शत प्रणाम ।

वशिष्ठ नारायण सिंह

दिनमान 89 वशिष्ठ नारायण सिंह
महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का सस्वर शरीर नस्वरता को प्राप्त हो गया।अपने विद्यार्थी जीवन मे वे गणित विषय के विशेषज्ञता के लिये जाने गए।इससे पृथक जो गणित से हटकर जीवन था वह कुछ नही था।वह तो वह शरीर था जो उपयोगिता व ह्रास के नियम से आवद्ध है।उनके शारीरिक संगठन मे वह मष्तिष्क था जो गणित के अलावां कुछ नही था।उनको गंभीर मानसिक विमारी थी जो उनके मृत्यु तक साथ रही,उनकी असली मित्र भी वह बीमारी ही थी जो उनके जीवन में प्रसिद्ध गतितज्ञ होने के साथ तक रही।आज जब मैं लिख रहा हूँ तो सिर्फ उनकी विशेषता या उस गणीतिय प्रभाव से मुक्त नही हूँ कि वे प्रसिद्ध गणितज्ञ थे।मैं सिर्फ अपनी कलम इसलिए चला रहा हूँ कि वे गणितज्ञ थे,अगर मैं उनका पुत्र होता तो शायद उनको कोसता की क्या जरूरत थी ऐसी पढाई की जिसने जीवन को जीवन की तरह जीने ही न दिया?तो मेरा स्वयम का उत्तर भी यही होता कि यह उनका दुर्भाग्य था या जीवन का सौभाग्य की गहन विक्षिप्तता की अवस्था में भी उनके प्रशंसकों की कोई कमी नही है।यही तो जीवन है जो मरने के तत्काल बाद लोकमानस में जिंदा हो जाता है,इसीलिये वह जीवन जीत जाता है और मृत्यु हार जाती है।कहने वाले तो यहां तक कहते है कि जब तक आप मरेंगे नही तब तक आपको नर्क क्या स्वर्ग में भी जगह न मिलेगी?यह सही है कि मरना पड़ेगा तभी आपको या हमको नर्क या स्वर्ग मिलेगा।तो कब मरे ?इस सोच में बहुत लोग जिये जा रहे है।तो कुछ लोग मर-मर के जी रहे है?कि पता नही स्वर्ग व नर्क होता भी है या नही,चलो जी लेते है।जीने में भी हाच-पाच है कि मरे या जीये?मृत्यु क्या है?अगर व्यक्ति स्वस्थ है उसे शारीरक कष्ट नही है तो मृत्यु से साक्षात्कार करता हुआ मर जाता है,वह यह देखते हुए मर जाता है कि अब उसके स्वर के स्पंदनहींन हो रहे है और वह जब निस्पंद जब स्थगित हो जाता है फिर उस व्यक्ति की न कोई कल्पना होती है न कोई स्मृति होती है।वह निश्चेत होते-होते मर जाता है।निश्चेतना ही मृत्यु है।मृत्यु के बाद शनै: शनै: उसका शरीर नष्ट होना शुरू करता है।हमारी फिजियोलॉजी इस तरह की होती है अगर सक्रिय कोशिकाएं निष्क्रिय हुई तो वह सड़ने लगती है।अगर उसे उसी तरह छोड़ दिया जाय तो उसकी शारीरिक क्रिया के प्रतिक्रियाहीन होने की वह वजह है।जहां सूर्य की ऊष्मा उसे अवशोषित करती चलती है तो हवा उस ताप के अवशोषण को और हवा देती है।हाड़ मांस का शरीर क्रमशः गलना शुरू कर देता है व उसका सातत्य उसके शरीर को नष्ट कर देता है।फिर न उसकी कोई आकृति ही रहती है न उसकी सर्जना ही वह अतीत का वह भाग हो जाता है जैसे बीता हुआ कल हो।जैसे आपको याद है जब आप प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे तो आपका रूप रंग कैसा था?और आज कैसे है?तो क्या बदलती हुई शारीरिक अवस्था आपकी मृत्यु नही?यह बदलता चलता है और आपको पता भी नही चलता।इसकी प्रक्रिया इतनी धीमी-धीमी गति से होती है कि आप उससे अनजान ही जीवन को जी रहे होते है।वह जो आपका अतीत मरा है उसका अहसास है आपको है?नही।यही जीवन की तिलष्मी है कि जो आपको पता भी नही चलता और आप मर भी जाते है।यह जीवन के मृत्यु का पक्ष है तो जीवन का पक्ष वह यह है कि आप रोज-रोज जीये।जीते हुए मरें जैसे कुछ गांधी की तरह मर जायँ।उस तरह मरे कि लोंगो के लिए कुछ कर के मरे।मरना तो सबको है आज नही तो कल।तो हम रोज-रोज जी कर निर्भय होकर क्यो न मरे?भय में भी मरना है?निर्भय में भी मरना है?तो निश्चित कीजिये कैसे मरना है?जब आप किसी के सामने हाँथ फैलाते है मरने को तो आप उसी समय ही मर जाते है।जो आदमी जितना ही मरता है उतनी ही प्रचण्डता से वह जीता भी है।क्रिया -प्रतिक्रिया ही जीवन है।मृत्यु शरीर का स्थगन है।जितने ग्रन्थ लिखे गए है वह जीवन की जीवंतता से मृत्यु की भयावहता के बीच भोगी गयी त्रासदी में लिखे गए है।जीवन की जीवंतता लोकमंगल से जुड़ी है तो मृत्यु की भयावहता आस के अभाव से जुड़ी है।जीवन मे आस के दिये को जलाए रखिये रोज-रोज मरिये जिंदा रहने के लिए।यही जीवन है।इतने संवेदनशील न हो जाय कि आप और हम आत्महंता न हो जाएं।जैसे वशिष्ठ नारायण सिंह जिंदा रहे।बस्तुतः वे मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन उनके गणित ने उनको मार दिया था।यह जीवन उपयोगिता व ह्रास के नियम पर नही चलता यह जीवन जीवन की जीवंतता से चलता है जैसे महाराणा प्रताप का जीवन था,जोखिम में भी साहस रख्खे,लगातार जीयें उन असंख्य लोंगों को जो विरोधाभाषी जीवन की आवृत्ति में युक्त है युक्त से मुक्त ही जीवन है।ईश्वर और नियति और मानवता को यह देखना पड़ेगा कि जो वशिष्ठ नारायण सिंह थे वह नियति के मारे थे या मानवता के माननीयों ने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया।यही असली भारत का वह तथाकथित मानवता से भरा समाज है जो उपयोगी अत्यापयोगी अनुपुयोगी को योगी सिद्ध करती है।नही साध सकने में हमारे सामाज की विफलता ही वशिष्ठ नारायण सिंह को वह वशिष्ठ नारायण बनाता है।जिसकी कोई शिष्टता नही है यही जो नही है यही मृत्यु है नही तो जीवन आनंद ही आनंद ही है इस तरह एक गतितज्ञ आनंद को प्राप्त हो गया।यहाँ मृत्यु हार गई नियति भी उनका कुछ न विगाड़ सकी जीवन जीता वह मृत्यु वशिष्ठ नारायण सिंह से हार गई।नियति भी उनकी परीक्षा में अनुत्तीर्ण ही रही।उनकी अजर अमर आत्मा को प्रणाम
आप सभी का अभिवादन