मेरे निजी राय में धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं । एक संस्कृति ,जिसका सम्बन्ध वाहर से है , और दूसरा है ,आध्यात्म ,जिसका हमारे अंतस से है , मत बाह्य आरोपित है ,तत्व और मत , दोनों का जोड़ ही धर्म है जहाँ तक मैंने समझा है,जब हम माँ के गर्भ में होते है , हमारे विकाश के साथ ही संकृति तत्व हमारे अंदर समाहित हो जाता है , और उसी का प्रतिरूप धर्म तत्व है।प्रसव बेदना को जानने के बाद भी वह हमें जीवन देती है,यह सहज नहीं है,बहुत ही दुष्कर कार्य है, हमारा जों ही पृथ्वी से संस्पर्शन होता है ,वह अपने स्तन से संस्कार चुसाती है ,उसकी निजता से हम मुक्त नहीं हो पते इसीलिए उसी खास कुनबे तक अपने आपको समर्पित कर देते है,धर्म को चित्रों के रूप में नहीं देखा जा सकता , धर्म अद्रश्य सत्ता है।मै कहता हूँ की शारीर की दो अवस्थायें,एक सूक्ष्म,और दूसरा स्थूल,''स्थूल को भोजन, व्यंजन, विलास, की आवश्यकता है वह शारीर है,लेकिन जो हमारा सूक्ष्म है उसे ही ज्ञान ,विज्ञानं ,धर्म ,आधात्म , अब तय यह करना है ,कि कौन किस स्तर पर जीता है ,अगर आप शारीर के स्तर पर है , तो आवश्यकताओं का अम्बार लगा है ,अगर चेतन के स्तर पर मन से जीते है ,तो वहाँ आपकी मानसिक खुराक की आवश्यकता होगी,और मानसिक खुराग स्वस्थ परिचर्चा से स्वाध्याय से संभव हैं।मानव को उश्रृंखलता से बचाने का साधन है धर्म!
जो स्थानिक स्तर पर दैहिक मानसिक आत्मिक रुप से सुख की अनुभूति के उद्देश्य से स्वाभाविक प्रक्रियाके अन्तर्गत विकसित होता है जो कालान्तर मे मानव स्वार्थ से प्रभावित होकर सहज स्वाभाविक सुन्दर स्वरुप को खो देता है या मनुष्य अपनी सुविधानुसार धर्म की अवधारणा धारण करता रहता है! ---मित्रों आप ब्लॉग में अपने विचार दे सकते है ......