- यह लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर सरकारों का चयन होता है।सरकारें भी दलीय प्रतिबद्धता से आबद्ध हो स्वयम को संसदीय व्यवस्था के साथ तालमेल बैठाते हुए जनता का प्रतिनिधित्व करतीं हैं।विचारणीय प्रश्न यह है की क्या सरकारों का भी दल होना चाहिए? पुरे वैश्विक पटल पर अगर दृष्टि डालें तो हम पायेंगें की जीतनें भी लोकतांत्रिक देश हैं दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर ही चुनाव लड़तें हैं और सरकारें भी बनातें हैं लेकिन पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों से भारतीय लोकतंत्र की जब हम तुलना करतें है तो आधारभूत अंतर स्पस्ट होता है,वह अंतर यह है की पश्चिम के लोकतांत्रिक देश जनता के प्रति ज्यादा जाबाब देह है अपेक्षकृत भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के समानुपातिक लोकप्रतिनिधित्व के,और उसका कारण यह हो सकता है की भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधार जो जन है वह राजनितिक दूरदृष्टि के अभाव में या वौद्धिक दबाव समूह जो मत का निर्धारण करती है उसकी तटस्थता से जनता को सही मार्ग नहीं दिला पाता और सरकारों का चयन दल के चयन के आधार पर होता है।यही कारण है की भारतीय लोकतंत्र जाति तक सिमित होकर रह गया है।अब राष्ट्रीय समस्यायों से कम सरोकार रखतीं हुयी अधिकाँश दल जातीय या क्षेत्रीय प्रतिबद्धता के आधार पर सरकारें बनाने में समर्थ होतीं हुयी दिख रही है। सरकारों से आशय एक ऐसी व्यवस्था से है जो सिमित कार्यक्रमों के आधार पर न कार्य करती हुयी पुरे राष्ट्रीय संदर्भों से सरोकार रखतीं हों।और हम सबसे पहले दलों का चयन करते समय हम स्थानिकता को ज्यादा महत्व देतें है अपितु राष्ट्रीयता के और यही हमारी भूल हमें संविधान की प्रस्तावना,उसकी मूल आत्मा के विरुद्ध कार्य करती हुयी दिखती है।भारतीय संविधान में समाजवादी अवधारणा का तात्पर्य उस व्यक्ति से है जहाँ आर्थिक समानता में बहुत बड़ा अन्तर न हो,लेकिन बस्तुस्थिति कुछ और ही है,आर्थिक असमानता की खायी लगातार बढती ही जा रही है,जो भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं,यह असंतुष्टि ही कभी अन्ना के आन्दोलन में तो कभी नक्सलबाद के रूप में दिख रही है।स्वतंत्रता के पश्च्यात जितनी भी सरकारें आयीं वे देश को स्पस्ट दिशा देने में असमर्थ रही है,कारण सरकारों का लोक कल्याणकारी निति का अभाव,एक प्रमुख कारण दिखता है वह है हामरी अद्दयोगिक निति जो हमनें बनायीं थी जिसमे निजी क्षेत्र के भागीदारी के साथ ही साथ सार्वजनिक क्षेत्र को भी उतना ही स्थान दिया गया था ,और यही मिश्रित अर्थव्यवस्था अपने पूर्वार्द्ध में तो फली फूली लेकिन 1990 के दसक तक आते आते मुंह को गिर पड़ी ,कारण था, निजी क्षेत्र के उपक्रम लगातार फायदे में चल रहे थे, और सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम लगातार घाटे में,सरकार ने जो कारण बताये वह यह था की प्रवंधन की कमी के कारण सार्वजानिक क्षेत्र की 50%पूंजी डूबती जा रही है, इसलिए इसका निजी करण किया जाना आवश्यक है,इस घटे की भरपाई के लिए सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रम को निजी क्षेत्रों को सौप दिया गया,जिससे बित्तीय अनुशासन बना रहे।तत्कालीन क्षतिपूर्ति के लिए भरपाई होती गयी ,परिणामत: सार्वजानिक क्षेत्र से जुड़े लोंगों के रोजगार पर असर पड़ा, बेरोजगारी बढती गयी,श्रम कानून भी प्रभावहीन हो गए,90 के दशक के आस -पास अप्रासंगिक हो चले,90 के बाद के जितने भी माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय आये वे रोजगार के अधिकार और उससे जूडी कठिनाईयों से आम जनता को कोई रहत नहीं दे पाए,एक तरह से श्रमिक के अधिकारों को सिमित करते हुए निजीकरण और उससे जुड़े विवादों में आम जन कानून के द्वार पर भी हारा और निजी उद्योग जीते।व्यवस्था चाहे कोई भी हो जब तक व्यक्ति का चरित्र राष्ट्रोंमुखी नहीं होगा वह देश,उस देश का समाज,सामाजिक आर्थिक न्याय को नहीं प्राप्त कर सकता। नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में जो उदारबाद का दौर चला उसके परिणाम स्वरूप तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पूंजीनिवेश किया लेकिन वह पूंजीनिवेश आधारभूत ढाँचे पर न निवेश करते हुए सुचना एवं प्रोद्दोगीकी पर किया गया परिणाम स्वरूप रोजगार के सृजन तो हुए लेकिन इतने विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए वह बहुत कारगर साबित न हो सका,हमारे पास सूचनाये हैं तकनिकी भी है लेकिन क्रय करने की शक्ति का ह्रास हुया इसकी भरपाई के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने क्रय शक्ति बढाने के लिए एक नए प्रयोग शुरू किये वह था बहुराष्ट्रीय बैंकों का पदार्पण जिससे तत्कालीन अर्थव्यवस्था को गतिशील करने के लिए जमा दरों में ब्याज की कमी और सस्तें दरों में ऋण की प्राप्ति इससे बाजार गतिशील हुआ लेकिन इसका भी फायदा उनलोंगों को ही हुआ जो समाज में अपना अस्तित्व बना रखने में सक्षम थे यह एक क्षणिक,काल्पनिक,गतिशीलता थी।अगर हम सचमुच संविधान की मूल भावना के अनुरूप कुछ करना चाहते है तो हमें सार्वजानिक क्षेत्र को मजबूत करना होगा तभी हम भारत के लोग,भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नं समाजबादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को सामजिक ,आर्थिक और राजनैतिक न्याय विचार अभिव्यक्ति ,विशवास धर्म और स्वंत्रता सुनिश्चित कर सकने में सफल होंगें।
Sunday, October 7, 2012
दलीय व्यवस्था और सरकारें
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bilkul satik lekh
ReplyDeleteAGREED WITH WHAT YOU HAVE SAID.
ReplyDeletesamay ke sath parivartit hona hi gati sheelta ha,yahi sthiti bhartiya constitution me bhi lagu hoti ha.desh ke mauzuda halat desh ki pragati me badhak hai.atah samvidhan me parivartan ki apeksha hai..!!
ReplyDeletelekh atyant samyik hai .अगर हम सचमुच संविधान की मूल भावना के अनुरूप कुछ करना चाहते है तो हमें सार्वजानिक क्षेत्र को मजबूत करना होगा तभी हम भारत के लोग,भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नं समाजबादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को सामजिक ,आर्थिक और राजनैतिक न्याय विचार अभिव्यक्ति ,विशवास धर्म और स्वंत्रता सुनिश्चित कर सकने में सफल होंगें।nice quotes..!!
मा रवि जी, लेख सुन्दर है पर दर्शन से ओत-प्रोत है,कृपया अपने विचारो की भाषा को आसान करने का कष्ट करे ताकि अधिक से अधिक लोगो के लिय़े संप्रेषयणीय बन सके,आज समय की जरूरत है कि बात को खुल कर कहा जाय आम लोगो के लिये लिखा जाय तभी ये विचार फलीभूत हो सकेगे ।
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ९/१०/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी
ReplyDeleteएक अच्छा आलेख पढने को मिला! इससे पता चलता हैं कि आप जेसा व्यस्त व्यक्ति भी समय निकालकर भारतीय राजनीति और अर्थनीति पर एक विस्तरित विशेषण लिखते हैं और समाज की दुर्दशा पर चिंतित और संवेदनशील हैं.
ReplyDeleteबहुत यथार्थ परक अतिउत्तम लेख
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