Friday, December 2, 2011

परिधि

परिधि शब्द की अर्थवत्ता के देखते हुए 
स्वयम को गोलाकार करते हुए 
परीधि में घूमता रहा 
मै कुछ नहीं कर रहा था 
सब कुछ स्वयं हो रहा था 
मेरे व्यक्तित्व की बटन कीसी दुसरे के हाथ थी 
मेरे जीवन की उलटी गिनती शुरू हुयी 
शून्य तक पहुतचते-पहुचते 
शून्य में विलीन हुयी 
नियंत्रण कक्ष से आवाज आई 
अब तुम्हे बाहें उठाना है 
दायें चलना है 
वाएं चलना है तुम्हे वह सब कुछ देखना है ?
जो तुम नहीं देख सकते ?
या देखना नहीं चाहते 
पर क्या करते 
देखना था ?
निर्देशन  था 
देखा वाही आग 
वाही आत्मा 
वही व्यक्ति 
जिसकी सत्ता 
दूसरों के द्वारा संचालित थी !!

देखा था मैंने भूख से उत्तप्त आग 
देखा है मैंने आँतों का देत्याकार रूप 
जो मुह बाये खड़ी थी खाने को 
आतुर 
व्यक्ति को 
उसके अस्तित्व को !!

समायोजन की प्रक्रिया 
जैसे यह जीवन का आयोजन हो 
विचारों के कनात पर खड़े हुए 
ताने हुए 
कभी झुके कभी रुके 
फिर तनें 
तनते चले गए 
पतंग की तरह 
जहाँ हवाओं का साम्राज्य था 
प्रतिकुलन अनुकूलन की डोर के 
खीचते हुए 
झुकते हुए 
डोर का हर ताना -बना खीच जाता है 
स्वयम से त्रस्त 
तरसता है 

7 comments:

  1. behtreen shabd sanyojan khoobsurat bhaav se paripoorn prastuti.

    ReplyDelete
  2. रवि शंकर जी,
    अपने अनुभवों से उत्पन्न मनोभावों को बहुत सहज सुन्दर रूप से प्रस्तुत करने के लिए बधाइयाँ ..

    ReplyDelete
  3. समायोजन की प्रक्रिया
    जैसे यह जीवन का आयोजन हो
    विचारों के कनात पर खड़े हुए
    ताने हुए
    कभी झुके कभी रुके
    फिर तनें
    तनते चले गए
    पतंग की तरह


    वाह ....एक सच्ची कविता है ये !!! बधाई रवि साहब !!

    ReplyDelete
  4. वाह ...खूबसूरत भाव

    ReplyDelete
  5. Bahut sundar bhavabhivyakti.behtreen prastuti..utkrisht rachna ke liye bahut bahut badhayi..

    ReplyDelete
  6. Bahut sundar bhavabhivyakti.behtreen prastuti..utkrisht rachna ke liye bahut bahut badhayi..

    ReplyDelete
  7. Bahut sundar bhavabhivyakti..
    Behtreen prastuti..
    Utkrisht rachna ka liye bahut bahut badhayi

    ReplyDelete