Friday, October 5, 2012

अस्तित्व या मरघट



मर तो उसी दिन गया था ।
जिस दिन जन्म लिया था
अस्तित्व की हड्डियों को
बटोर -बटोर कर जुडा था
          खुद से
तमाम बिखरी हुयी नसों को
सिकोड़ता हुआ
छोटा हो गया था
अपने बौनेपन से देखता था
बड़ी पर्वत श्रृंखलाओं को
जिसकी परत बहुत मोटी थी
अन्दर तक धसी थी जैसे संस्कार
चीटियों की चाल बदहवास करतीं थी
फिर भी चल रहा था
         क्रम से
नसों की सिकुडाहट को सीधा कर रहा था।
चल रहा हूँ ,चाहता हूँ फ़ेंक देना, तोड़ लेना
उस श्रखला को जिसकी भित्ति पर असंख्य नर मुंड आज भी अपना दम तोड़ रहे,
देखता हूँ स्वप्न श्रृंखला के क्रमबद्धता की
एक नए समाज के अभ्युदय का
जहाँ पुन: स्थापित कर सकूं
नए मानदंडों के सहारे
इस किनारे उस किनारों के
आर -पार की खायी को मिटा सकूं
जो अतीत और वर्तमान का संयुक्त समझौता हो
जहाँ कोई न अतीत  हो
न हो वर्तमान ?
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8 comments:

  1. बहुत ही मर्म स्पर्शी रूप में पिरोई गई रचना ..वर्तमान परिवेश से रु-बुरु कराती है ..मन में एक उज्वल्त्ता अंधकार से प्रकाश के और आने की ..सुंदर रचना ..

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  2. ati samvedan sheel rachna, yatharth ka sateek chitra prastut karti ha.nirasha me asha ki jyoti prajjwalit karti hui ..जो अतीत और वर्तमान का संयुक्त समझौता हो
    जहाँ कोई न अतीत हो
    न हो वर्तमान ?ati sarthak...

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  3. Bahut gahri hai kavita, Astitv ka itna shuddh anklan, bahut marmik.

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  4. कवि रवि शंकर पाण्डेय की सद्यःप्रकाशित कविता ' अस्तित्व या मरघट ' एक अपूर्ण संसार में सांसें ले रहे आम जीवन के संचारी भावों को शब्दों से भिंगों प्रस्तुत कर प्रेम की सर्जना की है.इस पाठ में विद्रोह नहीं ,अपितु एक संघर्षरत आम जीवन की गाथा का सान्द्र भाव सुप्त है.अँधेरे के विरुद्ध उठे हाथों की एक प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करते हुये कवि ने आस्था को स्थान दे वर्तमान विकल्पों को तलाशा है.
    कवि की अभिलाषा अपने पाठकों के लिये कई सन्देश दे नई जमीं खोने की हिम्मत भी देकर स्तुत्य साहित्यिक धर्म का निर्वाह किया है.

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