Monday, February 18, 2013

भयग्रस्त



भय नहीं मृत्यु से
भयग्रस्त हूँ
 जीवन से । 
विविधताओं से 
आकांक्षाओं से  
उपलब्धियों से ।
कि जीवन जोंक की तरह न हो जाय ।
जो स्वयम से चिपट कर 
स्वयम को न खा जाय ।
कि तिल -तिल कर चुसे जाते हम 
रक्त विहीन हो गएँ हैं 
देख रहें हैं अपनी धमनियों को 
अभी जो रक्त था वह सूख क्यों गया  ?
क्या विवशता थी 
कि हम पल्लवित पुष्पित 
ठूँठ की तरह हो गए ।
क्यों हो गए 
किस तरह हो गए ।
जानता हूँ  ।
जानने का प्रयाश भी करता हूँ 
फिर यथार्थ का जीवन कोना 
नहीं मुक्त करता भय से 
भयग्रस्त  जीवन से ।








3 comments:

  1. अति सुंदर..जीवन जोंक की तरह न हो जाये..

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (27-04-2013) कभी जो रोटी साझा किया करते थे में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete