विभक्त समाज
उपेक्षित महसूस कर रहा है ! वौद्धिकता स्वयम के साथ न्याय नहीं कर रही जातियों और नस्लों
तक सिमट गयी है ! नव वौधिक बर्ग शब्दों को बेच कर जीवन यापन के लिए मजबूर है ? सनातन
शब्द अपना अर्थ खो रहा ,सह -अस्तिव की भावना क्रमश:अस्त हो रही ! मानवतावादी शक्तियाँ
चुप है , संवेदनशीलता समग्रता के साथ न होकर खेमे में बटी है ! उत्तरदायित्व बोध का
आभाव सा है ? पूजीवाद का स्वरूप जब तक मानवतावादी नहीं होगा, वैश्विक स्तर पर उसके
परिणाम नकारात्मक होंगें ! उसी का प्रतिफल वैचारिक विद्रपता है।हम सभी को आत्मावलोकन
करना पड़ेगा की मूल समस्या की जड़ में वह कौन सा तत्व है!जिससे विषमताए आयीं है!मेरे
मत में मूल समस्या के जड़ में हमारी प्रवृतियाँ है हम मानवीय न होकर आत्म केन्द्रित
हो गए है,यह वैयक्तिक विचलन ही सभी के समस्याओं जड़ है,हम सब मानव जैसे दीखते अवश्य
है,किन्तु अन्दर की संवेदना मृत प्राय:हो चुकी है मानवता,जिससे नैतिक मूल्यों में ह्रास
आ रहा है और हम निजी स्वार्थ में दृष्टिहीन होते जा रहे है!मेरी अपनी व्यक्तिगत राय
में केवल नैतिक मूल्यों से ही पाशविक प्रब्रितियो पर नियंत्रण पाया जा सकता है ,आंतरिक
अनुशासन से ही हम समाज में अपना अस्तिव अक्षुण रख पा रहे है, अगर ऐसा न होता तो पाषाण
युग से आज तक की यात्रा,या यूँ कहे की होमोसेम्पियेस से चेतना स्तर को हमने विकसित
किया या प्रकृति के द्वारा हो गया कह नहीं सकता ! सब कुछ मानवीय अनुशासन से और मानवीयता
से निसृत है और यह सब हमारे अंदर संवेदनशीलता से आती है, और संवेदना का विकास हमरे
प्रबत्तियों से, और प्रबत्तियां हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से, और सांस्क्रतिक मूल्य
धर्म से ,और धर्म हमरी पद्यतियों से जीवन शौली से! रही कानून व्यवस्था की बात, तो वो
इसी अन्तर्द्वन्द की उपज है।व्यक्ति की पशुता को कानून से नही दूर किया जा सकता !
एतिहासिक सांसकृतिक पृष्ठिभूमि का बिहंगम अवलोकन आवश्यक है !कानून व्यक्ति के लिए होता
है पशु के लिए नहीं, अगर व्यक्ति में पशुता है तो देवत्व भी है! अभी कितने साल हुए
गाँधी जी को हमसे अलग हुए जितने भी महापुरुष हुए है, वे ऐसा सिर्फ अपनी प्रबल घनीभूत
संवेदनशीलता एवं द्रष्टिकोण व्यापकता की वजह से ही है। अत: खेमों में न बटते हुए घनीभूत
मानवीयता का विकाश करें।
Thursday, August 9, 2012
Wednesday, August 8, 2012
सामजिक विपथन
- हम सब सामाजिक अंतर्द्वंद को समझनें और समझानें के प्रयाश में मानव की मूल प्रबृत्ति के केन्द्रीय तत्व के अंतर्द्वंद को समझें,वही व्यक्ति राजनितिक हो सकता है जिसमे सामाजिकता कूट -कूट कर भरी हो यहाँ मेरा आशय यह है की जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारा पारिवेशिक सामाजिकरण हो ही नहीं पाता,इस गहरे अन्तर्द्वन्द में हमारा बृहतर समाज राजनीति में समाहित हो जाता है.जहाँ पर विविध सामाजिक राजनितिक दर्शन का सैलाब है।मनोसामजिक वैचारिक विविधता के परिणामस्वरूप नैसर्गिक रूप से सामन्ती,दकियानूसी,रुढीबादी,कट्टरपंथी,धार्मिक,नास्तिक,आदि मनोभाओं से ग्रस्त हो उपयोगिता ह्रास के नियम की तरह व्यापक समाज धारणाएं बनाता चलता है और बाद में वह वैचारिक कट्टरता के रूप में अभिव्यक्त होता है।संस्थाएं जब अपने मनोविज्ञान के अनुसार कार्य नहीं करतीं है तो उस संस्था के चरित्र का विस्थापन अवश्यम्भावी होता है, फलस्वरूप सामजिक समुच्चय का तानाबाना स्वयम उस समुच्चय में सम्ल्लित हो स्थान बनाना शुरू करती है।स्वतंत्र भारत में विपक्ष की भूमिका नकारात्मक रही है जब की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शसक्त विपक्ष का होना अनिवार्य है।किन्तु उपरोक्त सामजिक द्वंद के चलते यह संभव प्रतीत नहीं होता और ना ही किसी सामूहिक इच्छा का निर्माण हो पाता है ऐसे में विपक्ष की भूमिका के खालीपन को कुछ सामजिक संगठन जो इसी अंतर्द्वंद की उपज है को भरने के प्रयाश में दिखाई दे रहे है।ऐसे में सामजिक द्वन्द की उपज राजनीति और सामजिक कार्यकर्ता हस्तक्षेप करता हुआ प्रतीत होता है. ऐसे में संवैधानिक संकट खड़े होने की प्रवल संभावनाएं दिखतीं है,इस सामजिक क्षरण को रोका जाना चाहिए.जहाँ तक क्रांतिकारियों की बात है वे द्वन्द समाज की उपज नहीं होते अपितु सरल समाज की उपज होतें है,क्योकि राष्ट्रवाद एक भावना है,भावनाओं का सैलाब द्वन्द से न उपजते हुए सरलता से निसृत होता है,यहाँ यह यह कहना समीचीन होगा की हर देश की सामजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है और भारतीय भूगोल के परिपेक्ष्य में शशत्र क्रान्ति की संभाव्यता कम है और आधायत्मिक बेग ज्यादा है। अत: प्रत्येक प्रगतिशील व्यक्ति को परिवर्तन में आध्यात्मिकता को समाहित करना होगा।इस तरह के सामजिक समुच्चय के लोंगों के द्वारा क्रान्ति को परिभाषित किया जाना संभव प्रतीत होता है...जहाँ तक आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती नारियां है उन्हें समानता के स्तर पर लाना होगा ।नारी को उपभोग की बस्तु न समझते हुए उसके उपयोग से बचाना होगा, निश्चित रूप से बदलते भूमंडलीकरण के परिवेश में अंत:संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से हम गुजर रहे है.जब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यूरोपीय संस्कृति दर्शन इतिहास लेखन,साहित्य कला और विज्ञान अपना उचित स्थान ग्रहण कर चूका है.तो फिल्मांकन कैसे अछुता रह सकता है।अतीत से लेकर आज तक हम नारी के प्रति संवेदनशील कम दोहक ज्यादे रहे है.हमारी प्रबृत्ति है की हम उसके साथ सांगोपांग हो.वैसे हम आलोचना करें और अंतस से उसे उपभोग की बस्तु बनायें,क्योकि हम पृतसत्तात्मक व्यवस्था की उपज है.यह भी आत्म अंतर्विरोध ही है जैसा मेरा मत है. यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जो अपनी निरंतरता को प्राप्त हो रहा है.हमें किसी भी सामजिक विज्ञान के विषय का मूल्यांकन करते समय तत्कालीन समाज के मनोसामाजिक जगत का भी विश्लेषण करना होगा एवं उसकी जरूरतों पर भी धयान रखना होगा ,तभी हम समग्र रूप से आ रहे बदलाव के प्रति हतप्रभ न होकर उससे पृथक एक धरा बना पायेंगें.पतनशील सामाज और प्रगतिशील समाज के मापदंड अब शब्दों तक सिमटे है,अंतर कर पाना कठिन प्रतीत होता है।हर व्यक्ति अपने अस्तित्व की स्थापना में हाड तोड़ मेहनत करना पड रहा है ,कुछ अलग दिखने कुछ अलग लिखने में ,लतफत है और इसका प्रभाव चतुर्दिक हो रहा है. ऐसे में लेखन,से लेकर साहित्य,कला,इतिहास,दर्शन,राज्नितिशात्र,समाजशात्र की संकल्पना भी हर व्यक्ति अपने सुविधाओं और वाणिज्यवाद के अवसर के अनुसार करता हुआ गोचर हो रहा हैं। इस स्वस्थ या अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में सन्नी लियोंन का क्या दोष?वह तत्कालीन समाज की मनोब्रित्ति की अभिव्यक्ति है,लोग बाग़,लाल पीले नीले हो रहे है.अब तो पतन और प्रगति में अंतर कर पाना कठिन है।
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