मै डरता हूँ पूर्वी वयार से
उन फूलों से
जो दोगले चरित्र का निर्माण करतें है
दंभ भरतें हैं
यथार्थ को काटते है अपनी सुगंध से
सुगंध की दुनियां ख़्वाबों की दुनियां
मित्र लौटो और देखो
कैक्टस भी खड़ा है
नागफनी भी अड़ा है
फूलोँ का तो मौसम है
उसकी एक जात है
उसका व्यक्तित्व ऋतु चक्र की तरह बदलता है
उसकी एकता में भिन्नता है
और मै
ऋतुओं से मुक्त
अपने ठेढ़ेपन में मस्त
अपने से होता त्रस्त
अड़ा हूँ समस्याएं लिए
मै ही तुम हो
मै समाज का नंगा सच हूँ
मेरे शारीर पर उगे कांटें
जिसे छुने से नारी क्रीडा का एहसास नहीं होगा
जिसे देखने से सहवास नहीं होगा
शायद मै चुभ जाऊं हांथों में
शायद मै धस जाऊं आँखों में
इसलिए तुने कभी दृष्टि नहीं डाली
जिस दिन जड़ से उखड़ जाउंगा
कुछ कर जाउंगा
तब तुम्हे इस नंगे सच से अवगत कराऊंगा
मै ही यथार्थ हूँ
मै वो फूल नहीं जिसका आख्यान युग युगांतर से किया गया
मै वो वयार नहीं जिससे चरित्र अपने आप पर शरमाया
मै तो अनदेखी अनछुवी बात हूँ
आँसुओं से गिरी बूंद हूँ
फ़िर भी निराश नहीं कर्मरत तैयार हूँ
देखता हूँ समय और समय मुझे
जब हम दोनों एक दिशा में होंगें
तब नयी दिशा देंगें
एक नए समाज की जो तंत्रों से मुक्त
मानवीयता से युक्त
तब मानव पैदा होंगें
मानवतावाद में तब्दील होगा राष्ट्र
और फिर से जन मन गण होगा
नये विश्व की स्थापना करेंगे
मानवताबाद के लिए मरेंगे
करेंगे प्रतिबाद
उस बाद का जो सम्बादों से रिक्त हो