कोई भी पूर्वाग्रह पालना
पाप है,हमारी संस्कृति इसे खारिज करती है अहिंसा भारतीय जन मन में रचा बसा है ! आखिर
कांग्ररेसियों ने किसी समय गाय और बछडे के निशान पर सत्ता का सुख भोगने वाले के
द्वारा केरल में खुले आम बछड़ों को काटना एवं गोमांस का वितरण करना उतना ही अपराध
है जितना की गाय पर राजनीति करना ! नए राजनीतिक समीकरणों की खोज में अब गाय कुछ
ज्यादा प्रासंगिक हो गयी है ! गाय,गाय का गोबर,गोमूत्र उसके बछड़े,उसका पूरा परिवार
चक्र, भारतीय जनमानस में रचा बसा है ! पशु और आदिम मानव का इतिहास बहुत पुराना है,
खैर वार्तमान केंद्र सरकार ने पशु क्रूरता निवारण (पशु धन वजार) कानून 2017 को पारित किया यह कानून
सर्वसम्मति से पास हो गया और प्रभावी भी है ( भारतीय मन हर प्रकार की क्रूरता एवं हिंसा का विरोधी है ) लेकिन
प्रश्न यह उठता है इस तरह की क्रूरता का स्मरण हमें 2017 में ही क्यों आया ? जबकि
संबिधान सभा में गोबध रोक पर बहस हुयी थी ! यह निर्विवाद सत्य है की
संविधान साभा के सभी सदस्य योग्य थे ! देश
स्वतंत्र हुआ था ! तब स्वतंत्रता हमारे लिए अमूल्य निधि थी इसीलिए भारतीय राजनीति देश निति थी ! आज की तरह
मुद्दों का अविष्कार की मुहताज न थीं ?
प्रायोजित आविष्कारित मुद्दे जो राजनीति को शतरंज की तरह शह और मात के खेल से
ज्यादा वैज्ञानिक थे ! तभी तो स्वतन्त्रता संग्राम के समय अग्रेजी पढने की होड़ सी
लगी थी ! उस समय भी बेद मौन थे ! संबिधान वेदों की ऋचाओ से न निकल कर अमेरिकी संविधान,यूनाईटेड किंगडम, आईरीस,
जैसे देशों पर निर्भर रहना पड़ा था ! जो आज भी कायम है ! जैसा की लेखक ने उधृत किया
है की सेठ गोबिंद दास ने गोबध निषेध को संस्स्कृतिक विषय बताया और बताया की गाय
श्रीकृष्ण के समय से ही मत्वपूर्ण है ! शिब्बन लाल सक्सेना,ठाकुरदास भार्गव,राम
नारायन सिंह,आदि आदि ने गोबंस को निषेध बताया,तत्कालीन संविधान सभा ने इस विषय को
मौलिक अधीकारों में न रखते हुए राज्य के निति निदेशक तत्वों में रखा,निति निदेशक तत्व वे आदर्श सूत्र वाक्य है जिन्हें
न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है हां जब लोक कल्याणकारी सरकारे चाहें तो वे
इस विषय पर कानून बना सकती है,अब सवाल यह
है की सरकारे गोबंस तक ही अपने आपको सिमित क्यों रख रही है?आदमी की बुनियादी
आवश्यकताओं की नीव अभी भर नहीं पायी है और हम गाय और मंदिर पर ही संकेद्रित क्यों
हैं ? मै यह मानता हूँ की मंदिर हमारे आस्था के केंद्र है हमें अपने केंद्र से
विचलित नहीं होना चाहिए ! क्या वैदिक युग का बोध संविधान सभा के सदस्यों में नहीं था ? अगर नहीं था क्यों?ये वेद उस समय प्रसंगिक
नहीं थे ? ! अगर भारत की सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि के तह में जाए तो हमें पता चलेगा की वैदिक धर्म के विरुद्ध ही बौद्ध
धर्म का उदय हुआ था ! वैदिक धर्म जिस चश्मे से आज देखा जा रहा है समय के कोप से यह
भी नहीं बच पाया था कारण एक ही था,कट्टरता ! सांस्कृतिक अतिवाद ! भारतीय धर्म एवं
दर्शन अतिबाद से मुक्त रहा है इसकी तरलता ही 15000 वर्षों से आज तक भी अक्षुण
है अत: तत्कालीन समय की आवश्यकता है मांग और आपूर्ति में उचित संतुलन बनाते हुए
जनहित में कार्य किये जांय ! यहाँ यह कहना आवश्यक होगा कि नोटबंदी एक साहसिक
निर्णय था जो किसी सरकार का ना तो मौलिक अधिकार था ना ही संविधान में इसका उदाहरण
ही है पर हुआ ! पूरा देश एकता के सूत्र में बधा था लोग प्रतीक्षारत थे कि परिणाम
सार्थक होंगे पर वही ढाक के तीन पात साबित हुए ? माननीय वित्त मंत्री जी के वयान पर
गौर फरमाए तो पायेगे की मात्र 91 लाख लोग ही टैक्स के डायरे
में आयेंगे और 12 लाख लोग चिन्हित किये जा रहे है ! जिस समय नोट्बंदी की
घोषणा की गयी थी उस समय सरकारी आकड़ों के हिसाब से 18 लाख 50 हजार कर्रोड़ से अधिक
रूपये 1000,एवं 500 रूपये के रूप में बाजार में उपलब्ध थे ! 131 करोड़ के भारतीय भूभाग में
सिर्फ 4 करोड़ लोग टैक्सपेयर हों यह क्या आश्चर्यजनक नहीं ? क्या यह आश्चर्यजनक जनक
नहीं की १३१ करोड़ के भारत में सर कुल
मिलाकर 4 करोड़ लोग इनकम टैक्स पेयी है ?
यहाँ यह ध्यान रखना होगा की प्रधानमन्त्री ने स्वयम स्वीकारा की आखिर बड़े बड़े घर और बड़ी कारों की संख्या का
अनुपात लगाया जाय तो इनकम टैक्स पेयी की
संख्या और बढ़ सकती है ! पर क्या हुआ ? अन्ना के आन्दोलन में वे ही लोग भ्रटाचार के
विरुद्ध झंडा लिए खड़े थे जो भ्रष्टाचारी थे उस समय भी संसद मौन थी आज भी रेनकोट पर
संसद मौन है ?