आस्था अब किस्त पर मिल रही !
प्रेम अब बिकतें हैं
खरीद फ़रोख्त जारी है
आज इनकी बारी है
कल उनकी बारी है !
आकर से मुक्त थी जो
अब युक्त है ,
व्यस्त हैं लोग उसकी लम्बाई
चौडाई एवं गोलाई में,
कोई कोना भी पकड लें,
जकड़ ले
कस कर के झटकें!
और पटक कर धर लें
कोई भी कोना जहाँ
जहाँ आस्था है
जहाँ प्रेम है !
'आकार से मुक्त थी जो अब युक्त है'
ReplyDeleteबदलते समय के परिपेक्ष्य मे भावनाएं, जिनको मानवीय माना जाता रहा, उनके दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तन का लेखा-जोखा खींच गयी आपकी यह पंक्तियाँ यह बाजारवाद बाजार से हमारे घर और घर से कब हमारे मानस के भीतर प्रवेश कर सब कुछ दूषित करने लग गया, हम समझ ही ना पाए .. आपका आभार व अभिनन्दन रवि भाई साहब
खरीद फ़रोख्त जारी है ; आज इनकी बारी है; कल उनकी बारी है ! .. सादर वंदन .. रवि जी बहुत ही उत्तम सृजन ..!!
ReplyDeleteCongratulations
ReplyDeletejeevan mulyon ka is tarah bazari hona atyant kashtprad hai,kavita inhi bhavo ko abhivyakt karti hai. ye rachna sarvbhaumik hai,hamare man ko sparsh karti hai..!!
ReplyDeleteanju mishra
jeevan mulyon ka is tarah bazari hona atyant kashtprad hai,kavita inhi bhavo ko abhivyakt karti hai. ye rachna sarvbhaumik hai,hamare man ko sparsh karti hai..!!
ReplyDeleteanju mishra
श्री रविशंकर जी की प्रस्तुत कविता आज़ की वणिकवृति पर विमर्श करती है, जिस शून्यक्षेत्र में आदिम ' प्रेम' की सहज भावना भी तराजू और बटखरे से तौली जाती है.विलग होने पर सहज पीड़ा की अनुभूति न हो और सहजता से प्रेम भी विस्मृत हो जाये , तो इसे काल का दोष माने या उस हृदयहीन भावविहीन पीढ़ी के मानस की ? कवि का यह उद्गार अत्यंत ही क्षुब्धभाव से अभिव्यक्त होता है, जब नैराश्यसिक्त वाणी को व्यक्त करता है--
ReplyDeleteआस्था अब किस्त पर मिल रही !
प्रेम अब बिकते हैं....
सचमुच प्रेम का प्रस्फुटन ही सृजन का प्रथम उदगार है, जिसे मनुसंसृति विस्मृत कार बाजार के नये मानदण्ड स्वयं को समर्पित कर पशुजन्य व्यवहार का उन्मुक्त प्रदर्शन करने के लिये उद्यत है.
कविता संक्षिप्त है, किन्तु सहजभाव में एक संकेंद्रित भाव ही संपूर्ण सिद्ध सन्देश का संचरण करता है--यह कवि की सफलता ही है.