दासत्व के एक लम्बे काल खंड के बाद हम 70 वर्ष पूर्व ही आजाद हुए है .किसी भी देश के लिए इतना समय बहुत ज्यादा नहीं होता,
फिर भी हमने लोकतान्त्रिक जीवन शैली को अंगीकार किया, यह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था.जबकि
अन्य लोकतान्त्रिक देश काफी पहले स्वतंत्रता को प्राप्त हो चुके थे.राष्ट्रवाद हम सबके
लिए नयी अवधारणा थी.हमने लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जीवन जीने की क़ला को सीखना आरम्भ
किया जो निरंतर अबाध गति से जारी है.इस व्यवस्था में हमारे सांकृतिक जीवन मूल्य धर्म,
दर्शन और हमारा निज का इतिहास है,जो जारी है आखिर इतने समुन्नत संस्कृति के संवाहक
होते हुए भी हम इतने लम्बे काल खंड तक गुलाम क्यों रहे? यह प्रश्न बार -बार मेरे मष्तिष्क
में कौधता है.सम्यक उत्तर खोजने की तलाश भी करता हूँ पर कुछ संतोष जनक उत्तर नहीं मिलता,
कारणों की तह तक जाने का प्रयाश करता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे दासत्व के पीछे हमारे
दर्शन का जो तत्व रहा है वह मानसिक रूप से काफी पुष्ट था. किन्तु इन्द्रियविषयक जो
सोच थी वह यथार्थ कम वायवीय ज्यादा थी.हमें आत्मा की अजरता को स्वीकार किया.अपना समग्र
चिंतन आत्म तत्व ही सिमित रखा, जबकि दैनिक जीवन में हम अपनी इन्द्रिय तत्व से जीवन
जीते है, जीवन के प्रति जो जिजीविषा पाश्चात्य दर्शन में दिखयी पड़ता है उस तत्व की
कमी थी,आखिर वे कौन से कारक तत्व थे जो हमें आविष्कार करने से भारत भूगोल को बंचित
कर दिया ?मैंने वेद नहीं पढ़े है, सुना है वेद पूरा का पूरा वैज्ञानिक सोच पर आधारित
है. चूँकि सभी चीजे संस्कृत में लिखी गयी है ,और वह भाषा हमारे दैनिक जीवन से कट सी
गयी, अस्तु हम ठीक -ठीक नहीं कह सकते की उसमे सन्निहित तत्व क्या थे.मुझे तो आश्चर्य
भी इस बात से होता है की मैक्स मूलर को पढने के बाद ही हम जान पाए की भारतीय संस्कृति
कितनी महान थी. यह किस तरफ इशारा करती है ?हमरा धर्म दर्शन अंतर्जगत की यात्रा करते
-करते अंतर्मुखी हो गया.और अन्य देशों ने भौतिक जीवन जिससे उन्हें रोज दो चार होना
था, उसके प्रति मोह स्थापित किया और वे ज्यादा जागतिक हो गए. यही जागतिक होना उन्हें
वरदानित कर गया. उन्होंने जीवन के यथार्थ से जुडी तमाम समस्याओं के निराकरण के लिए
पूरी जिजीविषा से यथार्थ की कठोर भूमि पर साधना शुरू की और आज वे विकसित राष्ट्र के
रूप में जाने जा रहे है . मै सोचता हूँ कि क्या हमारे जीवन पद्यति में वैज्ञानिक दृष्टिकोणकोण
का आभाव सा था, या भाषाई सम्प्रेषणनियता के आभाव में हम अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को
जान ही नहीं पाए ?..अब आवश्यकता है आगे आने वाले ५० वर्षों के मूल्यांकन करने की परिकल्पना
करने की???अगर अब भी हम जातियों में विभाजित रहे अगर अब भी हमारे सोचने का नजरिया वैज्ञानिक
नहीं रहा तो आने वाला समय चुनौती भरा होगा.स्वतंत्रता के पश्चात भी हम जातियों में
मामले में परतंत्र है, हममें एकता की कमी है. हममे मानवीयता की अब भी कमी है.सामन्तवादी
प्रवृत्ति हमारे मन मष्तिष्क से नहीं जा रहीं है ?70 साल की यात्रा में हमने अभी भी
यथार्थ के धरातल पर सोचना नहीं शुरू किया है.परस्पर निर्भरता हमारी बढती जा रही है,
आवश्यकता है इन चुनौतियों के सामना करने की,यद्दपि समस्याएं अनेक है फिर भी प्रतिगामी
परिस्थितियों में दुगने ऊर्जा के साथ हम सब को एक नए भारत के पुनर्निमाण की प्रक्रिया
में लगना होगा,जागृत राष्ट्र के लिए प्रगति की दिशा के निर्धारण के लए 70 वर्ष कम नहीं
होते. दुःख है की हम अभी तक यह नहीं कर पाए ! न आर्थिक विषमता, न जातिगत भावना , न
अन्धविश्वास कुरीतियों को मिटाने , न शिघ्रतापूर्ण न्याय , न हर हाथ को काम दिलाने
की दिशा में कोई सार्थक प्रयाश कर पाए , न कोई उचित लक्ष्य
बना पाए.इन कमियों के होते हुए हम प्रगति की जिस अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं,वह निरर्थक
लगती है.
प्रश्न है हम इतने लम्बे काल खंड तक गुलाम क्यों रहे ? उत्तर भी दिए गए , जिनसे मेरा
मन संतुष्ट नहीं. हमारे देश का नैतिक पराभव तब से शुरू हुआ जबसे कर्म के स्थान पर जन्म
को जाति का आधार माना गया और जातियों के बीच ऊँच नीच की भावना का आविष्कार किया गया
(शायद यह ऋग्वेद के दसवे मंडल के पुरुष सुक्त से जन्मा ), इसे पूर्वजन्म के फलों की
भ्रामक अवधारणा से जोड़ दिया गया और जनमानस पर इतना थोप दिया गया की भगवान् बुद्ध तक
इसका प्रतिवाद करने का साहस नहीं जुटा पाए और तभी से श्रेणियों में इस देश की जनता
का विखंडन शुरू हो गया , भाग्यवाद की धारणा को फैलाया गया , जो अकर्मण्यता की
और ले गयी, उच्च श्रेणी सामंतवादी और निरंकुश बनती चली गयी, बहुत बड़े समाज को शिक्षा
से वंचित होता गया. छोटा सा प्रभावशाली वर्ग आध्यात्मिकता की अफीम पूरी जनता को
पिलाकर , खुद ही कब तक और कहाँ तक आविष्कारों की प्रगति को बनाए रख सकता था ... उसे
विलासिता और सुखभोग भी तो हमेशा अपनी और खींचता ही रहता था और इन सब का परिणाम गुलामी
तो होना ही था . अचम्भा क्या है ?वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही
था । अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरुपण किया
गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है।
जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है,
उनको ‘ऋत्विक’ कहते थे। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण हैं। (१) होतृगण, (२)
अध्वर्युगण, (३) उद्गातृगण तथा (४) ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों के लिये उपयोगी
मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं।.आजादी के 70 वर्ष पूर्व जो सामाजिक
समस्याएं थी जैसे आर्थिक विषमता जातिगत विषमता अंध विश्वास त्वरित न्याय का न होना
एवं इन सामाजिक समस्याओं का प्रारम्भ हम वैदिक युग से नहीं मान सकते है,वैदिक युग में
जन्म से जाती का संदर्भ परिलक्षित नहीं होता. ऋग्वेद के दसवे अनुमंडल में शांति पाठ
है. प्रकृत में जितने भी तत्व है उनकी अभ्यर्थना की गयी है.जहाँ तक मेरा इतिहास बोध
है जातिबाद और नारी दासत्व की भावना इतिहास के मध्य काल की देन है.छठी शताब्दी ईशापूर्व
में बुद्ध का अवतरण होता है और बुद्ध ने बढ़ते कर्मकांड के प्रहार के रूप में धार्मिक
उपदेश जन भाषा में करना प्रारम्भ किया था (यह कोई नए धर्म के रूप में नहीं था बुद्ध
ने भी उन सांस्कृतिक तत्वों को का अपनी भाषा में उपदेश दिए )जिसको तात्कालिक समाज में
बहुत ही महत्त्व मिला. भाग्यवाद भारतीय दर्शन का तत्व है. जो इतिहास से पृथक है,भारतीय
दर्शन की मनोसामाजिक दशा के अध्यन के लिए पहले भारतीय वांग्मय के सांस्कृतिक इतिहास,आर्थिक
एवं राजनैतिक इतिहास को जानना होगा .........जहाँ तक मै समझता हूँ अतीत के सकरात्मक
अनुभवों से हम सीख़ लें.आगे जनमानस को आर्थिक विषमता जातिगत विषमता अंधविश्वास त्वरित
न्याय की व्यवस्था कैसे सुनिश्चित हो, इस संदर्भ में सार्थक प्रयाश किये जांय.यह ज्यादा
संदर्भगत होगा.आर्यों का आगमन के बाद भी समाज बटा हुआ प्रतीत नहीं होता है.कारण वैदिक
काल में आर्यों का आगमन..वैदिक काल को दो भागों में बांटा गया ऋग वैदिक काल १५००-१०००
ई०पुर्व तथा उत्तर वैदिक काल १०००-७०० ई ०!! पूर्व वैदिक काल में स्त्रियों की दशा
अच्छी थी ऋग वेद में मन्त्र रचयिताओं में स्त्रियों के नाम मिलते है. जिनमे प्रमुख
है लोपामुद्रा,घोषा,शाची पौलोमी,कक्षावृति...ब्रह्मण ग्रन्थ की रचना सहिताओं की रचना
कर्मकांड के लिए हुयी थी.ब्रह्मण ग्रन्थों से हमें विम्बसार से पूर्व की घटना की जानकारी
मिलती है.ऋग्वेद के दसवे मंडल चार वर्णों का उल्लेख मिलता है जो कर्म आधारित थी ..अत:
हम ठीक -ठीक नहीं कह सकते की आर्यों के आगमन से ही समाज में विखराव शुरू हो गया.हाँ
यह सच है की कर्म काण्ड के प्रतिक्रिया स्वरूप बुद्ध का अभ्युदय हुआ.जिसने कर्म काण्ड
को अस्वीकारा और जन भाषा में धर्म एवं जीवन दर्शन का प्रचारित प्रसारित किया गया.मेरा
एसा इतिहास बोध है? समाज में विखराव का दौर मध्य युग से हुआ.और आधुनिक भारत में मंडल
कमिशन के अस्तित्व में आने के बाद इस जातिवाद को ज्यादा ही प्रश्रय प्राप्त हुआ !प्रायः
आत्म मुग्धता सत्य तक पहुँचाने की कोशीस में हमारी बहुत बड़ी बाधा होती है, इसी
तरह सत्ता द्वारा कुछ सत्यों को हानिकारका समझकर उन्हें अपने पुरे तंत्र द्वारा दबाने
का प्रयास भी सत्य को छिपाने ने बहुत सक्षम होता है।
सत्य के प्रति आत्ममुग्धता
होनी चाहिए. जैसे सत्य मेव जयते यह आदि काल से लेकर जब तक सृष्टि रहेगी तब तक रहेगा.यह
अपने उत्पत्ति से ही प्रासंगिक होगा.कोई अपराधी भी इसकी सत्ता को नकार नहीं सकता भले
ही वह चरित्र में वैसा न करे.निज ज्ञान पर आत्ममुग्धता नहीं होनी चाहिए!!!जब हमारे
आप जैसे समीक्षक होंगे निश्चित ही कोई एक विषय पर अपने -अपने दृष्टिकोण रखेंगें ..इसे
चिद -चिद संयोगवाद क्रिया प्रतिक्रयावाद कहा जाता है!किसी भी परिकल्पनाओं का युक्ति-युक्तिसंगत
अंत होना चाहिए,आत्म मुग्धता का सीधा सा अर्थ है अपने आप पर मुग्ध बने रहना , और सत्य
के प्रति मुग्धता तो इसकी विपरीत स्थिति है , सत्य प्रायः कटु होता है इसलिए प्रायः
व्यक्ति आत्म मुग्ध बना रहता है सत्य के प्रति उन्मुख नहीं हो पाता . मुग्धता तो हमेशा
भ्रम में डालती है औरकिसी एक सत्य के प्रति भी अगर हम मुग्ध हो जाते हैं , तो अक्सर
दुसरे सत्य हमारी दृष्टि से ओझल होने लगते हैं.
सत्यमेव जयते एक उद्घोष के रूप में सदा से प्रयुक्त होता रहा है. किन्तु जैसे हर तथ्य
के कई पहलु होते हैं वैसे ही सत्य के भी अनेक रूप होते हैं .किसी व्यक्ति ने अपराध
किया --यह कानून की दृष्टि में एक सत्य होगा . उस व्यक्ति से वह अपराध किन मजबूरियों
में हुआ यह उस व्यक्ति की दृष्टि से एक सत्य होगा . वास्तविकता यह है की सत्य और असत्य
के बीच सदा द्वंद्व चलता रहता है , कभी सत्य जीतता है , कभी असत्य , हाँ सत्य के प्रति
हमेशा हमारा उत्साह बना रहे , समाज सत्य से विमुख न हो , इसलिए यह धारणा बनाए रखना
आवश्यक होता है की सत्य ही अंतिम रूप से विजयी होता है. किन्तु यह विजय भी संघर्ष की
लम्बी प्रक्रिया में प्रायः इतना विनाश कर जाती है की अपना मूल्य खो देती है , भावनाओं
में बहने की बजाय यदि सूक्ष्म दृष्टि इतिहास पर हम डालें , तो यही पाते हैं की विजेता
, और सत्ता द्वारा फैलाए गए असत्य ही , अधिकतर जन मानस में सत्य का रूप लेने लगते हैं
. यह स्वाभाविक भी होता है क्योंकि मनाव की अक्षमता या अपरिपूर्णता उसे सत्ता और शक्ति
का पूजक बनाती है ।
वेदों को हिन्दू आस्था शास्वत मानती हैं किन्तु इतिहासकारों ने अपने शोध से ऋगवैदिक
काल की शुरुवात १५०० ई ०पूर्व , इस तरह हमने आस्था की बजाय तार्किकता और बुद्धि
का प्रयोग किया , बस यही तो मैंने भी इन वैदिक सूक्तों के प्रति अपना नजरिया बनाने
में किया .और मैंने यह कहने की कोशीस की है की समाज की जो अवस्था आज है वह अचानक
नहीं हो गयी , न ही मध्यकाल की स्थितियां अचानक आ गयीं , उन सब के पीछे एक बहुत प्राचीन
इतिहास कि प्रकिया चलती रही है. हमें बीते समय के लिए नहीं रोना और नहीं हसना
जरुरी है , जरुरी है वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टी से उनका विवेचन करने की और आज जो
गलत दीखता है उसे हटाने और जो सही दीखता है उसे लाने का भरसक सद प्रयास करने की,-सत्य
और असत्य दृष्टिकोणयीय भिन्नता के परिणाम होते है. अत: सत्य का निरूपण एवं संश्लेषण
सापेक्ष है. सूर्य के प्रकाश को अगर गति न मिले तो यह नहीं मान लेना चाहिए सूर्य छिद्रों
से भी सूक्ष्म है.यह इन्द्रिक विषयक दृष्टिकोण एवं उससे उपजी संवेदनशीलता और ग्रह्यता
पर निर्भर करता हुआ गोचर होता है.अस्तु यह एक सतत प्रक्रिया है, जो अनवरत सत्य की दिशा
में चलायमान होती हुयी दिखाई दे रही है अत: यात्रा का कर्म जारी रखा जाय ....शायद सत्य
को हम सब उपलब्ध हो जाय !सत्य न कटु होता है न प्रिय. सत्य सत्य होता है !मगर मैं आशावादी
हूँ मेरा भारत उभरेगा जब स्वाधीनता संग्राम के शहीदों का बलिदान रंग लायेगा और देश
आगे बढेगा . मगर उसकी कुछ शर्तें हैं जरा लोक्तान्तंत्र को पुनार्पारिभाषित करना होगा
बेलगामी लोकतंत्र नहीं आत्म अनुशाशन ही सच्चा लोकतंत्र है. देश सेवा को धर्म और अपने
कर्म को पूजा समझ लग जाना ही लोकतंत्र है ये शायद भाषण सा लगे मित्रों मगर मन में जरा
मार्जित कीजिये के कितने लोग आज नेताओं की भीड़ में है जिनके प्रति आपको स्वतःस्फूर्त
श्रद्धा जगती है ? आज़ादी की लडाई के सपूत स्वयं भू थे समर्पित थे और चरित्रवान थे
आज वो कहीं नहीं दीखता. इनका चरित्र स्विस बैंकों में बंद है . हमारा नया वर्ग (युवा
वर्ग) कुछ करेगा हाँ मैं उनके अमेरिकी अंदाज़ को लेकर बाद क्षुब्ध रहता हूँ मगर उनकी
दिशा और सोच शायद सही है के वो मेहनत का खाना चाहते हैं हराम का नहीं.आज बच्चे नेताओ
को इस दुर्दशा का जिम्मेवार मानते हैं और एक प्रगतिशील भारत का सपना देखते हैं. एक
शर्त है मेरी और ये करकट राजनीती से हटाना होगा . मेरा देश एक भ्रष्टाचार के कीचड में
खिला कमल होगा, धवल शुभ्र और निर्मल...!!-हमें स्वयम को पुनर्जीवित करना होगा लगभग
२५०० वर्ष पूर्व की मानसिकता में सम्पूर्ण भारत को लाना होगा,जब तक हम स्वयम का परिष्कार
नहीं कर लेते अपने प्राचीन शाश्वत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं आ जाती, पूरे
राष्ट्र को आत्म मुलायांकन करने की आवश्यकता है. नेत्रित्व में जन इच्छाओं की हितब्द्धता
को सार्वजानिक स्वीकार्यता नहीं दी जाती तब तक असंभव है. हमें कर्म के प्रति प्रवृत्त
होना होगा.भाग्यवादी दृष्टिकोण को तिलांजलि देते हुए ठोस यथार्थ की भित्ति पर राष्ट्रीय
पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में लगना होगा.आने वाले सुनहरे कल के लिए हमें भगत सिंह,चन्द्रशेखर
आजाद,विश्वरैया,विवेकानंद,दयानंद,गाँधी,सुभाष चन्द्र बोस, सी वी रमन, पी सी राय. जेसी
बोस, रामानुजम , खुराना, साराभाई , भाभा, आर्यभट्ट नागार्जुन जीवक चरक सु श्रुत जैसे
बच्चो को पैदा करना होगा वह तभी संभव होगा जब हमारे राष्ट्रीय पर्यावरण में सांस्कृतिक
मूल्यों का प्रवाह होगा,हमें अपनी नारी शक्ति में को और उच्च स्थान देना होगा. जिसके
कोख से ऐसे चरित्रवान पुत्र पैदा हो जो अपनी माताओं के स्तन से सिर्फ दूध ही नहीं संस्कार
चूसें, जिससे जब वह वालक जब युवा हो तो वह भारत को पुन:वह गौरव पूर्ण स्थान दिलाने
में सक्षम हो जैसा हमारा अति प्राचीन इतिहास रहा है. जिसके हम सब संवाहक है...मित्रो
अब समय आ गया है जब हम संस्कृति जागरण कर विभक्त समाज,जैसे जातिवाद,सम्प्रदायवाद,क्षेत्र्बाद,गरीबी,अमीरी
से उभर कर नए मानवतावाद की स्थापना कर सकें जिससे भारतीयता स्वयम को प्राप्त हो सके
!भारत कि शक्ति विकेंद्रीकृत समाज व्यवस्था में है. , महात्मा गाँधी के इस दिशा निर्देश
को आजादी के बाद ,लगातार उपेक्षित किया गया है .....और यह तथ्य हमारे नैतिक पतन का
बहुत बड़ा जिम्मेदार है ... ऐसी मेरी मान्यता है. .
मैं मूल विषय पर सोचना चाहता हूँ कि आगे भारत का इतिहास कैसा लिखा जाएगा. इतिहास स्वयं
ही बताता है कि उसकी चाल क्या है. इतिहास राज्याश्रयी होता है. और इसलिए हमेशा कि तरह
इतिहास बढ़ते विकास दर, भारी मुद्रा कोष, महान नेताओं , और अरब पतियों का ही लिखा जाएगा
, आत्महत्या करते किसानो, महामारियों से मरते बच्चों और भुखमरी से मरते लोगों का नहीं
. तेजो महालय , को कौन जानता है? दुनिया के पहले आश्चर्य ताजमहल को सब जानते हैं .
शाहजहाँ और मुमताज के अमर प्रेम को सब जानते हैं , इतिहास में उन कारीगरों का कितना
वर्णन है जिहोने ताज महल बनाया और जिनके हाथ काटे गए . और यदि वर्णन कहीं है भी तो
कौन उसे याद करता है ? गरीब से गरीब भी ताज महल को देख कर खुश होता है. आज तक किसी
ने कभी यह जानने का यत्न किया गया कि उन काटे गए हाथों वाले कारीगरों के भी क्या कोई
वंसज हैं कहीं इतिहास सदायुद्ध के विजेताओं का लिखा जाता है, दोनों पक्षों के मरने
वाले सैनिकों या उनके परिवारों का क्या हुआ , इसे कौन याद करता है ? और क्यों करे
? याद करके केवल दुखी होने के लिए , जबकि कोई कुछ कर ही नहीं सकता . मान्यवर
मित्रों , हर व्यक्ति खुसी के नगाड़े बजाने को इक्षुक होता है है तो दुःख कि बातों
को इतिहास में लाया ही क्यों जाए . खुसी मनाना और सत्यमेव जयते का जय घोष करना , इससे
ज्यादा सुखदायी और क्या होगा. इसलिए यही इतिहास करता है !इतिहास लेखन मे 'मार्क्सँ
शैली का उल्लिखित है। यही वह शैली जिसे जनवादी इतिहास लेखन शैली कह सकते है ,,लेकिन
आज वह शैली किस हालात मेँ है यह चिंता और चिंतन का विषय है , कही जनाश्रयी शैली भी
राजाश्रयी तो नही हो गयी है ? यदि यह शैली जीवित है तो क्यो उजडते खेतो के बीच कैसे
उग रहे है कंक्रीट के जंगल ?हिगेल के साम्यवाद को सहज अभिव्यक्ति मार्क्सबाद द्वारा
दी गयी.निःसंदेह कार्ल मार्क्स की इतिहास की भौतिकबादी व्यख्या वैज्ञानिक थीं.कार्ल
मार्क्स के चिंतन का जनवादी प्रभाव १९१७ के वोल्सेविक,मोल्सेविक क्रान्ति के रूप में
उभरी और जारशाही प्रथा के राजत्व के सिद्धांत को नकारते हुए साम्यवाद के अंतरराष्ट्रीय
दृष्टिकोण को उनके उत्तराधिकारी लेलिन ने उस अंतरराष्ट्रीय विचार को एक संप्रभु सम्पन्न
राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त करते हुए क्रांति कर डाली.परिणामत:१९१७ में एक राष्ट्र
को जनवाद का एक नया स्वर दिया गया,जनवादी स्वर की बिडम्बना यह थी की सम्पूर्ण अधिकार
को राज्य की प्रतिबद्धता को मानते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर लगाम लगा दिया
गया.मिखाईल गौरव्चोव के आते आते नव परिभाषित जनवाद मुह के बल गिर गया?फिर क्या था वैचारिक
असंतुलन का दौर शुरू हो गया=नव जनवाद के यथार्थ को जब दुनियां ने जाना उसका रूप लोकतान्त्रिक
व्यवस्था से ज्यादा भिभत्स था.धीरे -धीरे जनवाद वाजारवाद के काल का ग्रास बनता गया.जब
भारत आजाद हुआ तब उसकी जनसँख्या २५ करोड़ के आस -पास थी आज 65 वर्षों में १२१ करोड़
लोग है.जहा हम हर चीजों का आयात करते थे आत्मनिर्भरता के क्रम में हमने उद्ध्योग लगाये
ये बात अलग है की लाभ किसको गया ?इतनी विशाल जनसंख्या के लिए जंगलों को काटकर कृषि
योग्य भूमि बनानी पड़ी तो आवश्यकता के लिए जंगलों को काटकर कंक्रीट का प्रयोग विकाशशील
भारत की अनिवार्यता बनती गयी.यही.स्थिति इतिहास लेखन की भी है.रैदास या कबीर के समय
में नव दलित साहित्य का अभुदय नहीं हुआ था नहीं तो हम अपने विलक्ष्ण भूगोल का अलग साहित्य
जानते,हर जाती की अपनी संस्कृति होती ?इतने विविधता भरे देश में एक स्वर का होना भी
आश्चर्य जनक ही लगता है?सभ्यता के विकाश के क्रम में जो उचित स्थान ग्रहण करता है इतिहास
उसी की तरफ उन्मुख होता हुआ गोचर होता है.अगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजत्व की
अभिव्यक्ति होती है तो दोष राजत्व को प्राप्त लोंगों का नहीं दोष उस जनवादी सोच का
है.जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भी राजत्व के मोह से ग्रस्त है?विकेन्द्रीयकरण पर
मेरे टूटे फूटे विचार मेरे विचारों के विकेन्द्रीयकरण के लोकतांत्रिक व्यवस्था का उत्स
यदि आप मानते हैं तो वास्तविकता यह भी है की इस उत्स को इस देश में कभी पनंपने नहीं
दिया गया , उसे सदा दमित और विकृत किया गया , और वह इस देश में कहीं अपने कल्याणकारी
रूप में नहीं दीखता जिसका सीधा सा अर्थ है की इस देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है ही
नहीं , केवल लोकतंत्र का मुखौटा है ...छद्मता है,दिखावा है...
जनवादी इतिहास लेखन की शैली ऐसा प्रतीत होता है की मार्क्स के साथ ही समाप्त हो गयी
, और उस दार्शनिक के विचारों को उसके उत्तराधिकारी कहे जाने वाले , जनवाद का मुखौटा
ओढ़े तानाशाहों,सामंत्शाहों, राज्यत्व के लोलुपों ने अपने हित साधनों में प्रयुक्त करके
अस्तित्वहीन सा बना दिया . आंचलिक साहित्य में वह अभी कही
कहीं दृष्टि गोचर होती है , किन्तु , जलती आग में गिरी पानी की कुछ बूंदों की तरह
, "छन् " की आवाज करके समाप्त हो जाती है .जनवादी स्वर की बिडम्बना यह थी
की सम्पूर्ण अधिकार को राज्य की प्रतिबद्धता को मानते हुए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
पर लगाम लगा दिया गया.......धीरे -धीरे जनवाद वाजारवाद के काल का ग्रास बनता गया,"आत्मनिर्भरता
के क्रम में हमने उद्ध्योग लगाये ये बात अलग है की लाभ किसको गया"पर ध्यान केन्द्रित
किया जाना आवश्यक है. कैसे इतने बड़े प्रश्न को जिसे वे स्वयं लोकतंत्र का उत्स बताते
हैं , क्रूरता पूर्वक एक किनारे लगा देते हैं . ? यह कैसी आत्मनिर्भरता कि बात है जहां
गोदामों में अनाज सड़ता है और बड़ी जनसँख्या भूखों मरती है ? यह कैसी आत्म्नित्भरता
है जहा नवयुवकों का बहुत बड़ा प्रतिशत रोजगार के लिए तड़प रहा हो , आत्महत्याएं कर रहा
हो, योग्यताएं दुत्कारी जा रही हों , और मशीनों का उत्पादन आम जनता का धन लूट लूट कर
धनिकों कि तिजोरियां भर रहा हो. ? असली आत्मनिर्भरता तो तब होती जब हर हाथ को काम मिलता,
हर पेट को भोजन , हर सर को छत मिलती , जातिगत द्वेषभाव न होता , और राजत्व का मोह समाप्त
हो जाता और यह तब ही हो पाता जब जनवादी सोच राजत्व के पास होती , जो नहीं है
, नहीं थी, उसके पास तो केवल बाजारवादीऔर पूंजीवादी सोच ही थी जो कि मार्क्स के उत्तराधिकारियों
में भी थी.मैं नहीं समझता कि लोक हितैषी सोच (जिसे जनवादी सोच कहा जाता है ) में कुछ
गलत है , गलत है वह बातें , वह सोच, वह विचार जो लोक हित कि भावना में चुपके से घुश
कर उसे दिग्भ्रमित करके , उसे पूंजीवाद, बाजारवाद और डिक्टेटरशिप का भक्ष्य बना देती
हैं , आपको "..इतने विविधता भरे देश में एक स्वर का होना भी आश्चर्य जनक ही लगता
है" किन्तु मुझे नहीं लगता क्योंकि मेरी समझ में भारत में विकेंद्रिय्क्रित समाज
व्यवस्था ने किसी न किसी रूप में अपने को सहश्रब्दियों तक जीवित रखा है .
"सभ्यता के विकाश के क्रम में जो उचित स्थान ग्रहण करता है इतिहास उसी की तरफ
उन्मुख होता हुआ गोचर होता है."यह सत्य है , यदि इसमें से "उचित
" शब्द' को हटाकर "विजेता " शब्द रख दें . किन्तु उस स्थिति में यह
जंगल का न्याय या मत्स्य न्याय बन जाता है . और सभ्यता का तकाजा है की मनुष्य जंगल
के न्याय से ऊपर उठे . और यदि हम जंगल के न्याय से अभी तक ऊपर नहीं उठ सके तो हमारी
सारी बातें खोखली है, वाक् विलाश हैं,दाम्भिक संतोष के लिए हैं , और कुछ नहीं , और
हमने सभ्यता की तरफ एक कदम भी अभी तक उठाया ही नहीं है . यह कैसी सभ्यता है जहां ७०%
लोग भुखमरी का जीवन जी रहे हों (गरीबी रेखा के नीचे ). कुछ प्रतिशत (माध्यम वर्ग ,
कोल्हू के बैल की तरह , छोटी छोटी बातों में अपने को संतुष्ट कर रहे हों और और राष्ट्र
की बहुत बड़ी संपदा , गिने चुने लोगों की सेवा में चाकर की तरह लगी हो ?आज जो विभक्त
समाज है उनमे एकत्व का होना आवश्यक है.