भय नहीं मृत्यु से
भयग्रस्त हूँ
जीवन से ।
विविधताओं से
आकांक्षाओं से
उपलब्धियों से ।
कि जीवन जोंक की तरह न हो जाय ।
जो स्वयम से चिपट कर
स्वयम को न खा जाय ।
कि तिल -तिल कर चुसे जाते हम
रक्त विहीन हो गएँ हैं
देख रहें हैं अपनी धमनियों को
अभी जो रक्त था वह सूख क्यों गया ?
क्या विवशता थी
कि हम पल्लवित पुष्पित
ठूँठ की तरह हो गए ।
क्यों हो गए
किस तरह हो गए ।
जानता हूँ ।
जानने का प्रयाश भी करता हूँ
फिर यथार्थ का जीवन कोना
नहीं मुक्त करता भय से
भयग्रस्त जीवन से ।
anupam
ReplyDeleteअति सुंदर..जीवन जोंक की तरह न हो जाये..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (27-04-2013) कभी जो रोटी साझा किया करते थे में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'