Thursday, March 30, 2017

यात्रा




जब मेरी महासमाधि टूटी मैंने देखा मेरी माँ काफी बूढी हो चुकी थी झुर्रियों के बीच उसका दमकता चेहरा कालचक्र की भेट चड चुका था झूलते चमड़ों ने उसकी हड्डीयों को रोक रखा है बस बड़ी -बड़ी आखों से मैने जाना यह वही है जिसको मैंने बचपन में देखा था इसी ने बताया था ये तुम्हारे पिता है ! अब वह विधवा हो चुकी है,मै कुछ कहता उसने कहा,तुम इतने कमजोर क्यों हो गए ?जब तुम गये थे तब तुम्हारे बाल काले थे मुछे भी न उगी थी अरे यह क्या ? अब तुम बूढ़े हो गए ?यह सब कैसे हुआ ?यह क्या हो गया तुम्हे ?तुम एसे हो ही नहीं सकते ? बिस्फरित आखों से घूरती हुयी युवा हो चली थी, मैंने भी अतीत की आखों से देखा हम दोनों लगभग उस काल खंड में थे !मेरा मेरी माँ से मिलन काफी दिन बाद हुआ था इसलिए हम दोनों एक टक एक दुसरे के आखों में देखते हुए अतीत हो चले थे मुझे मेरा बचपन या यूँ कहें चेतना के स्तर पर जो कुछ भी था याद आने लगा मै कुछ भाउक हो रहा था उसने उसे मेरी भाव भंगिमा से पढ़ लिया था उसने मुझे बाताया पगले कहाँ खो गया ? मै तो नित्य हूँ ! तुम मुझे मेरी कृष काय से हतप्रभ हो ? मै तुम्हारे अचेतन चेतन में हूँ मैने तब भी अपने आपको विचलित नहीं होने दिया जब तुम्हारे पिता स्वर्गवासी हुये थे, जानते हो ? मैंने तुममे तुम्हारे पिता की छवि देखि थी मैंने हँसते हँसते ही वह बज्रपात भी सह लिया था यह कहते कहते वह रुक गई,उसका मुख मंण्डल देदीप्यमान हो रहा था जैसे वह पिताजी के साथ हो ! तुम नही जानते मेरे पिता ने मुझे जन्म देते समय यह बताया था कि तुम सरस्वती हो ! मै अकेले ही नहीं जन्मीं थी मेरे पिता ने मुझे बताया था कि तुम्हारी बहन लक्ष्मी,एवं दुर्गा भी थी !एक वहन मेरी विश्वदेव के साथ है और दूसरी रामदेव के साथ है उसका जैसा नाम था वह वैसी ही है मेरे माता पिता ने हम तीनो का नामकरण बहुत सोच समझ कर रखा था ! उसने आह भरते हुए कहते हुए कहा, सहस्त्रब्दियाँ बीत गयी मैंने कुछ दिन तुम्हारे पिता की प्रतीक्षा में विताये और अब तुम्हारी महासमाधि की जिद ? तुम दोनों ने मुझे खूब रुलाया है यह कहते कहते उसकी झूलती चमड़ियों से युद्ध करती उसकी आखों में आसूं आ गए और मैं आवाक बालक की भाँती चुप चाप सुन रहा हूँ जैसे उसने मेरे समय को तराजू पर तौल दिया हो ! मेरा ज्ञान भौचक्का स्वयम को घूर रहा है !इतने हक्के बक्के क्यों हो ? मैं तुम्हे समय के पलड़े में तौल नहीं रही !तुम्हे क्या लगता है बाल सफ़ेद होंने से लोग ग्यानी होते है ? नहीं यह तुम्हारा भ्रम है,मैं शांत भाव से उसकी बातो को सुन रहा हूँ, मैं कुछ कहता वह बोल पड़ी एक बीज से ही बृक्ष होता है और उसके पत्ते अनेक और यह अनेक पुनः एक हो जाता है ! मैंने कहा हाँ माँ तुम ठीक कहती हो ! तुम्हे याद है जब मैं तुम्हे आचार्य के पास भेजती थी तुम रास्ते से ही लौटना चाहते थे और मैं तुम्हे पुनः आचार्य के पास भेजती थी और तुम पुनः लौट आते थे याद है ? और लौटते समय मेरे आँचल में मेरे सीने से लग तुम मेरे आँचल को अपने मुह को ढक लेते थे याद है ? मैंने कहा हां माँ ! जानते हो मैं यह जानती थी की आचार्य की पढ़ाई हुयी हर बात से तुम्हारा प्रतिवाद था फिर भी मैं आचार्य के प्रति अनुशासन भाव हो इसलिए तुम्हे आचार्य के पास भेजती थी !हाँ माँ यह अनुशासन का भाव ही था, मैंने कठिनतम परिस्थियों में भी भिक्षाटन कर के भी क्षुधा तृप्ती की है ! तुमसे पाया प्रतिबाद ही मेरी शक्ति थी, मै अभिमन्यु की तरह युद्ध कर रहा था मेरे विरुद्ध सभी नीतिवान समय के सापेक्ष कतार में खड़े थे,मेरा हठ इतना उर्जावान था ? यह मै नहीं जानता ? पर वह कौन सी शक्ति थी जिसने मेरे प्रतिरोध में ऊर्जा भरी थी ! मै कह नहीं सकता अभी तुमने कहा था न एक ही अनेक है और अनेक ही एक यह बात मै सिर्फ समझा ही नहीं था इस पल एवं क्षण को जीया गया है ! जय पराजय से मुक्त तेरे दिए ज्ञान के दान के सहारे जीवन जी रहा हूँ !अभी मैं नितीवान होने का दम्भ ही भर रहा था उसने पूछा तुम कब से नीतिवान हुए ? इस यक्ष प्रश्न पर मैं मौन था ! उसने मेरे मस्तक पर उभरती लकीरों में आयी सिकुड़न को कुछ समझने का प्रयास ही कर रही थी मैंने निःस्वर हो कहा माँ तुमने ही तो बताया था कि जीव आहार,निद्रा,भय,मैथुन में रचा बसा है और तुमने ही बताया था कि हमारी पांच इंद्रिया है जिससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष का अनुभव कर सकते हो क्या यह शिक्षा गलत थी ? सत्य के पक्ष में सिर्फ पाँच गाँव ही तो मांगे थे ? माँ मैंने जो गाँव मांगे थे वह क्या गलत था ? मेरे परमपिता ने उन्हें समझाया था इससे बाहर निकलो लेकिन वे नहीं माने वे मेरे पुरुषार्थ की प्रतीक्षा ले रहे थे और ले भी क्यों नहीं यह उनका बोध जो था !नीति और बोध की चर्चा पर स्वर्ण मुद्राये भारी पड़ी थी ! ये वही स्वर्ण मुद्राये थी जिसके मोह में मेरे प्रतिपक्षी खड़े थे और स्यात मैं भी ? हम दोनों ही की मांग में समानुपातिक अंतर था ! मैंने कब समस्त आर्यावर्त माँगा था ? मैंने तो एक टुकड़ा जिससे जीवन यापन हो जाय यही माँगा था ! मैं तो परिस्थिकीक संतुलन के हिसाब से मांग की थी लेकिन उन्होंने मेरी इस मांग को भी अस्वीकार्य किया था चूँकि मैं आहार, निद्रा, भय, मैथुन, में सना हुआ जीव था तो इन्द्रियों की मांग स्वाभाविक ही थी ! ऋतुओं से अप्रभावित मैं नहीं हो पाया था लेकिन ऋतुओं के प्रभाव में नियंत्रण आवश्य था ! क्रमश:

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