Saturday, July 14, 2012

यथार्थ


 मै डरता हूँ पूर्वी वयार से 
  उन फूलों से 
 जो दोगले चरित्र का निर्माण करतें है 
दंभ भरतें हैं 
 यथार्थ को काटते है अपनी सुगंध से 
 सुगंध की दुनियां ख़्वाबों की दुनियां
  मित्र लौटो और देखो 
कैक्टस भी खड़ा है 
 नागफनी भी अड़ा है 
 फूलोँ का तो मौसम है 
 उसकी एक जात है 
 उसका व्यक्तित्व ऋतु चक्र की तरह बदलता है 
 उसकी एकता में भिन्नता है 
और मै 
 ऋतुओं से मुक्त 
 अपने ठेढ़ेपन में मस्त 
 अपने से होता त्रस्त
 अड़ा हूँ समस्याएं लिए 
मै ही तुम हो 
 मै समाज का नंगा सच हूँ 
 मेरे शारीर पर उगे कांटें 
 जिसे छुने से नारी क्रीडा का एहसास नहीं होगा 
 जिसे देखने से सहवास नहीं होगा 
शायद मै चुभ जाऊं हांथों में 
शायद मै धस जाऊं आँखों में 
इसलिए तुने कभी दृष्टि नहीं डाली 
 जिस दिन जड़ से उखड़ जाउंगा 
 कुछ कर जाउंगा 
 तब तुम्हे इस नंगे सच से अवगत कराऊंगा 
मै ही यथार्थ हूँ 
मै वो फूल नहीं जिसका आख्यान युग युगांतर से किया गया 
मै वो वयार नहीं जिससे चरित्र अपने आप पर शरमाया 
 मै तो अनदेखी अनछुवी बात हूँ 
 आँसुओं से गिरी बूंद हूँ 
 फ़िर भी निराश नहीं कर्मरत तैयार हूँ 
 देखता हूँ समय और समय मुझे 
 जब हम दोनों एक दिशा में होंगें 
 तब नयी दिशा देंगें 
 एक नए समाज की जो तंत्रों से मुक्त 
 मानवीयता से युक्त 
 तब मानव पैदा होंगें 
 मानवतावाद  में तब्दील होगा राष्ट्र 
 और फिर से जन मन गण होगा 
 नये  विश्व की स्थापना करेंगे 
 मानवताबाद के लिए मरेंगे 
करेंगे प्रतिबाद 
उस बाद का जो सम्बादों से रिक्त हो 




6 comments:

  1. अच्छी कविता , एक आस जगाती है अंत में आते- आते ....

    ReplyDelete
  2. निशब्द हूँ..
    बहुत सुंदर...

    ReplyDelete
  3. सच का दर्पण, विश्वास की झलक , आशा की महक .. सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  4. "yatharth" kavita samaj ka yathrth chitra prastut karti hai.Hope in Despair ko charitarth karti hai.bahut gambhir evam sarthak bhav..!!

    ReplyDelete